जीवन कथाएँ >> सरदार सरदारराजेन्द्र मोहन भटनागर
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सरदार पटेल के संघर्षमय जीवन पर आधारित उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सरदार यानी भारत के बिस्मार्क, लौहपुरुष सरदार पटेल का भारत के राष्ट्रीय
आन्दोलन तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश के निर्माण में जो केन्द्रीय
तथा ठोस योगदान रहा, वह तब तक याद किया जाता रहेगा जब तक भारत राष्ट्र एक
बार फिर सुदृढ़, शक्तिशाली तथा शत्रु-शक्तियों से लोहा लेने में समर्थ
नहीं हो जाता। आजादी के बाद बहुत जल्द उनका देहान्त देश को मंझधार में
खड़ा छोड़ गया और पचास वर्ष बाद भी उसमें परिवर्तन होता नजर नहीं आ रहा-जो
आज एक बार फिर उनके जीवन तथा गुणों को याद करने का कारण बन गया है। इस
उद्देश्य से जीवनीपरक उपन्यासों के प्रख्यात लेखक राजेन्द्र मोहन भटनागर
से सरदार पटेल के जीवन पर इस उपन्यास की रचना की है। यह बड़ी कुशलता से उन
महान तेजस्वी और प्रखर व्यक्तित्व के सभी पक्षों को अंकित करता है। आज के
सभी भारतीयों के लिए यह उपन्यास अवश्य पठनीय और प्रेरणा तथा स्फूर्तिदायी
है। उपन्यास की शैली में लिखित यह सम्भवतः सरदार पटेल पर पहला और अकेला
उपन्यास है।
भूमिका
मैं निरन्तर यह सोचता रहता हूँ कि जिस देश की जनता का अहिंसक क्रान्ति का
प्रशिक्षण पाकर उसके प्रयोग से यह सिद्ध कर दिखाया हो कि हिंसा कायरों,
बुज़दिलों और अन्याय-अत्याचार करनेवालों का बर्बर माध्यम है और जो अहिंसा
में अटूट आस्था रखने वाले कर्मवीरों के सामने टिक नहीं सकती; वह देश आज
अहिंसा के मार्ग पर चलने से कतरा रहा है और हिंसक मार्ग की ओर तेजी से बढ़
रहा है पर क्यों ?
और, क्यों हुआ है इस तरफ़ से हमारा सोच हलका ? एक अच्छा समाज हम सबकी आन्तरिक तथा बाहरी जरूरत है। समाज राज्य से बड़ा होता है और शक्तिशाली भी होता है, फिर वह राज्य के सामने बौना क्यों पड़ता जा रहा है ? क्यों हमारा विश्वास अपने पर से उठता जा रहा है ? क्यों हम श्रद्धा, त्याग, मुदिता, स्वाभिमान, करुणा, सहानुभूति, अपरिग्रह और शान्ति का मार्ग छोड़ने के लिए विविश हो रहे हैं ? क्यों स्वत्रन्त्र देश में पराधीनता के अभिशाप से ग्रस्त होते जा रहे हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में वर्तमान क्यों मौन होता जा रहा है और भविष्य क्यों लापरवाह, यह मेरी चिन्ता है।
जब दिशाएँ आग की लपटों से घिर कर झुलस और जल रही हों तब कलम का सिपाही सिर उठाने के लिए विविश हो जाता है और साहित्य को हथियार बना लेता है लड़ने लगता है हमारा इतिहास इसका गवाह है। जब कभी वर्तमान ने अपने से आँखें चुराने का रास्ता अपनाना शुरू किया, अतीत की ठण्डी पड़ती आग को कुदेरना आरंभ किया गया और वही उसके वर्तमान भविष्य बनता नज़र आया।
वह अतीत जो सत्य के लिए संघर्ष करता हुआ अपने समय पर इबारत लिखने में सफल हुआ है, शाश्वत हो जाता है और त्रिकालद्रष्टा बनता है। बेलगाम होते वर्तमान के लिए मुझे ऐसे अतीत की तलाश में अधिक पीछे नहीं जाना पड़ा, कल के बीते उस अतीत पर दृष्टि जा टकराई जो आज की सम्पूर्ण दृष्टि बन सकता है। उस अतीत के चश्मदीद गवाह चाहे अब लुप्त होते जा रहे हैं, अभी भी कुछ शेष है। समझ में यह नहीं आता कि हम अपने सामने बीते उस स्वर्ण अतीत को कैसे इतनी जल्दी दफ़नाकर और हाथ झाड़कर उससे अपने सम्बन्ध तोड़ बैठे, जिसे आज भी सारा संसार नमन करता है ?
