लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
''तुम ईमानदारी से ऐसा समझते हो कि मैं बदमाश हूँ और तुम गलत आदमी के दरवाजे
पर बैठे हो? अगर ऐसा है तो तुम जा सकते हो।''
''वर्माजी, आप गलत समझ रहे हैं।'' टू-टू ने बीच में कहा-''मैं आपकी और अपनी
नहीं, आम कुत्तों की बात कर रहा हूँ। आज बड़े-बड़े बंगलों में अलसेशियन पल रहे
हैं, क्या वे चोरी की कमाई पर नहीं जी रहे? क्या वे जाने-अनजाने उन ईमानदारों
पर नहीं भौंक रहे, जो सड़कों पर चप्पलें घसीटने पर मजबूर हैं? आज कुत्ता किस
वर्ग का समर्थक है? क्या वह धर्मराज युधिष्ठिर के पीछे जा रहा है? आप कहेंगे
वर्माजी कि मैं नेता की तरह बढ़-बढ़कर बात कर रहा हूँ, मगर मैं आपको सच कहता
हूँ कि आज कुत्ते की जात नहीं रह गई है। हम गिर गए हैं। हम चोरों की रक्षा कर
रहे हैं जो हमारा कभी धर्म नहीं रहा...। और आप उन कुत्तों का मत जानना चाहते
हैं? हम बिकी हुई आत्मा के प्राणी, जिनकी जुबान हमेशा सुख-सुविधाओं के
लिए ललचाती रही है, हमारा मत क्या माने रखता है? आप भोले हैं या शायद हमें
ठीक तरह से जानते नहीं जो हमसे-हम कुत्तों से मत पूछ रहे हैं!''
टू-टू हाँफने लगा। अपनी छोटी-सी जिन्दगी में शायद पहली बार वह इतना लम्बा
वाक्य बोला था। वर्माजी चुप थे। वे धीरे-धीरे गर्दन हिला रहे थे मानो किसी
निर्णय तक पहुँचने के प्रयत्न में हों।
तभी पड़ोस की बिल्ली आकर मुँडेर पर बैठ गई। वर्माजी को देख उसने म्याऊँ कहकर
अपने आगमन की सूचना दी।
''नमस्कार।'' वर्माजी ने कहा।
''नमस्कार वर्माजी!'' बिल्ली बोली।
''कहो मौसी?''
''अब मैं इतनी बुढ़िया तो हो नहीं गई हूँ कि आप मुझे मौसी कहने लग जाएँ। आप
स्वयं मेरे पिता के समान हैं। आप ही के घर का दूध पीकर पली हूँ। आपकी बेटी की
तरह हूँ। और आप मुझे मौसी कहते हैं। जरा सोचिए।''
वर्माजी हँसने लगे। फिर बोले-''चुनाव हो रहे हैं कुछ ही दिनों में। क्या
ख्याल है?''
''इस बार बड़ी जल्दी!''-बिल्ली ने कहा-''हाय हम बिल्लियों को भगवान कब
'वोटिंग-राइट' दिलवाएगा। मैं सच कहती हूँ वर्माजी, अगर हमें वोट का हक मिल
जाए तो इन पार्टीवालों को नाकों चने चबवा दें। कहें-बेटा रखो इधर कटोरा भर
दूध और दस-दस चूहे, नहीं तो अपन टस-से-मस नहीं होने के।''
''क्या नैतिक पतन हो गया है इन बिल्लियों का?'' टू-टू ने कहा।
''तू चुप रह, बड़ों के बीच में क्यों बोलता है?'' बिल्ली ने उसे डाँटा।
''तू कहाँ से बड़ी हो गई?''
''मुँडेर पर मैं बैठी हूँ कि तू बैठा है?''
''ऊपर बैठने से कोई बड़ा नहीं हो जाता।''
''और सुनो इसकी। अरे बेवकूफ, बड़ा वही है जो ऊपर बैठा है। क्यों, है ना
वर्माजी? अब आप अपनी संस्था के अध्यक्ष हैं पिछले
ग्यारह साल से। सब सदस्यों से ऊपर हैं। बताइए आप बड़े हुए कि नहीं? कोई कह
सकता है कि आप बड़े नहीं हैं? सच-सच कहना!'' बिल्ली ने कहा।
''मैं तो सबका सेवक हूँ। मैं तो प्राणी-मात्र का सेवक हूँ''-वर्माजी ने कहा।
''बड़ों के मुँह से यही बात शोभा देती है। अब जैसे कोई मुझसे पूछे कि आप क्या
करती हैं तो मैं कहूँगी कि मैं तो सेवक हूँ। चूहे खाती हूँ, चूहा फसल को
नुकसान पहुँचाता है और मैं उसे साफ कर देती हूँ। यही मेरा धर्म है, सेवा। मगर
वर्माजी आप हम बिल्लियों के कलेजे पर हाथ रखवाकर पूछ लीजिए, आपसे कोई झूठ
नहीं बोलेगी। सच यह है कि हम चूहा शौक से खाती हैं। हमें चाट लग गई है। आप
इसे सेवा करने की चाट कह सकते हैं, मगर हम मजबूर हैं।''
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