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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


मैंने कहा-'आत्माजी, आप शरीर में विराजती हैं। आपको मेरी जेब में, मेरे बटुए में निवास करना चाहिए था, तब आप मेरी पीड़ा समझ पातीं। मैं सरकारी नौकर नहीं जिसे टिकट नम्बर देना पड़ता है। मैं संस्था का सम्माननीय मेहमान हूँ जिसे गांधीवाद की वर्तमान परिस्थितियों में सार्थकता पर बोलना है, भाषण देना है। मेरा लाभ इसी असत्य में है कि मैं फर्स्ट क्लास से आया-गया। सत्य से संस्था की बचत होगी, असत्य से मेरी। मैं अपनी बचत करूँगा, अपने लाभ की सोचूँगा। मैंने थर्ड क्लास का टिकट खरीदा और प्लेटफार्म पर पहुँच गया। कुछ समय बाद ट्रेन आयी। थर्ड क्लास में कठिन प्रवेश की समस्या थी, पर मैंने चुनौती को स्वीकारा और अपने पौरुष को प्रमाणित करता अन्दर धँस लिया। मेरी  आरामप्रिय आत्मा की एक न चली, मगर जगह बनाकर मैं बैठ लिया जैसे-तैसे।

भाषण हुआ। मंच पर मानो रुई धुनकने का सामान लेकर हम बैठ गए और शब्द-शब्द धुनकर  हमने सभा-भवन के चौकोर आकाश को पाट दिया। मैं फैल रहे भ्रष्टाचार पर बोला। मैंने गांधी से वर्तमान भ्रष्टाचारी राजनीतिज्ञों की तुलना की और प्रभावपूर्ण शब्दावली में अफसोस प्रकट किए, जिसे सुन श्रोताओं को अफसोस होने लगा। मैंने गांधीवाद के विचार-बण्डल को तत्त्व-तत्त्व खोला और हर तत्त्व को सरेआम परखा। सब मान गए कि गांधीवाद की पुरानी चली आ रही रेल वर्तमान में आकर दुर्घटनाग्रस्त हो गई है, क्योंकि वे पटरियाँ अब समानान्तर नहीं रहीं जिस पर रेल जा रही थी। मेरी बात से कुछ सहमत हुए। कुछ जो निरन्तर फर्स्ट क्लास से आते-जाते थे, असहमत हुए। उन्हें होना ही था।

अन्त में वह स्वर्णिम घड़ी आई जब मुझे तीन फर्स्ट क्लास यानी डेढ़ सौ रुपये रखकर लिफाफा  दिया गया। खर्च पचास, लाभ हुआ सौ। गांधीवाद बुरा नहीं रहा। मैंने कहा, चलेगा। लिफाफा जेब में रख लिया। उसी क्षण आत्मा को घूँसा-सा लगा। वह व्यंग्य में मेरा हाल ही दिया गया भाषण  दुहराने लगी। खासकर वे अंश जो मैंने चारित्रिक पतन को लेकर कहे थे, ज़रा-ज़रा-से लाभों के लिए गिर रहे मनुष्य के लिए कहे थे।

कई दिन हो गए, मगर आत्मा, अपनी शैली में कचोटती है। मित्र कहता है जो तुमने किया वही व्यावहारिकता है, समझदारी है। मैं कहता हूँ चाहे यह मिनी भ्रष्टाचार हो, पर है भ्रष्टाचार।  मुझसे-उसमें क्या अन्तर है? उनको बड़े मौके मिले, उन्होंने बड़ा भ्रष्टाचार किया। मुझे एकमात्र छोटा मौका मिला, मैंने छोटा भ्रष्टाचार किया। उसने कहा, जो हो गया सो हो गया और अब तू क्या कर सकता है? क्या तू इस पर भाषण देगा या लेख लिखेगा, मैंने सोचा यह भी कर लो। मन का भार भी हल्का हो जायेगा। और...खैर, (सभी बातें कहने की नहीं होतीं। क्या भाषण में मेरा यह कहना उचित होगा कि मैं तीन फर्स्ट क्लास ले रहा हूँ?)

मुझे डर लगा कि इस तरह मैं एक फ्रॉड हो जाऊँगा। भ्रष्टाचार करूँ और अपने को कोसकर सन्त बनने की चेष्टा करूँ। बड़ा बँगला प्राप्त करने के लिए वर्षों प्रयत्न करूँ और बँगला प्राप्त होने पर उसे एक कठघरा, एक कैदखाना घोषित कर स्वयं को पीड़ित बताऊँ। चोर रास्तों से अन्दर घुसकर दरवाजे पर खड़ी स्वार्थी भीड़ को कोसूँ और उससे भी काम न चले तो खुद को कोसूँ कि हाय मैं चोर दरवाजे से क्यों आया? लोग दाद देंगे कि आदमी ईमानदार है, जो सोफे पर लेटा सोफे को कोसता है। एक चुभन अनुभव करता है, चाहे जगह नहीं छोड़ता। मैं तीन फर्स्ट क्लास का रुपया जेब में रखे अब रो रहा हूँ। उफ्फ! मैंने कहा-यह क्या किया?

मित्र कहता है, 'देखो प्यारे, हर वक्त कोई नया टेन्शन खड़ा कर परेशान होना तुम लेखकों की  विशेषता होती है। तुम यहाँ से वहाँ बोलने गए, तुम्हारी क्या गांधीजी से रिश्तेदारी है या डॉक्टर ने बताया था कि जाओ और भाषण दो। तुम गए, दो दिन नष्ट किए, विचार किया, विचारों को प्रकट किया और कार्यक्रम सफल बनाया। इस श्रम का मूल्य तुम्हें मिलना चाहिए। मिला है। संस्थावाले जानते हैं, तुम जानते हो। फर्स्ट क्लास का मार्ग-व्यय और थर्ड क्लास के खर्च में जो अन्तर है, वही तुम्हारे श्रम का मूल्य है।'

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