इस दृष्टि से मैं सरदार वल्लभभाई पटेल को कुरेद बैठा। सरदार मुझे आज के लिए अन्तर्दष्टि बनते नज़र आए। मैं फिर से उन्हें अपनी प्रयोगशाला में लाकर परीक्षण करने लगा। अचरज के साथ उत्सुकता बढ़ी, मन उद्वेलित हो उठा और विश्वास ने मन थाम लिया।
गाँधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकारी हुए पं, नेहरू और आध्यात्मिक उत्ताधिकारी हुए विनोबा भावे और सरदार पटेल......। सरदार की उपाधि गाँधीजी ने वल्लभभाई पटेल को दी थी- ठीक वैसे जैसे नेताजी सुषाष चन्द्र बोस ने गाँधीजी को महात्मा से अलंकृत किया था। जैसे-जैसे मैं उसमें डूबने लगा, उसके कर्म क्षेत्र का दौर करने लगा और उनके समय के महान् पुरुषों से मिला, मुझे अनुभव हुआ कि वे वर्तमान की दृष्टि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त चरित्र हैं, जिनका महिमामंडित चरित्र दस्तावेज़ों के बाहर आज भी स्पंदित और सक्रिय है।
मैं यह कहकर आपको अपनी तरह स्वतन्त्र रखना चाहूँगा कि मेरा लिया गया निर्णय हो सकता है कि आपकी कसौटी पर उतना खरा न बैठे जितना मैं मान बैठा हूं। फिर भी शायद इस बात को आप भी स्वीकार कर सकेंगे कि उनसे संवाद किया जाना चाहिए। कई वर्षों से मैं यही काम कर रहा था। उन पर बनी फ़िल्म (वृत चित्र) भी देखी-लगा, जल्दी की तैयारी थी और संवाद शुरू करने जैसा उसके पीछे कोई इरादा नहीं था। वह साधारण घटना से आगे नहीं जा सकी।
वह कालखण्ड विशिष्ट था, तेजी से अनुभवों से गुजर जाने का था- विश्व युद्ध से लेकर अपने-अपने देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई का था, विभिन्न संगठनों के अस्तित्व में आ जाने से पेचीदा भी था और महापुरुषों से घिरा था। वह संक्रमण काल से भी अधिक संवेदनशील, धैर्य तथा सहनशक्ति, हिंसा तथा अहिंसा, सत्य तथा असत्य की पराकाष्ठा का था। सब कुछ बदल रहा था और वह भी बहुत तेजी से, विध्वंस और सृजन के साथ। निस्संदेह किन्हीं दृष्टियों से वह समय आज से भी उग्र था, निर्णायक था, ज्वालामुखी पर नंगे पाँव चल रहा था, अंधियों से गुजरते हुए कभी संयम तोड़ रहा था, कभी संयम बना रहा था। ऐसे में सरदार फूँक-फूँक के पाँव रखते हुए एक सर्वमान्य और वृहत दृष्टि की खोज में सबके साथ, सबसे अलग चलते चले जा रहे थे इत्मीनान से चरखे पर सूत कातते हुए और प्रार्थनाओं के पाथेय को साथ लिए।
उस सबसे गुजरते हुए उत्तेजना, उत्सुकता, आशंका थ्रिल, दुःस्वप्न आदि से उसी तरह गुजरना पड़ा, जिस तरह बारडोली के सत्याग्रहियों को अपनी लड़ाई को जारी रखते हुए गुजरना पड़ा था। उसके पीछे सत्य का आग्रह था और संयम की ढाल। वह अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध ऐसी-समझी लड़ाई थी जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया था। सन 1921 असहयोग आन्दोलन सामने आ खड़ा हुआ। अन्तर मात्र उतना था कि इसका नेतृत्व गाँधी कर रहे थे। और उसका सरदार ने किया था। सरदार सफल हुए थे जबकि गाँधी ने सफल होते हुए आन्दोलन को चौरीचौरा हिंसा काण्ड के कारण वापस ले लिया था। बारडोरी सत्याग्रह उस असहयोग आन्दोलन के साकेत वर्ष के बाद सामने आया था। लगा, गाँधी संयम और विनय के आदमी हैं और पटेल कुशल प्रशासन और रुआब के।
