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जीवन कथाएँ >> दिल्ली चलो

दिल्ली चलो

राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :445
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 643
आईएसबीएन :81-7028-242-x

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सुभाषचन्द्र बोस की अप्रियतम जीवनगाथा ...

Dilli Chalo - A hindi Book by - Rajendra Mohan Bhatnagar दिल्ली चलो - राजेन्द्र मोहन भटनागर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दिल्ली चलो’ जीवन सत्य के दुर्द्धर्ष संघर्ष की अंतहीन गाथा है। समस्त संग्राम को समझने की कुंजी है।
नेताजी सुभाष की अंतिम उत्कट आकांक्षा थी कि देश को शीघ्रातिशीघ्र आज़ाद कराएँ और एक सर्वथा नए-शक्तिशाली तथा श्रेष्ठ जीवनमूल्यों के साक्षी भारत को विश्व के सामने खडा करें।

ब्रिटिश सत्ता उनके प्राणों को हर लेने का हर संभव प्रयास करती रही, उन्हें देश से निष्कासित करती रही और सीखचों के पीछे डाल कर उनकी मृत्यु का इंतजार करती रही। हर बार उसने उनकी मृत्यु की आहट सुनकर ही उनको रिहा किया। विवश होकर उसे परायी धरती पर अपने देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करना पड़ा।
वह भारतीय आत्मा के समग्र संघर्ष की समर्पित कहानी को दोहरा कर निस्संग योद्धा बने रहे।
‘दिल्ली चलो’ उनके मार्च का अप्रितम आह्वान था। इसी मंत्र ने आगे चलकर ब्रिटिश सत्ता को भारत आज़ाद करने के लिए विवश किया।

सुभाष को जाने बिना युवा पीढ़ी अपने को नहीं समझ सकती यही उपन्यास को रचने का मूक मन्तव्य है।

दो शब्द

यह उपन्यास मात्र नहीं है, न जीवनी है और न इतिहास है,--यह है ज़िन्दगी की कभी न बुझने वाली आग। स्वतंत्रता की जमात के दिलों में सदा यह आग सुलगती रहेगी। ज़िन्दगी इसी आग से चलती है और अपने को ज़िन्दा रखने का प्रमाण देती है। यह आग मेरे अन्दर पन्द्रह वर्ष से कभी कम और कभी तेज़ होकर जल रही है। मैंने हरचंद यही कोशिश की कि मैं इस आग को नहीं छेड़ूँ परंतु ऐसा नहीं हो सका। आख़िर यह आग मेरे ज़मीर पर छा गई और मैं अग्निमय जुनून से गुज़रने लगा। यह कृति उसी की उपज है।

इतिहास मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय है। भारतीय इतिहास के आधुनिक काल में मुझे महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, स्वामी विवेकानन्द, डॉ. लोहिया, जिन्ना, डॉ. अम्बेडकर, भगतसिंह, पं. नेहरू आदि ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। ब्रितानिया सरकार से मुक्त होने के संघर्ष का इतिहास, सामाजिक, आर्थिक चेतना का अन्तर्द्वन्द्व तथा आंदोलन और सांस्कृतिक-अन्तश्चेतना की पुनर्स्थापना का प्रयत्न अभिनव भारत की स्वप्नाकांक्षाओं को साकार करने का अथक तथा सतत जुझारू युद्धस्तरीय संघर्ष है।

अंग्रेज़ों से भारत को आज़ाद करा ले जाना मात्र आज़ादी पाने का मक़सद नहीं था। परंतु पहला मक़सद यही था। अचरज यह है कि वह आज़ादी भी मुकम्मल नहीं मिली और हमने उस खंडित आज़ादी के लिए जश्न पर जश्न मना डाले। आज उसी नासूर की पीड़ा हमें भोगनी पड़ रही है। लिहाज़ा मुझे बार-बार अपने इतिहास के हाल के पन्ने उलटने पड़ते हैं। यह छोटा सा सवाल नहीं है। यह सवाल हमारी समस्त पीढ़ियों से जुड़ा हुआ है जो पीढ़ियां इतिहास में से झांक रही हैं, जो साथ-साथ सांस ले रही हैं और जिन्हें पीढ़ी बनने की बारी की प्रतीक्षा है।

