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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...



चुनाव गीतिका : सरलार्थ

आज तुम रस-गन्ध-हीन पुष्प के समान कुम्हलाए हुए-से क्यों हो मित्र! तुम पर कौन बाधा आ पड़ी है? तुम राजधानी के सुखद आवास छोड़ कहाँ जा रहे हो? तुम्हारी यह लपटती-झपटती धोती, जीर्ण-शीर्ण-सा कुर्ता और आन्दोलनों के जमाने की स्मृति दिलानेवाला वास्कट सब कुछ अति ही निराला एवं भिन्न है। आज तुम वैसे नहीं लग रहे, जैसे कल तक थे। तुम्हारा मुख-सरसिज आज जाने क्यों एक चिन्ताग्रस्त नेता का बोध करा रहा है। कौन-सा अमंगल तुम्हें उदास किए है? इस दिशा में किस ठौर पर जा रहे हो। सघन कांतारों में किसका अन्वेषण करने का लक्ष्य है आज?

1
कवि ने निर्वाचन की बेला में चतुर नेता द्वारा अपनी सारी सुध-बुध खो बैठने की स्थिति का चित्रण किया है। वह कहता है कि अपने चुनाव क्षेत्र की ओर सत्वर गति से जाता हुआ आज वह पहचाने नहीं आ रहा।

2

इस बार चुनाव जल्दी लग गए। क्या करें, निठुर इन्दिरा से हमारा सुख देखा न गया। उसने हमें समय बीतने से पहले ही निगोड़ी जनता में पठवा दिया।

हाय! अभी तो स्वार्थों के चकवा-चकवी जी-भर मिल भी नहीं पाए थे। निजी सुखों की कमल जोड़ी से भ्रष्ट पवन मधुर छेड़छाड़ कर ही रहा था। अभी-अभी तो यह सेवाभावी तन डनलपपिलो के मनोहर पाश में सिमटा ही था कि समय के निर्दयी मुर्गे ने बांग देकर कहा कि चुनाव आ गए!

कवि कहते हैं एक और दलबदल करने की इच्छा नेता के हृदय में शेष ही थी कि हाय देखो यह कैसी अघट घटी। बेचारे क्या करें कुछ समझ नहीं पड़ रहा।



अय सखी, आज चहुँ दिशि यह शोर कैसा! बकुलों के समान श्वेत परिधान धारे कार्यकर्ता जनों की पीत कहीं प्रयाण कर रही है? रसिक जन आज रसिकता छोड़ राजनीति की चर्चा में काहे मगन हैं? क्या शृंगार अब रसराज नहीं रहा?

फेरियाँ लगाकर तरुणियों के सौन्दर्य का अन्दाज लगानेवाले वे भ्रमर-वृन्द आज उन्हें नम्र स्वरों में 'बहन जी' के आदरसूचक शब्दों में क्यों सम्बोधित कर रहे हैं? सदा सहमत होनेवाली प्रौढ़ाएँ भी आज मानिनी मुग्धाओं के समान रूठी हुई क्यों लग रही हैं? मेरा प्रीतम आज इतनी सुबह मुझे सोता छोड़ नारों से मंडित पोस्टरों का बण्डल बगल में दाबे कहां चल दिया?

कवि कहते हैं कि देश में अकस्मात चुनाव आ जाने से पुर की सुन्दरियाँ परस्पर जिज्ञासा कर वास्तविकता जानने को बड़ी आकुल हैं। सुन सखी, आज मुझे वह फिर दिखाई दिया जो पिछली बेर गलियों में आकर भाषण दे गया? मीठी-मीठी बातों का धनी, वही चतुर नट जिसने फुसलाकर हमारा वोट हर लिया। आज मुझे सुबह की बेला वह फिर दिखाई दिया।

मैं नहाई हुई आँगन में थी। निचोड़ने पर मेरे बालों से जलधारा यों झर रही थी मानो मोती झर रहे हों। वस्त्र भीगे हुए थे। मैं ठिठुरती धूप में बैठी हुई थी। क्या कहूँ तभी उस निर्लज्ज ने मुझे देखा और मैंने उसे। वह ऐसे ललचाए नेत्रों से मुझे देख रहा था मानो मुझसे कुछ चाह रहा हो।

कवि कहते हें कि कौन नहीं जानता कि चुनाव की बेला में सुन्दरियाँ वोट मात्र रह जाती हैं। चतुर नट उनसे बस वही माँगता है। 

5

नारों ने आकाश छू रखा था, भोंगे गुंजायमान थे, पदत्राण शिरस्त्राण हो रहे थे अर्थात् जूते चल रहे थे। देखो, चुनाव की यही शोभा है।

नगर के गुंडे उस समय कार्यकर्ता बन गए थे, स्मगलरों का त्याग अति सराहनीय था। चोर-बाजार के व्यापारी प्रजातन्त्र के दायित्वों के प्रति जागरूक हो गए थे।

व्यक्ति समाज का ही अंग है, यह इस चुनाव ने फिर सिद्ध कर दिया, जब लोगों ने अपनी जीपें तथा अन्य वाहन राजनीतिक दलों को दे दिए।

बागों, वनों, गृहों, गलियों और चौमुहानों पर खुले-आम झूठ बका जा रहा था। सत्य क्या है, असत्य क्या है, इसका भेद करना गुनीजन के लिए भी कठिन था।
कवि कहते हैं ऐसी गन्दगी में विचरण करना और सफल होना उसी छबीले का काम है जो हमारे गीतों का नायक है। चुनाव रूपी पंक का वही पंकज मेरा आराध्य है।