मुझमें प्रेरणा धूप सी खिलती गई। मैं सरदार के प्रमुख कर्म क्षेत्रों की यात्रा करने लगा। सामाजिकों से संवाद बनाने लगा। नई पीढ़ी अपने पास के, हाल के इतिहास से अनभिज्ञ होती मिली। क्या गौरवान्वित इतिहास इतना जल्द भुलाया जा सकता है कि उसे अपने पड़दादा का नाम भी मालूम न हो ? उन्हें जरूरत कहाँ पड़ती है ? आज वह अलाव कहाँ है ? वह होता तो जाड़ा फूलों की सेज बन जाता। एक कह देता है, ‘‘आज़ादी पाना उनका स्वप्न था। जल्दी में आधी-अधूरी जैसी आजादी मिली, झोली में डाल ली। इसकी चिन्ता नहीं की उनके बाद की पीढ़ियों के लिए वह कितनी सार्थक होगी या कितनी ऊहापोहात्मक ? नई पीढ़ी का सोच इस प्रकार था-‘‘सत्ता का स्थानान्तरण आजादी की ज़मीन नहीं सींच सकता।’’ कृष्णा पटेल का महीन परन्तु ओजस्वी स्वर था।
‘‘वे थके-हारे लोगों का सन्तोष था जो अपने समय के अन्याय को अनदेखा करने के लिए विवश हुआ।’’ दीपक साराभाई की तनिक आक्रोशित टिप्पणी थी।
‘‘हमें गुलाम रहना पसन्द था पर ऐसी आज़ादी नहीं चाहिए थी जो एक देश को ही बाँट गई।’’ मणिलाल के दमखम भरे तेवरों की जंग खाई कुठां थी वर्जना संकुल।
‘‘डाक्टर साहब, क्या लार्ड रीडिंग ने गलत कहा था ?’’
‘‘क्या, कृष्णा पटेल ?’’
‘‘कि गाँधी का उद्देश्य भारत के राजनीति मंच से भ्रष्टाचार, ढोंग, आतंकवाद और अंग्रेजों की दुस्सह्य सर्वोच्चता को उखाड़ फेंकना था।’’ 1
‘‘मात्र वही नहीं कृष्णा। गाँधीजी ने कहा था कि वे अंग्रेजों के जुए से भारत को मुक्त कराने में रुचि नहीं रखते। वे तो चाहते हैं कि भारत किसी कन्धों पर किसी प्रकार का जुआ न कर रहे।’’2
‘‘पर ऐसा हुआ नहीं।....उनके बीच प्रो. कमल अग्निहोत्री का हस्तक्षेप हुआ। वह इतिहास और राजनीति शास्त्र से डबल, एम.ए. था और भारत के विभाजन पर शोध कर भी रहा था।’’ खखार कर उसने गला साफ किया और आगे कहा, ‘‘विकलांग आज़ादी पर सबसे पहले सरदार पटेल ने अपना मानस बनाया था। तत्कालीन वायसराय एडमिरल वायंकाउंट पर माउंटबेटन के चक्कर में वे आ गए। फिर उन्होंने नेहरू को अपने पक्ष में किया। लेडी माउंटबेटन पर नेहरू सम्मोहित थे। एक खूबसूरत विधुर की क्या कमजोरी हो सकती है और वह भी तब जब वह शहजादा का दिल रखता हो, यह बात लेडी माउंटबेटन कभी नहीं भूली। कांग्रेस की मशीनरी को नियंत्रण में रखने वाला सरदार पटेल ही उसकी सफ़ाई करता था और कांग्रेस की माली हालत को बेहतर बनाए रखने में करोड़पतियों से अच्छी रक़म भी वही हासिल करता था। वह एक कुशल प्रशासक था।’’
‘‘हमें ठहरना चाहिए मि. अग्निहोत्री।’’ कृष्णा पटेल ने बीच में टोक दिया, ‘‘किसी एक या दो व्यक्ति को विकलांग आज़ादी के लिए दोषी करार कर देना शायद न्यायोचित नहीं है। हमें जिन्ना की तरह धीरज नहीं खोना चाहिए और न डा. अम्बेडकर की तरह शक्की होना चाहिए।’’
‘‘गिमलेट और हिज नित्स एक दूसरे को नापसन्द करते थे।’’ मैं कह रहा था कि मीणा पाटनी ने टोक दिया, ‘‘ये गिमलेट और हिज नित्स कौन थे।’’
