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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


11

विरोध वृवा
तव असहमति मम व्यथा
त्यागो विपरीत भाव
छोड़ो अब सकल ताव
कर दो सरस समर्थन
सविनय स्मुपस्थित
मम तक दर्पन

अर्थात् नेता कहता है कि मेरा विरोध करना वृथा है। तुम्हारी असहमति से मुझे व्यथा हो रही है। तुम यह विरोधी भाव छोड़ो। व्यर्थ के ताव मत दिखाओ। मेरा हृदय से समर्थन कर दो। मैं पूरी विनय के साथ उपस्थित हुआ हूँ और तुम्हारी ही भावनाएँ मुझमें प्रतिबिम्बित होती हैं। 'तव मम दर्पन' में नेता में जनता ही प्रतिबिम्बित होती है वाली प्रजातान्त्रिक उक्ति को ही कवि ने अभिव्यंजित किया है।  

12

अरी सखी, इस चुनाव ने मेरे प्रेमियों की संख्या बढ़ा दी। देख नहीं रही थी उन दिनों गलियों में कितने चक्कर काट रहे थे। हर कोई आकर मुझसे मेरा वोट माँग रहा था। वोट रूपी कमल एक था, पर उसे पाने को उत्सुक भ्रमर अनेक।

उस दिन वह मुझे पोलिंग बूथ पर आने का संकेत कर गया था। मुझे वह अपना चिन्ह भी दे गया था, जिसे मैंने कलेजे में छिपाकर रख लिया था।

कवि कहता है कि चुनाव के लड़ैया कितनी ही चिरौरी करें, हमारी कलम-से नयनोंवाली नायिका ने तो उसी छैला क्रो वोट दिया जिसका कुंज-गलियों में भारी प्रचार था।

13

रात-रात भर हुई जगाई, लाल-लाल भये लोचन
कैसे भरमाएँ वोटर को सखा सहित रत सोचन
जाओ शर्मा जाओ वर्मा शोधो अपनी-अपनी जाति
मैं हूँ जातिवाद से ऊपर, दुहराओ रह-रह यह ख्याति!

तात्पर्य स्पष्ट है। चुनाव-काल में रात भर जगने से नेता की आँखें
लाल हो गई हैं अर्थात् वह क्रोधित है। उस दिन मित्रों के साथ बैठा यही सोच रहा था कि किस भाँति जनता को चुनाव हेतु फुसलाकर प्राप्त कर ली जाए। वह कार्यकर्ताओं से, जिनके नाम शर्मा-वर्मा थे, कह रहा था कि तुम जाकर अपनी-अपनी जाति से मुझे वोट देने के लिए सम्पर्क साधो और यह प्रचार करो कि मैं जातिवाद से ऊपर हूँ। पद में नेता के चरित्र का विरोधाभास दर्शाया गया है। शेष पंक्तियाँ सरल हैं।

14

पूरा पद सरल है। केवल अन्तिम दो पंक्तियाँ कठिन हैं।
बेशरम नेतृत्व देखकर तरुण करुण मुस्कार,
जन राधा की बाधा हरने आधा मन कर आए।

तात्पर्य यह है कि युवक वर्ग ऐसा बेशरम नेतृत्व देखकर (चुनाव में खड़े व्यक्ति से तात्पर्य है) हृदय में करुण भाव से मुस्का रहा है। ये नेता लोग जनता रूपी राधा की बाधा हरने आए तो थे, पर आधे मन से आए थे।  

15

अरी जनता, अब तू बहुत मान न कर। सब कुछ उसी के वश में है, तेरे वश सिवाय वोट देने के कुछ भी नहीं। उन चतुर खिलाड़ियों से जीतना कठिन है। सिद्धान्तवादी मूर्ख की स्थिति उस वानर के समान है जिसके हाथों में उस्तरा है। दूसरा सिद्धान्तहीन व्यवहारवादी है जो पल-पल दल बदलता है। तीसरी ओर नारे लगा-लगाकर तुझे भरमानेवाला छलिया है। बता पगली, तू कहां जाएगी। आज तू अपने वोट का गर्व कर ले, मगर कल तुझे कौन पूछेगा।

कवि का कहना है कि प्रजातन्त्र की हाट का यह याचक बड़ा मजेदार रहा है, जो माँगते हुए 'मत दो, मत दो' कह रहा था। निशि व्यतीत हुई। ओ, कज्जल-मलिन नयनोंवाली कामिनी उठ। पोलिंग बूथों से राजनीति का कंत तुझे टेर रहा है।

