लेख-निबंध >> जीप पर सवार इल्लियाँ जीप पर सवार इल्लियाँशरद जोशी
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शरद जोशी के व्यंगात्मक निबंधों का संग्रह...
चुनाव : एक मुर्गाबीती
दड़बे से बाहर आ उसने अपनी दाहिनी आँख आसमान पर फेरी तो झाग जैसे बादल घिरे
हुए थे। वातावरण ठण्डा था जिसमें कीड़े गर्मी पाने की बेमतलब चेष्टाएँ करते
हैं। पण्डित अपनी कोठरी के घुप अँधेरे में चालीसे का पाठ कर रहा था और
पण्डिताइन के चेहरे पर स्मृतियोंवाली नींद बकाया थी।
मुर्गे ने धीरे से कूँ-कूँ करके अन्दर बैठी अपनी आलसी मुर्गी को पुकारा जो
अण्डा देने के बाद उठी दार्शनिक गुत्थियाँ सुलझा रही थी। जैसे दो बच्चे होने
के बाद आज की बहुओं में चंचलता नहीं रहती वैसा ही कुछ यह मुर्गा अपनी मुर्गी
में अनुभव करने लगा है। शायद यह वातावरण का प्रभाव हो या मौसम का हो।
धीरे-धीरे किल्गी हिलाता, कूल्हे ठुमकाता, वह अपने परिचित टीले की ओर चला
जहाँ उसे रोज धूप और ताजे दाने मिल जाते थे। किल्गी कँपा जब उसने बाँग लगाई
और सामने दीवार को देखा तो देखता रह गया।
एक पोस्टर पर मुर्गे की तस्वीर बनी हुई थी और नीचे लिखा था-''को वोट दो।''
देख मुर्गा हैरान हो गया। उसके साथ यह क्या मजाक की जा रही है? किस बद्तमीज
ने फोटो निकाल चिपकाया है यहाँ? बिलकुल उसी का है। वैसे ही पंख, वैसे ही पैर,
वही किल्गी। फिर नीचे लिखा है ''को वोट दो।'' यह वोट क्या होता है? मुर्गे ने
चीखकर अपनी धर्ममुर्गी को बुलाया। वह पतिव्रता की फुर्ती से दौड़ती आई और
प्रश्नवाचक पोज में खड़ी हो गई।
''देख रही हो यह क्या है?''
''तुम्हारी तस्वीर है।'' फिर लजाते हुए बोली, ''अच्छी है।''
''अच्छी तो है, पर किसने लगाई?'' वह चिल्लाया।
मुर्गी काँप उठी-''मैंने नहीं लगाई।''
''यह तो मैं भी जानता हूँ, और इसके नीचे यह क्या लिखा है?'' मुर्गी ने सिर
झुका लिया।
''निरक्षर भट्टाचार्य! अरे इसके नीचे लिखा है 'को वोट दो।' ''
''वोट क्या होता है?''-मुर्गी ने फिर प्रश्नवाचकी पोज लिया।
मुर्गा सोच में पड़ गया, फिर बोला, ''शायद कोई दवाई होती है जिसके दिए जाने से
तुम अण्डे अधिक दे सकोगी।''
''उँह, मैं कोई कम अण्डे दे रही हूँ। दवाई की क्या जरूरत है।'' वह तुनक चली।
''अरे, ठहरो भी, मैं तो मजाक कर रहा था।''
''फिर बताओ वोट क्या होता है?''
''मुझे नहीं पता, पर यह है कुछ खतरा ही।''
''नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो।'' मुर्गी अपीली।
''और नहीं तो क्या होगा यह। तुम समझती हो मनुष्य कभी मुर्गे को समझ सकेगा,
उसका सम्मान कर पाएगा। उसे तुम्हारे अण्डों से मतलब है, मेरी गर्दन पर वह
किसी भी क्षण छुरी फेर सकता है।''
मुर्गी रुआँसी हो गई। अपने पति के मुँह से उसने ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं।
इतना वह समझ गई कि आज का बादल ढका दिन बड़े अपशकुन लेकर आया है।
मुर्गे ने देखा दो व्यक्ति उसकी तस्वीर देख आपस में बातें कर रहे हैं। वह
ध्यान से सुनने लगा।
''तुम दोगे मुर्गे को वोट?''
''अवश्य दूँगा। और तुम?''
''मैं तो मुर्गे को वोट देने के ज़रा भी पक्ष में नहीं हूँ।''
मुर्गा-मुर्गी एक-दूसरे की ओर डरकर देखने लगे।
''इसका अर्थ है कुछ मनुष्य हमें वोट देना चाहते हैं और कुछ नहीं। पर इस
खींचतान में हमारी बड़ी छीछालेदर होगी।'' मुर्गे ने लम्बी साँस खींची, ''देखो
जमाना क्या-क्या दिखाता है।''
वे कभी मनुष्यों की बातों में रुचि नहीं लेते, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई
थीं। मुर्गा जहाँ चार लोग खड़े देखता, चुगने का बहाना कर पहुँच जाता और ध्यान
से सब सुनता। मुर्गी डर के मारे कहीं नहीं जाती। सहमी-सहमी अपने दड़बे में
बैठी रहती-अब क्या होगा?
उस दिन मुर्गा परेशान लौटा और मुर्गी से बोला, ''रानी और चार दिन हैं, हम
एक-दूसरे को देख लें, प्यार कर लें, गुरुवार को वोट पड़ेंगे।''
''क्या कह रहे हो?''
''ठीक कह रहा हूँ। गली के कोने में सभा हुई थी जिसमें एक व्यक्ति कह रहा
था-याद रखें आपको गुरुवार के दिन मुर्गे को वोट देना है।''
इधर एक जुलूस नारे लगाते निकला-''वोट किसको दोगे?''
''मुर्गे को!''
मुर्गा-मुर्गी दुबककर दड़बे में घुस गए, वे थर-थर काँपने लगे और एक-दूसरे से
सटकर बैठ गए।
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