‘‘‘गिमलेट यानी जिया और हिज नित्स गाँधी जी। वायसराय माउंटबेटन की प्रातः कालीन नाश्ते की मेज पर दिन भर के ख़ास मुद्दों पर चर्चा करने के लिए उनके ख़ास वफादार कमांडर जार्ज, (लेफ्टिनेंट कर्नल वर्नोन अर्सकाइन, एलेन कैम्बेल जानसन, जार्ज एबेल) आदि प्रतिदिन इकट्ठे होते थे। इनमें अच्छा तालमेल था और सभी पुराने परिचित थे। इन्हें डिकी बर्ड्स यानी एक थाली के चट्टे-बट्टे भी कहा जाता था। ये लोग भारत की आज़ादी की समस्या पर मजाकिया मुद्रा में बातचीत करते और ‘दं बाड्स’ यानी भारतीयों पर फब्तियाँ कसते। उनके लिए भारत की आजादी की लड़ाई टेबुल टेनिस की गेंद की तरह इधर से उधर नाचती होती। माउंटबेटन जजमेंट सीट पर आसीन होकर मन ही मन मुस्कराता रहता।’’ मैंने उस समय की एक तस्वीर उनके सामने रखी ताकि वे जान सकें कि आजादी की लड़ाई के पीछे कौन कितना गम्भीर था।
‘‘क्या अच्छा होता कि सन्’ 47 में हमे आज़ादी नहीं होती ?’’ वीणा पाटनी का स्वर कुछ-कुछ नरम था।
मुझे नेताजी सुभाष और विद्वान भाई पटेल का वह संयुक्त वक्तव्य याद आता है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि ‘‘राजनीतिक नेता के रूप में गाँधीजी को अपनी पराजय स्वीकार कर लेनी चाहिए।’’ दीपक साराभाई कह रहे थे, ‘‘नेताजी सुभाष ने विस्मार्क के
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1. ‘गाँधी ए स्टडी रिवोल्यूशन’-एश जाफरी पृ. 127
2. ‘आटोबायोग्रॉफी एम.के.गाँधी पृ. 4
कथन पर सहमति जताते हुए माना कि इतिहास की बहस द्वारा कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। उसका एकमात्र विकल्प युद्ध है।....जो युद्ध पहले होना चाहिए था, वह बाद में हुआ और वह भी आपस में विकलांग आजाद़ी का ज़माना मनाने के साथ।....वह युद्घ आज तक चल रहा है और शायद कभी ख़तम होने वाला भी नहीं है।’’
‘‘हो सकता है वह समाप्त हो यदि हम फिर से एक हो जाएं।....मुसलमान भी तो भारत माँ की उसी तरह सन्तान हैं जिस तरह हिन्दू।’’ कृष्णा पटेल कह गई।
प्रो. कमल अग्निहोत्री ने धीरे से कहना शुरू किया, ‘‘ये सब इस विकलांग आजादी के लिए उत्तरदायी हैं- नेहरु, पटेल, जिन्ना, आजाद आदि सभी अति महत्त्वकांक्षी थे और परस्पर एक-दूसरे की टांग खिंचाई करने में नहीं थकते थे। गाँधी एक हारे हुए जुआरी की भूमिका में अन्त में नज़र आए। मुझे लगता है कि इन्हीं कारणों से आज की पूरी पीढ़ी उनसे दूर होती जा रही और शायद इसलिए भी कि उस समय के साथ पूरा-पूरा न्याय नहीं किया जा सका। हालाँकि मुसोलिनी की इस बात का न मैं समर्थन कर पा रहा हूँ और न असमर्थन की शांतिवादी सिद्धान्त से नैतिक निर्बलता का जन्म होता है, फिर भी उसका यह कथन स्यायुओं की उत्तेजना कहकर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। हमारा ध्यान उन वक्तव्यों और आलोचनाओं पर भी जाना चाहिए जो उस समय विदेशों में रह रहे भारतीयों ने किए थे। उनको इतिहास में जगह नहीं दी जाती है, इस कारण नई पीढ़ी के मन में शंका जन्मती है।’’