मैंने ‘भारतीय कांग्रेस का इतिहास’, ‘चुनौती’ आदि ग्रंथों में आज़ादी पाने और समग्र जीवन के उत्थानात्मक दुर्द्धर्ष संघर्ष की मन-आत्मा का मंथन पूरे मनोयोग से किया। सन् 1978 से महात्मा गांधी पर ‘अर्द्ध नग्न फ़क़ीर’ लिख रहा हूं। इस बीच डॉ. अम्बेडकर पर उपन्यास सामने आ चुका है। सुभाष पर उपन्यास सामने आ रहा है परन्तु महात्मा गांधी पर लिखा जा रहा उपन्यास अभी तक पूरा नहीं हो सका है, जबकि पिछले सात वर्षों के सतत लेखन के फलस्वरूप ‘स्वराज्य’ उपन्यास पूरा होने को है। इसका कारण है कि गांधीजी जितने सरल-सहज नज़र आते हैं उतने सहज हैं नहीं। उनका चरित्र बहुत पेचीदा और अनेक बार अपने चरित्र लेखक को बहुत मुश्किल में डाल देने वाला है। यही कारण है कि उन ध्रुवों को पूरा करने का प्रयत्न किया जो गांधी जी के प्रभामंडल के सामने हथियार नहीं डाल सके। गोकि सुभाष, डॉ. अम्बेडकर, जिन्ना आदि के मैंने पहले समझने और मनन करने का समूचे गांधीय-समय के अन्तर्गत प्रयास किया। निःसंदेह सुभाष अपने समय का सर्वाधिक चिंतनशील, विद्रोही और धारदार ऐसा व्यक्तित्व है जिससे आगे आने वाली पीढ़ियों को संतुलित विवेक, गहन अन्तर्दृष्टि और तत्कालीन जीवन-फलक के दुर्द्धर्ष संघर्ष को आत्मसात कर अपने वर्तमान और अनागत के लिए निर्णय लेने का हौसला दिखलाने का मार्ग खुलता है। मुझे बराबर लगता रहा है कि हमारा आधुनिक इतिहास भविष्य का सुदृढ़ संबल नहीं बन सका है और हम बिना अपने-आपको जाने आगे बढ़ते जा रहे हैं। हमें फिर से अपने अतीत के अनागत संबद्ध होना है, यह झुलस उठे वर्तमान के हृदय की मां भी है।

वह सुभाष ही हो सकता था जो गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्थगन पर गहरा दुःख व्यक्त कर सके। उसने यह भी कहा था कि भारत का भविष्य उग्र सैनिकों के हाथ में है, जो आज़ादी पाने के लिए बलिदान तथा कष्ट सहने को तत्पर होंगे।1 बिस्मार्क मानता था कि इतिहास में बहस द्वारा कोई परिवर्तन संभव नहीं हुआ है। हमेशा युद्ध ही बड़ा परिवर्तन लाया है। सुभाष बिस्मार्क के इस विचार के पक्षधर थे जबकि गांधी जी दूसरे विश्व-समर के उठ खड़े होने पर ‘हरिजन’ में लिख रहे थे कि हिटलर कृत्यों से अथवा उन लोगों के कार्यों से जो हिटलर से लड़े या उससे नहीं लड़ सके, उत्साहित होना2 उनके लिए असंभव है, क्योंकि उनका सुदृढ़ इरादा था कि मैं अकेला ही रह जाऊं तो भी युद्ध में भाग नहीं लिया जाएगा, भले ही सरकार सारा नियंत्रण कांग्रेस को ही क्यों न सौंप दे।3 परंतु सुभाष द्वितीय विश्व समर की आंधी में आह्वान दे रहे थे :

