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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


होना कुछ नहीं का

बोर्ड लगा है। खादी भंडार। आयताकार काउंटर, लम्बे। पीछे आलमारियों में खादी के थान। हल्के  रंगों में मोटे कपड़े। कोसा, साड़ियाँ, खादी, रेशम और कुछ रेडिमेड कपड़े। आलमारी पर यहाँ-वहाँ धूल, बाहर कभी-कभी अंधड़-सा चल जाता है। अभी सुबह के साढ़े नौ ही बज रहे हैं। काउंटर के पीछे एक आदमी सुस्त झुका हुआ है, सिर टिकाए बाहर सड़क की ओर देखता। खादी पहने है, कुर्ता-पाजामा। एक और व्यक्ति है। कुर्ता-पाजामा के साथ काली जाकेट भी पहने है। हिसाब लगा रहा है। अन्दर कम्बल के ढेर के सहारे एक और व्यक्ति लेटा हुआ है। टोपी से आँखें ढके हुए।  काउंटर के एक कोने पर टेलीफोन रखा है। उस पर भी हल्की धूल चढ़ रही है। ऊपर नेताओं की तस्वीरें हैं। आलमारियों पर खादी सम्बन्धी आदर्श वाक्य लिखे हुए हैं। सभी गांधीजी के। खादी की महत्ता बतानेवाले।

टेलीफोन की घंटी बजती है। काली जाकेटवाला टेलीफोन की ओर देखता है। सुनिए, टेलीफोन है, वह दूसरे से कहता है, जो सुस्त बैठा सड़क की ओर देख रहा है। 'अब आप ही उठाइए!' वह सिर टिकाए जवाब देता है, 'उठाइए, उठाइए, हम हिसाब कर रहे हैं। 'काली जाकेटवाला जोड़ लगाने लगता है। 'हिसाब बाद को कर लीजिएगा, कौन जल्दी है, अभी फोन तो सुन लीजिए।' उत्तर मिलता है, आप तो कुछ कर नहीं रहे, फिर आप ही क्यों नहीं सुन लेते?'  काली जाकेटवाला कहता है। 'आप जहाँ बैठे हैं उसके पास ही है, हाथ बढ़ाएँगे तो सुन लेंगे। हम यहाँ दूर बैठे हैं।' सुस्त व्यक्ति सड़क से बिना नजर हटाए बोलता रहता है। 'सवाल दूर-पास का नहीं है, हम हिसाब कर रहे हैं, यहीं से ध्यान नहीं तोड़ सकते। आप कुछ नहीं कर रहे। आप टेलीफोन पर जवाब ही दे सकते हैं।' काली जाकेटवाले ने उसे इस बार स्पष्ट समझाया। 'प्रश्न यह नहीं है। हम उठ भी सकते हैं। पर सोचते हैं, कोई जरूरी फोन हो, तो आप ही उचित उत्तर दे सकेंगे।' दूसरे ने जवाब दिया। इस पर काली जाकेटवाला मुस्कुराया और बोला, 'अब उठ भी जाइए, घंटी बज रही है, जवाब दे दीजिए।' इस पर दूसरे व्यक्ति ने सड़क से नजरें हटाकर उसकी ओर देखा और कहा, 'क्या जवाब देना है?' 'अब फोन सुनिएगा तभी न कहिएगा कि क्या जवाब होगा। अभी से कोई कैसे बता सकता है?' इस पर वह सुस्ती से गम्भीर चेहरा लिए फोन की तरफ बढ़ा और उसके उठाने के पहले काली जाकेटवाले से बोला, 'हम समझे शायद आप जानते हों। हलो, हलो। हाँ हम बोल रहे हैं खादी भंडार से। खादी भंडार। हाँ-हाँ। क्या कहा, कपड़ा चाहिए? तो यहाँ कपड़ा ही तो बिकता है और क्या, आइए और ले जाइए। जी। जी, हाँ जी, कहाँ से बोल रहे हैं? थिएटर से?'

'थिएटर का भी कपड़ा है, पड़दा-उड़दा लगाना है क्या? शौक से लगाइए। रंगीन कपड़ा है छापादार, जौन रंग का कपड़ा चाहिए, तौन रंग का कपड़ा ले लीजिए। या चाहें तो रँगवा लीजिए। थिएटर का कपड़ा तो बहुत है। क्या कहा? आपरेशन थिएटर से बोल रहे हैं? कहाँ लगा है यह आपका  थिएटर? हाँ, हाँ, आपरेशन थिएटर। अरे हमहू देखेंगे। ऐसी क्या बात है साहेब। हैं! अस्पताल में! अस्पताल में थिएटर लगा है! वाह, आप अस्पताल से बोल रहे हैं! और क्या। थिएटर में फोन नहीं होगा ना! अरे साहेब, हम क्या गलत समझ रहे! आप जो बोल रहे सो ही समझ रहे। आपको थिएटर के लिए कपड़ा चाहिए सो है रंगीन। छापादार। ऐं, सफेद चाहिए, अस्पताल के लिए, थिएटर में अस्पताल का सीन बनाइएगा क्या? कोई डाक्टर-आक्टर का तमाशा है, नर्स-उर्स। नहीं, अरे, हम क्या गलत समझे, जो आप बोल रहे सो ही समझे। थिएटर में तो रंगीन कपड़ा चलता है। देखिए श्रीमान् जी, आप यहाँ आ जाइए और जैसा चाहिए, ले जाइए। आपरेशन थिएटर या जौन भी थिएटर हो। नमस्कार, हाँ जी, नमस्कार!' उसने फोन रख दिया।

'क्या पूछ रहे थे?' काली जाकेटवाले ने पूछा।
'आप अपना हिसाब-किताब में लगे रहिए। आपको क्या करना कोई क्या बोल रहा है। हमने फोन सुना और जो उचित जवाब था, सो दे दिया। पर इतना बता देते हैं कि अब से फोन आएगा तो आप उठिएगा।' और वह व्यक्ति फिर काउंटर से सिर टिका सड़क की तरफ देखने लगा।
कम्बलों के सहारे लेटे व्यक्ति ने आँख पर से टोपी हटाकर पूछ, 'क्या बात हुई?'
'कुछ नहीं। टेलीफोन सुना नन्दरामजी ने। हम पूछ रहे हैं कि काहे बात का फोन था, तो जवाब नहीं दे रहे हैं। कह रहे हैं आपको मतलब!'
'प्राइवेट फोन होगा?'
'अरे नहीं, दूकान का था।'
'भाई नन्दरामजी, आपको बताना चाहिए। जब मैनेजर साहब न हों, तो सदाशिवजी ही मैनेजर हैं। आपको बताना चाहिए। वे प्रधान हैं।'

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