चुनाव के कटे-फटे पोस्टरों से गृहों की दीवारें ऐसी प्रतीत हो रही हैं मानो किसी सुन्दरी के तन पर नख-क्षत हों। प्रचार बन्द हो गया है। सभी जन मतदान हेतु केन्द्रों की ओर सत्वर गति से जा रहे हैं। ऐसे में हे गजगामिनी, तू गमन-विलम्बिनी होने की कलंकिनी मत बन।

17

आज उसकी मुस्कान समेटे नहीं सिमट रही। अपने संग सखा चमचन के साथ वह बड़ा बन-ठनकर यहाँ-वहाँ डोल रहा है। वन में, कानन में उसी की जयजयकार है।

कल तक वह जिनके सामने करबद्ध खड़ा था, आज वे ही उसके सम्मुख करबद्ध खड़े हैं। सच ही है कि राजनीति धीरज का खेल है। मौके पर सिर झुकानेवाला ही इस मैदान में सिर उठाकर घूमता है।

कवि कहता है, जिन लोगों ने सब उम्मीदवारों को वादे दिए और पता नहीं किसको वोट दिया, ऐसे जन विजयी के जुलूस में आगे-आगे चल रहे थे। 


18

अब वह अपनी क्रीड़ा-भूमि छोड़ जा रहा है। वह चुनाव जीत गया हैं और व्यर्थ के मोहों से उसने मुक्ति प्राप्त कर ली है।

उसने जनता से किए अपने वादे यहीं की गन्दी नालियों में फेंक दिए हैं। अपने नारों की स्मृति मात्र से वह ऊब जाता है। अब अपने पोस्टरों की ओर वह हँसकर उपेक्षा से अवलोकता है, उसके घोषणा-पत्र मार्ग में बिखरे हुए हैं जिन्हें रौंदता हुआ वह राजधानी लौट रहा है।

कवि कहते हैं कि चुनाव तो चार दिन की चाँदनी होता है, जिसमें जनता चाहे इतरा ले, मगर बाद में तो वही अन्धकार होता है। 

19

हाय सखी, वह निर्दयी चला गया। इस बार भी लगता है मानो मुझे छला गया।

मेरे हाथों पर लगा मतदान के समय का काल-चिन्ह मिटा भी नहीं था कि वोट के उस लोभी ने मुझे भुला दिया। वन कानन में उसके सरस नारों की अनुगूँज अभी शेष नहीं हुई थी कि अनेक गालियों के साथ स्मरण किए जानेवाले नेता ने यह स्थल छोड़ दिया। आज मैं छज्जे पर खड़ी उसकी प्रतीक्षा करती रही, पर उस निठुर ने इस ओर तनिक भर न झांका। उसे मत देने के अतिरिक्त पता नहीं मुझसे कौन-सा अपराध हुआ जो मुझसे दूर हो गया।

कवि कहते हैं कि जिसके कर्म देख सहज लज्जा स्वयं लज्जित हो उसको ओ लाजवन्ती तू किस विधि लजाएगी।

20

धूर्तों में परम धूर्त, आदर्शवादियों में परम आदर्श के रूप में शोभित वह चतुर बहुरूपिया ही अब मेरे ताप हरेगा।

उसी बहुरंगी नेता को जिसके द्वार अपने भक्तों और चमचों के लिए सदैव खुले रहते हैं और जो सकल विरोधियों को उन्मूलित करने का प्रण लिए है, मैंने स्वयं को समर्पित कर दिया है।

कवि कहता है मुझ अबल में इतनी सामर्थ्य कहाँ कि मैं उस नेता की जनमोहिनी शोभा और फलदायी कर्मों का बखान करूँ। मुझे तो केवल इतना ज्ञान है कि ऐसे चतुर राजनीतिज्ञों की वन्दना ही कवि के जीवन को सुखी बनाती है। चुनाव रूपी युद्ध के विजेता, सत्ता रूपी मकरंद के परम लोभी, जनता रूपी नायिका के मन को रिझाने में प्रवीण वह मेरे गीतों का नायक ही मेरा सच्चा सुखदाता है जो मंत्री बनते ही मेरे कष्ट हरेगा और मुझे ऊँचा पद दिलाएगा।

राधा रूपी जनता को बिलखता छोड़, सत्ता रूपी रुक्मिणी में खोए हुए ओ रमणीय, तू चमचों से घिरा रहने पर कहीं यह न भूल जाना कि मैं सदा तेरी ही मूरत ध्यान में रख कलम उठाता हूं।

***


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