हमें अड़तीस करोड़ देशवासी पुकार रहे हैं !
खून को खून पुकार रहा है।
उठो ! अब सोने का समय नहीं है।
हथियार उठाओ।
दिल्ली का रास्ता आज़ादी का रास्ता है,
दिल्ली चलो।
गांधी जी के कड़े विरोध के बावजूद सुभाष कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। गांधी जी के संकेत पर कार्य समिति के पंद्रह सदस्यों ने त्याग पत्र दे डाला। त्रिपुरा अधिवेशन में सुभाष को 1040 से 1050 बुख़ार में विषय समिति की बैठक में स्ट्रेचर पर आना पड़ा। इसकी किसी भी अहिंसक को चिंता नहीं हुई। उलटे उन पर बीमारी के बहाने का आरोप लगाया गया। उस आरोप को हवा दी गई। अहिंसा का ऐसा चरित्र ही बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। इतिहास में ऐसे अनेक नाजुक क्षण आए हैं, जिनको अनदेखा करने से अथवा जिसके महत्त्व को अस्वीकार करने से इतिहास अपनी दीप्ति, आग और तेजस्विता खो बैठा है और मात्र उसकी ठण्डी राख से काम चला लिया गया है। यह अपने इतिहास, विरासत और अस्मिता के प्रति ऐसी भयावह दुरभिसंधि है जो हमारे भविष्य को भी डुबो सकती है।

मैं सुभाष के प्रति आकर्षित होने लगा। इस बीच मुझे अनेक पत्र प्राप्त हुए, जिनमें मुझसे आग्रह किया गया था कि सुभाष को केंद्र बनाकर कुछ लिखूं। सुभाष के शुभचिंतकों ने न केवल अनेक बार पत्र लिखे अपितु उनसे संबंधित सामग्री भी भेजनी शुरू कर दी। अब तो बचने का कोई रास्ता ही नहीं रह गया। मैंने अपनी यात्रा शुरू की माँ दुर्गा के व्रत से, आज से तीन वर्ष पहले।
मुझे लगा कि सुभाष पर लिखना बहुत कठिन कार्य है। वह न केवल भारत भूमि पर आज़ादी के लिए संघर्ष करते रहे अपितु विदेश में जाकर उस आग को निरंतर भारतवासियों के मन में सुलगाते रहे। दरअसल मुझे लगा कि उनका सौम्य व्यक्तित्व
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1. द स्प्रिंगिंग टाइगर; टोये ह्यूग , पृ. सं. 37 व 48
2. ‘हरिजन,’ 13 जुलाई, 1940 पृ. 199
3. ‘हरिजन,’ 15 अक्टूबर, 1938, पृ. 299

अत्यंत जटिल परिस्थितियों से गुज़रता हुआ उस मकाम तक जा पहुँचा, जहां कोई बंधन या सीमा नहीं रहती—न देश की, न जाति की, न रंग की, न वर्ग की और न संप्रदाय की। उसमें विश्व चेतना का ऐसा प्रादुर्भाव हो जाता है, जिससे वह हर देश के हर जाति के, हर वर्ग के, हर वाद व मत मतान्तर के स्वतन्त्रता प्रेमियों का चहेता बनकर संपूर्ण मानव जाति का सहज प्रणेता बन जाता है। वह काल सीमाओं को लांघकर सर्वथा सार्वभौमिक और सनातन बन जाता है।
मुझे माँ दुर्गा ने ‘आशीर्वाद’ दिया और उन्होंने मार्ग प्रशस्त किया। मुझमें स्वप्न संकल्पनाए जागृत की और मेरे मार्ग में आने वाली जटिलताओं और कठिनाइयों को भी दूर करने में मेरी बड़ी मदद की।

इस कारण मुझे निरंतर उन स्थानों और उन व्यक्तियों से मिलना पड़ा जिनका सुभाष से संबंध रहा था। वहां अनेक बार गया। और वहीं बैठकर इसके अनेक भाग लिखे। एक हसरत यह रह गई कि मैं अपने देश से बाहर उन देशों में नहीं जा सका, जहाँ सुभाष ने अथक और निरंतर दुर्द्धर्ष संघर्ष करते हुए एक चिरस्मरणीय इतिहास बनाया था। फिर भी, पत्रों के माध्यम से मैंने उस कमी को पूरा करने की चेष्टा की।