6

आज तो विचित्र ही प्रसंग हुआ। नेता ने अपने मित्रों को एक करुण कथा सुनाई।
हुआ यह है कि सकल दिवस चुनाव-प्रचार में व्यस्त रहने के उपरान्त चुनाव का वह उम्मीदवार एक अफसर मित्र के आवास पर पहुँचा और यह अनुनय करने लगा कि मुझे रात्रि अपने यहाँ विश्राम करने दे, प्रातः होने पर मैं चला जाऊँगा। तिस पर उस अफसर मित्र ने असहमत होकर जो कहा वह अत्यन्त 'निराला' था :

बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु
चलते हैं इधर चुनाव बन्धु

उसने नेता को द्वार से बिना सत्कार ही इन्कार कर दिया। नेता ने व्यथा-भरे स्वरों में मित्रों को बताया कि यह वही अफसर था जिसके प्रमोशनार्थ मैंने केबिनेट पर जोर डाला और विगत वर्षों में तीन बार जिसके तबादले रुकवाए।

कवि कहते हैं, चुनाव की बलिहारी है जिसमें मित्र शत्रु सम और शत्रु मित्र सम व्यवहार करने लग जाते हैं।

7

चुनाव-श्रम-जल-कण-झलमल
जनता के आलिंगन से दुर्गन्धित वक्ष देश
आश्वासन रत, स्वीकृतियों में पशोपेश

प्रथम पंक्ति से तात्पर्य प्रचार-कार्य की व्यस्तता के परिश्रम से शरीर पर आई पसीने की बूँदों से है जो झलमला रही हैं। चुनाव के समय जनता से बार-बार आलिंगन करने की मजबूरी के कारण नेता के वक्ष-देश (कुर्ता, वास्कट आदि के भाग) दुर्गन्धित हो गए थे। वह आश्वासन देता था, पर स्वीकृतियों में पशोपेश रहता था।

पद की शेष पंक्तियाँ, जो नेता के सार्वजनिक चरित्र के ऐसे विरोधाभासों का परिचय देती हैं, सरल हैं।
(पशोपेश के प्रयोग से सिद्ध है कि कवि अरबी-फारसी का अच्छा ज्ञाता है।)

8

उस दिन वह छलिया मेरे द्वार भी आया था। मैं तन को अंगराग लगा नाना आभूषणों से स्वयं को सजा रही थी। लम्पट ने तभी कुण्डी खटखटाई।
मैंने कार पर ही उससे वार्ता की। उस समय तेल से सनी हुई उसकी घुँघराली लटें तथा तम्बाकू के बीड़े चबाते हुए श्याम मुख में दन्त-पंक्तियाँ अलग ही शोभा दे रही थीं।
चुनाव को ध्यान में रख उसने कुर्ते में सूराख कर लिए थे और उन पर पैबन्द लगा अपनी अजब धज बनाई थी। उस दिन तो वह बड़े जनवादी ठाठ में था।

हे सखी, इसे भाग्य कहूँ या दुर्भाग्य कि चुनाव आया और उस शठ के लिए विगत शब्दों की स्मृतियाँ मन में फिर ताजा हो गईं जिन्हें मैं सचमुच ही भुला चुकी थी।

कवि कहते हैं कि राजनीति के रसिया ने गलियों में ऐसी धूम मचाई थी कि पुर की वनिताएँ चकित थीं अर्थात् कुछ समझ नहीं पा रही थीं। 

9

बहुत-बहुत कर अनुनय
पहले भी ले गए थे वोट ओ स्वार्थ हृदय
बहुविध चाटु वचन।
अवसर-प्रेरित सिद्धान्त रचन
तव तकनीक जनमोहन
गमन करो सत्वर इस बार
अन्य दिशा सदय

अर्थात हे स्वार्थी हृदयवाले नेता पिछली बार भी तुम बहुत विनय कर वोट ले गए थे। अनेक प्रकार से मन को प्रसन्न करनेवाले वचन बोलनेवाले तुम अवसर से प्रेरित सिद्धान्त रचने में प्रवीण हो अर्थात् जैसा मौका देखते हो वैसी बात करते हो। तुम्हारी शैली जनता को मोहित करती है, पर जहाँ तक मेरा प्रश्न है, तुम यहाँ से जल्दी खिसको। दया करो, कहीं और जाओ।

10

उस दिन तो नगरी के युवावर्ग ने उस पुराने नेता को बड़ा दिक किया। वह चले तो उसे चलने न दें। वह बोले तो उसे बोलने न दें। यह भी खूब रही।

अरे युवको, वह तो उन दिनों जन-कल्याणी भाषा बोलता था, मानव मात्र को नौकरी दिलाने की डींग भरता था। आश्चर्य है ऐसे सुखदायी स्वर भी तुम्हें उस बार कानों को कटु लग रहे थे।

अरे, युवको, उसे व्यर्थ आतंकित करने से क्या लाभ, वृथा शंकित करने से क्या प्रयोजन। उसे वोट देने के लिए अभिशप्त होकर अकारण सन्ताप देने से क्या लाभ?

कवि कहते हैं कि चुनाव की बेला ही ऐसी है जब नेता की इज्जत पर धूल उड़ती है। प्रजातन्त्र पर आस्था रखनेवाला हमारा चतुर नट इसका बुरा नहीं मानता।

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