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जीप पर सवार इल्लियाँ

शरद जोशी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6839
आईएसबीएन :9788171783946

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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...


वर्माजी, चुनाव और टू-टू

वर्माजी को कौन नहीं जानता। शायद यही कहकर वर्माजी का परिचय ठीक तरह से नहीं दिया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि उन्हें गधे, घोड़े, कुत्ते, बिल्ली सब जानते हैं। वे प्राणियों पर दया करनेवाली नगर की एकमात्र संस्था के विगत ग्यारह वर्षों से इसलिए अध्यक्ष हैं कि संस्था की  स्थापना हुए अभी कुल ग्यारह वर्ष ही हुए हैं : प्रति वर्ष वर्माजी अध्यक्ष चुन लिए जाते हैं। मानो एक मूक समझौता है जो चला आ रहा है और यही शायद संस्था के अस्तित्व का मूल रहस्य है। वर्माजी इस क्षेत्र में काफी काम कर रहे हैं इसलिए अध्यक्ष हैं अथवा अध्यक्ष हैं इसलिए काफी काम कर रहे हैं। दूसरों के पास इतनी फुरसत नहीं कि वे इस संस्था में पद प्राप्त करें। वे सदस्य बने  रहते हैं और वर्माजी को अध्यक्ष चुन लेते हैं। आज जो कहा जाता है कि उनके दम पर संस्था  टिकी हुई है तो ठीक ही कहा जाता है।

वर्माजी एक स्थानीय अखबार खरीदते हैं और सुबह अपने। बरामदे में बैठकर पढ़ते हैं। सबसे पहले वे प्राणियों के साथ होनेवाली दुर्घटनाओं की खबर पढ़ते हैं। अगर कहीं कोई खबर हुई तो उनकी संस्था फौरन कार्यरत हो जाती है अर्थात् वे कार्यरत हो जाते हैं। वे घटना-स्थल की ओर दौड़ पड़ते हैं। उस दिन एक कुत्ते की टाँग का डेढ़ दिन इलाज न होने पर जो बाबेला उन्होंने मचाया था, वह सबको याद है।

आज सुबह वर्माजी ने पढ़ा कि लोकसभा भंग हो गई, मध्यावधि चुनाव होंगे। वे गम्भीरता से  विचार करने लगे। यह उनके चुने जाने की समस्या नहीं थी, यह दूसरे को चुनने की समस्या थी। वे प्राणियों पर दया करनेवाली कमेटी के अध्यक्ष हैं। वे सोचने लगे कि ऐसे समय उन्हें क्या करना चाहिए? प्राणियों का भला किसमें है?
वे घर से निकले। सीढ़ियों के पास धूप में उनका कुत्ता बैठा हुआ था। उसने दुम हिलाकर वर्माजी  को अपना नमस्कार पहुँचाया।
''क्यों रे टू-टू, तुझे पता है मध्यावधि चुनाव हो रहे हैं?''
''पता है।''-टू-टू ने कहा। फिर कुछ सोचकर उसने वही नैतिक प्रश्न खड़ा कर दिया जो पिछले चुनाव में भी उसने खड़ा किया था-''यह बताइए कि वर्माजी, पाँच वर्ष के अन्तराल से यदि नेता मुहल्ले में वोट माँगने आए तो हम कुत्तों को उस पर भौंकना चाहिए या नहीं?''
वर्माजी ने धीरे से कहा, ''देखो बेटे, यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि तुम किसके कुत्ते हो, और तुम्हारी नस्ल क्या है?''
''मैं मोहल्ले का कुत्ता हूँ। समाज का, इस देश का।''

वर्माजी हँसे, ''यह बात तो नेता भी कहता है। मैं समाज का हूँ, मैं देश का हूँ। मगर सवाल एक  और है? तुम कब समाज और देश के हो और कब महज अपने? तुम भौंकते और भाषण देते हो देश के लिए, जनता के लिए मगर जब तुम खाते हो तब तुम सिर्फ अपने लिए खाते हो। कुत्ते महोदय, तब तुम दूसरों को, देश को भूल जाते हो। इससे बेहतर है तुम भौंको महज अपने लिए, मगर खाते वक्त सबका ख्याल रखो। देश का, समाज का!''

''आप मुझे शर्मिन्दा कर रहे हैं?-कुत्ते ने कहा।
''नहीं, मुझे क्षमा करो। मेरा ऐसा कतई इरादा नहीं था। मैं प्राणियों पर दया करनेवाली कमेटी का पिछले ग्यारह वर्ष से अध्यक्ष हूँ। तुम जानते हो, मैं कोई ऐसी बात करूँगा जिससे किसी प्राणी को पीड़ा हो, यह संस्था के संविधान के विरुद्ध होगा।'' वर्माजी ने कहा।

टू-टू ने मुग्ध भाव से वर्माजी की ओर देखा। कुछ क्षण चुप्पी रही। फिर वर्माजी ने कहा-''देखो टू-टू तुम कुत्ते हो इसलिए शर्मिन्दा हो लेते हो, मगर आज राजनीति में शर्मिन्दा होने का रिवाज नहीं  रहा। आजकल राजनीति में कोई शर्मिन्दा होता भी है तो दूसरों के कृत्य के लिए। खुद के कृत्य पर कभी शर्मिन्दा नहीं होता।''
टू-टू कुछ देर लम्बी जुबान बाहर निकाल मुँह खोले हँसता रहा। फिर बोला-''वर्माजी, हम कुत्तों का क्या है, नंगे ठहरे। हम तो कभी-कभी यही सोचकर शर्मिन्दा हो जाते हैं कि हम नंगे हैं।''

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