सबसे पहले मुझे प्रातःस्मरणीय चाचाजी श्री ब्रजबिहारी लाल भटनागर ने सुभाष के बारे में अनेक संस्मरण सुनाए। वह सुभाष के साथ रहे थे और वह उन्हें संत पुरुष मानते थे। जी .एस. भटनागर, कुद्रेमुख (कर्नाटक), श्री अग्निवेश पराडकर, पूना (महाराष्ट्र), डॉ. सविता गांगुली, डी. पी. दासगुप्ता, कलकत्ता, आदि ने मुझे सुभाष पर लिखने का न केवल आग्रह किया अपितु तद्विषयक महत्त्वपूर्ण सामग्री भेजने का आश्वासन भी दिया।

लंबे अर्से बाद मेरा सुभाष पर लिखने का मन बना। डॉ. सुबोध डे, श्रीमती ममता कुलकर्णी, डॉ. सुमेर सिंह और प्रोफेसर कनु नायडू ने सुभाष पर लिखने की चर्चा में भाग लिया। कटक के श्री सत्यार्थ चटर्जी ने कटक में सुभाष के जीवन पर प्रकाश डाला। स्व. अम्बिका चक्रवर्ती के पुत्र जो सुभाष के सहपाठी रहे थे, उनके चाचाजी ने मुझे सुभाष के बेखौफ चरित्र के कई प्रसंग सुनाए। डॉ. वी. पी. चक्रवर्ती और प्रो. डॉ. इला चक्रवर्ती ने सुभाष के अजातशत्रु व्यक्तित्व के बारे में सोदाहरण विस्तार से जिक्र किया।
मुझे सुभाष के अनेक अनुयायियों ने प्रकाशित लेख और पुस्तकें भिजवायीं। साथ ही अपने पक्ष दलील सहित पेश। श्री आई.बी. सक्सेना, श्री लोचन सक्सेना, जिन्होंने ‘कला, कलश’ विशेषांक सुभाष पर निकाला, श्री सौरभ कांतिभाई, श्रीमती सावित्री कोचर, श्री प्रभात मुखर्जी आदि ने सुभाष पर अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट किया और सुभाष पर प्रकाशित अंक भी दिए या भिजवाए।

दिनांक 15 अक्तूबर, 96 को मैं सुभाष को पूरा कर सन्तोष का अनुभव कर रहा हूं। इतना परिश्रम और समय इससे पूर्व मैंने अपने किसी ग्रंथ पर नहीं लगाया है। मुझे प्रसन्नता है कि मैंने यह ग्रंथ 17 अक्तूबर, 1963 में नवदुर्गा पर्व पर शुरू किया था और आज नवदुर्गा के दिनों में इसे पूरा कर पाया हूं। यह मां दुर्गा का ही आशीर्वाद है।
26 जनवरी, 1997
31-बी, पंचवटी
उदयपुर 313001

राजेन्द्रमोहन भटनागर

सिंदूरी सूरज फुनगी पर बैठा हुआ सोच रहा था। समूचे आकाश के बारे में वह कल्पना कर रहा था। किसी पराजित हुए कलाकार की तरह उसने तैश में आकर सिंदूरी रंग वाले प्याले और टूटते बालों वाली तूलिका को जमीन पर दे मारा था और फिर कुछ लम्हे गुजर जाने के बाद, जब उसका मस्तिष्क संतुलित हो गया था, तब वह अपनी विकृत संसृष्टि को टुकुर-टुकुर दृष्टि से अवलोक रहा था—एकदम वीतरागी होकर तटस्थ दृष्टि से। उसे अनुभव हो रहा था कि वह खंडित संरचना का सृष्टा नहीं है। और शायद कोई तीसरा व्यक्ति उस विध्वंसी चित्रफलक को आत्मलीन होकर देखे तो उसे संवेदनाओं के बौखला जाने की उपस्थिति का एहसास तंग नहीं करेगा। हो सकता है कि वह खंडित संरचना उसे अखंडित लगे। अन्ततोगत्वा खण्ड का स्वत्व ही तो पूर्णता की ईकाई है।

धीरे-धीरे गीला सिंदूरी रंग शुष्क होकर धूमिल होने लगा। आकाश सद्यः ढल चुके मेले का उपेक्षित साक्ष्य होकर रह गया। कंटीले झाड़-झंखाड़ में फंसे याददाश्त के तार सुलझने की कोशिश करते हुए उलझकर रह गए। पता ही नहीं चला कि कब वह सिंदूरी सूरज फुनगी पर से छलांग लगा बैठा। अब मात्र उस फुनगी की आंख कांप रही थी। आसमान अंधेरे से घिरता जा रहा था। पता नहीं ऐसा कब से होता आ रहा है और कब तक होता रहेगा ? जब सब कुछ अपने आप होना है, तब उसके लिए करने को क्या रह जाता है ? फिर वह सोचता क्यों है ? क्यों लड़ता है और किससे ?
आदि पूर्ण विराम...। आदि...। फिर पूर्ण विराम...। न पीछे कुछ, न आगे। शून्य भी नहीं, शून्येतर भी नहीं। फिर भी...क्यों अनुभूत होता है कि सर्वस्व है और उसी के होने का समस्त सूत्र है।

सुभाष इस तमाम लैंडस्केप को देखता है, उसमें डूब जाने की पूरी कोशिश करता है लेकिन थोड़ी देर बाद अपने को एकांत तट पर खड़ा पाता है—भटके हुए सैलानी-सा। उस सैलानी-सा जो या तो मरु के रेगिस्तान में अकेला खड़ा है, अथवा जो गद्य डूबे जहाज से छिटककर लाइफबोट, में अकेला बैठा हुआ विस्फारित नेत्रों से कुछ नहीं देखता हुआ देख पाने का क़यास कर रहा है। शून्यता से लड़ पाना क्या असम्भव है ? पलटकर देखता है तो पाता है कि वह स्ट्रीट लैंप, जिसे अभी लाइटमैन जलाकर, संतोष पाकर गया था, बुझा पड़ा है। अब उसे सोचने का दरवाज़ा बंद करके तसल्ली से अपने-आपको अदृश्य लहरों के निर्द्वन्द प्रशांत सागर में छोड़ देना चाहिए दिशा-शून्य स्थिति में।

क्या ऐसा कभी सुभाष से सम्भव हो सकेगा ? शायद नहीं। किशोर सुभाष सब कुछ जान लेना चाहते थे। उसके मन में सुबह से शाम तक जिज्ञासाओं का अदृश्य समुद्र निःशब्द होकर उछाल भरता रहता था !

आज सुभाष को रामायण की पंचवटी का स्मरण हो उठा था। अपनी मां प्रभावती को उन्होंने कटक से पत्र लिखा था। दक्षिण में स्वच्छ जल से परिपूर्ण पावन गोदावरी का अमृतमयी संस्पर्श तट की अन्तश्चेतना को गुदगुदाता हुआ अविराम सागर की ओर भागा जा रहा है। राम, लक्ष्मण और सीता अब चित्त में आ विराजते हैं। वे संपूर्ण संपदा और राज के सुख वैभव का उत्सर्ग कर गोदावरी के तट पर अलौकिक आनंद के साथ समय बिता रहे हैं। निसर्ग में आलुप्त उन तीनों का हृदय विमल गोदावरी का मंत्रोच्चारण सुनकर आनन्द में निमग्न है। जगत् के दुःख-दावानल का यहां त्रास, क्रंदन और मलिन अनुचिंतन ?

ओह...! माता ठकुरानी, क्या लिखूं क्या नहीं। प्रायः कुछ भी लिखते वक्त सुभाष अपने में नहीं रहते थे, कहीं और चले जाते थे। लगता है, निरंतर ईश्वर-चिंतन में बने रहना जीवन का लक्ष्य है। अब देखो न, उनके हृदय में पावन जाहनवी बह उठी है। बाल्मीकिजी का पावन तपोवन-महर्षि के कोकिल कंठ से निर्झरित पावन वेद-मंत्रों की सनातनोन्मुखी ध्वनि ! महर्षि लव-कुश को पढ़ा रहे हैं। कैसी अद्भुत लीला है कि मणिधारी कदाल विषधर भी अमर मंत्र ध्वनियों को सुनकर अपना विष त्याग, फन उठाए, मौन हो, अपने-आपमें आलुप्त हो रहा है ! पास में मृग सोया हुआ सा ऐसा लग रहा है मानो वह अपलक दृष्टि से महर्षि की ओर देखे जा रहा हो !

सुभाष छलक पड़े। उनमें त्रिभुवनतारिणी पतित-पावन गंगा की कलकल ध्वनि अनुगूंज उठी ! कैसा विमल और प्रभावकारी दृश्य—उसके तट पर योगी बैठे हुए हैं। कोई प्रातःसंध्या में लीन है, कोई वन से सुमन चुनकर, माटी की प्रतिमा बनाकर चंदन धूप आदि से पूजन कर रहा है तो कोई मंत्रोच्चारण से दिग-दिगंत को अभीभूत कर रहा है।
लेकिन माता ठकुरानी, आज वही भारत है जिसमें न ऋषी हैं, न मंत्रोच्चारण, न यज्ञ न पूजन...! कहां गया वह सब ? क्यों गया ? हे परमपिता...! इस अनुपन देश की ऐसी दुर्दशा, ऐसी दीन-हीन स्थिति और ऐसी कापुरुषता....! यह सोचते हुए हृदय फटने लगता है। कोई उपाय नहीं सूझता है।
हे परम मार्त...! यह क्या हो गया तेरी संतान को...! पाप से, ताप से, अन्न अभाव से, प्रेम शून्यता से, राग-द्वेष से और स्वार्थ में अंधलिप्त हो जाने से धर्मविहीन होकर नरक की अग्नि में रात-दिन जल रही है ! अविश्वास, नास्तिकता और कुसंस्कारों में आज सब अनुरत हैं। क्यों मां ? क्या आज भारत की करोड़ों-करोड़ संतानों में से ऐसा एक निःस्वार्थ भद्र पुरुष नहीं है जो सहज ही अपने जीवन का उत्सर्ग करने के लिए आगे आ सके ? अपनी ममतामयी मां के लिए क्या कोई भी अपना दायित्व निभाने के लिए तैयार नहीं है ?

नहीं मां, नहीं, यह नृशंस अपराध सुभाष से नहीं होगा। वह नहीं जानता कि वह क्या है और क्या कर सकेगा ? कदाचित उसे यह सब जानने की इच्छा भी नहीं।
हे भारत माता...! जगत् जननी ! विश्वास कर सुभाष आ रहा है।...उसे कोई नहीं रोक सकता। वही उसकी साधना है, वही उसका सत्यानुसंधान है, वही उसका शिवम् और सुंदरम है। जो उसका है, उस पर सुभाष का क्या अधिकार...! उसका उसको अर्पण करने में कैसा सोच ? कैसी द्विविधा ?
हे भारत देश ! अब मंत्र फिर गूंजेंगे !....वेद-ऋचाएं फिर गूंजेगी ? मानव-मानव एक होगा। जीवन का अविरल बहने वाला अक्षय अब फिर से चिर आनंद का सृजन करेगा ! सृष्टि महकेगी ! दिव्यताएं चहकेंगी !....निर्झर गाएंगे !....नदियां जीवन-जगत् के एकाकार का स्वप्न पूरा करेंगी !
भक्ति-श्रद्धा से जुड़ा, आकण्ठ डूबा और सदा लवलीन रहने वाला सुभाष मंगलदायिनी—शुभचिंतका और आदि संरक्षका की मां की गोद से उतरकर मेदिनी के प्रांगण में आ खड़ा हुआ।

उसे चिंता नहीं कि अब क्या होगा...कैसे होगा ? न प्रांतर की चिंता है और न अथाह, अछोर और अनंत मार्ग की...।
प्राकाम्य का प्रकाश अब उस अद्भुत परंतु मांगलिक दृश्य का संयोजन करेगा, जिसकी संभावना से मन दूर जा निकला था।
सुभाष के बचपन का आदि भोर महक उठा था उनके किशोर चित्त को सम्मोहित करता हुआ ! उनमें एक अजर-अमर योगी आ विराजमान हुआ था निःस्वन, निःसंग और अन्तर्ध्यान होने की मुद्रा में।
बचपन से किशोर मन की यह दिव्य-यात्रा ही उनके जीवन का मंगलाचरण बन रही थी और उनमें दृश्यों के पीछे रहस्योद्घाटन कर रही थी। उनमें मंत्र जन्म ले रहे थे, ऋचाएं गूंज रही थीं और उपनिषदीय तरंगे मलयानिल-सी बह रही थीं।
सारी धरिणी की प्राण सत्ता और सारे आकाश की जीवन शक्ति चिर संस्थापना के लिए उनमें प्राणदायिनी गंगा-सी मचल उठी थी। हरितमा की चूनरी ओढ़े...!
जो प्रभु का है, उसका ही रहेगा और उसका ही था, उसे उसको अर्पण करते हुए कैसा सोच-विचार, कैसा संशय-वकार और कैसा ताप-त्रिताप !....कुछ भी नहीं। कदापि नहीं। उसी के श्रीचरणों में सर्वस्व सहज उत्सर्ग !...जय माता !...जय भारत माता !..

कलकत्ते में सुभाष के बने रहने के पक्ष में उनका परिवार नहीं था। सुभाष एम. ए. में प्रयोगात्मक मनोविज्ञान लेने के बारे में सोच रहे थे। उनके पिता जानकीनाथ बसु कलकत्ते से आए और उनके सामने सीधा प्रस्ताव रख दिया, ‘‘सुभाष, तुम इंडियन सिविल सर्विसेज की तैयारी करो।’’
सुभाष एकदम सकपका गए। वह ठीक से कुछ सोच-समझ नहीं पाए, अतः निरुत्तर बने रह गए। उनको दुविधा में पाकर जानकीनाथ बसु ने आगे कहा, ‘‘तुम्हें चौबीस घण्टे का समय दिया जाता है—सोचकर जवाब दो।...मैं समझता हूं, यही तुम्हारे हित में रहेगा।’’
‘‘इतनी जल्दी।’’
‘‘प्रश्न जल्दी ओर विलम्ब का नहीं है। विलायत जाकर तैयारी करो और अपनी प्रतिभा का सिक्का कायम करो।’’
सुभाष ने तत्काल अपने निर्णय से अवगत कराकर जानकीनाथ बसु और अपने बड़ों को अचम्भे में डाल दिया। जानकीनाथ बसु सुभाष के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे।

जानकीनाथ बसु के पास जाने का कोई साहस नहीं करता था क्योंकि वह दार्शनिक प्रकृति के थे, कठोर अनुशासनप्रिय और मितभाषी। वकील होते हुए भी उनमें वाणी का अद्भुत संयम था। वह प्रायः निरपेक्ष रहते थे। उनकी पत्नी प्रभावती भी उनके ही ढर्रे में डल चुकी थीं। सुभाष अपनी मां की बात काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे। वह स्वयं भी गंभीर थे। वह कुछ-कुछ घुलमिल सके थे तो दाई शारदा से। प्रायः वह राजा-राजा कहकर उनको दुलारती रहती थी।
सुभाष के मन पर अपनी प्रिय अध्यापिका मिस लारा लॉरेन्स का भी गहरा प्रभाव पड़ा। उसी के कारण वह आंग्ल भाषा में चल निकले थे। एक बार उसने उन्हें समझाते हुए कहा था, ‘‘सुभाष, जो मन में है, उसे बिना सोचे-समझे कभी उल्था मत करना। कहने से पहले, जो कहने जा रहे हो, उसे समझना...। परिस्थिति अपने हाथ में न हो तो प्रतीक्षा करना, अड़ना नहीं परंतु जिसे ठीक समझते हो, उसके प्रति दबना-झुकना भी नहीं।’’
सुभाष के प्रिय शिक्षक बेनीमाधव दास थे। वह नीतिवान, चरित्रवान् और पवित्र आत्मा थे। बेनीमाधव ने ही उनसे कहा था, ‘‘सुभाष, ऐसे क्षणों में जब तुम्हें अपने परिवार से निर्देश मिले और तुम्हारे सामने कोई विकल्प न हो तो उसे स्वीकार कर लेना।...मैं समझता हूं कि तुम्हें ऐसे समय या क्षणों को ईश्वराधीन छोड़ देना चाहिए।’’


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