जब प्रो. कमल अग्निहोत्री की ओर सबका ध्यान अटक कर रह गया तब मुझे कहना पड़ा, ‘‘मित्रों, सत्य तपाने से निखरता है। मैं एक उदाहरण देने की छूट लेना चाहूँगा। यह बात 1935 के अन्त की है। जिनिवा के एक समाजवादी पत्र ‘दुआ दे पेटल’ में सोमेन्द्रनाथ टैगोर की गाँधीजी पर प्रकाशित पुस्तक की विस्तृत समीक्षा छपी थी। गाँधीजी पर आरोप लगाया था कि वे पूँजीपतियों के हाथों बिक गए हैं और भारतीय जनता के प्रति विश्वासघाती हैं। यह आरोप एक भारतीय ने उन पर लगाया था अतः यूरोप में एक गलत सन्देश जाता है। इस पीड़ा को लेकर मदलेन रोलां ने विला लिओनेत, विलनेव (वो), से नेहरू को तत्काल एक पत्र लिखकर उनसे हस्तक्षेप का अनुरोध यह किया था कि दुराग्रहियों से उस मनुष्य की नेकनामी को बदनामी से बचाया जाए, जिसने की भारत में अपनी आन्तरिक ऊर्जा के प्रति चेतना को जन्म दिया है और जिसने अपनी आस्था की आधारशिला पर अपना सारा जीवन देश की सेवा में लगा दिया है और जिसने एक देवदूत के हृदय से दलित वर्ग के पक्ष का समर्थन किया है। ऐसा आज भी हो रहा है और उत्तेजना, तनाव, असंयम, आक्रोश और अहम से घिरे लोग उस सच्चाई से नई पीढ़ी का ध्यान हटाने के लिए उसी तरह कर रहे हैं जैसा कभी चीन को अफीम की लतडुबोए रखने के लिए हुआ था।....शंकाएं तब जन्मती हैं जब समाज के लिए सोच का काम कतिपय ट्रेडमार्क व्यक्तियों तक सीमित रह जाता है शेष समाज अध्ययन से दूर होता जा रहा है और पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं पर बिना उस पुस्तक को पढ़े एवं सत्य को जांचे विश्वास करने का ढिंढोरा पीटने लगता है। प्रमाद की यह मानसिकता किसी नशे के जहरीले प्रभाव से ज्यादा खतरनाक और आत्मघाती हो सकता है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए।’’
मुझे इन संवादों ने यह सोचने के लिए विवश किया कि कुछ न कुछ करना चहिए। मैंने किया भी जैसे दिल्ली चलो’, ‘स्वराज्य’ ‘अंतिम सत्याग्रही’ आदि उपन्यासों के माध्यम से सामने आया। मेरे पास अनेक पाठकों के पत्र भी आए। उनमें मुझे लगा कि पाठक की चेतना जागरुक है और उनकी जिज्ञासा वृत्ति सक्रिय है। यह जानता हूँ कि यह संवाद कभी ख़तम नहीं होगा क्योंकि यह संवाद शाश्वत है और हर पीढ़ी के लिए हवा-पानी की तरह आवश्यक भी है। सरदार पटेल इसी क्रम में मेरा प्रयास है समर्थन जुटाने के लिए नहीं बल्कि इस संवाद की जाँच को कभी नहीं बुझने देने के संकल्प के लिए। आँच सुलगी रहेगी तो जिन्दगी आत्म साक्षात्कार से आँख नहीं चुराएगी। जब पोरबन्दर के गर्ल्स कालिज की लड़कियों में से एक ने यह प्रश्न किया कि नेताजी सुभाष ने गाँधीजी को कभी वृद्ध और बेकार का कबाड़ा क्यों कहा था ?
‘‘क्योंकि गाँधीजी ने सफल होता सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लिया था और सुभाष तब वियना में अपना इलाज करवा रहे थे। लेकिन उन्हीं सुभाष ने गाँधी जी को महात्मा भी कहा था। यह प्रश्न विराम का नहीं है, विराम से आगे बढ़ने का है और हर पीढ़ी को नए सिरे से सोचने, बहस करने और किसी निर्णय के निकट पहुँच कर कुछ पहले से अधिक सार्थक करने का है।.... आम लोग आत्म-साक्षात्कार करते रहें तो, अपने पर नियंत्रण रख पाएँगे और किसी बहाव में सूखे पत्ते की तरह बहने से बच जाएंगे।’’ तब बात खतम। आश्चर्य की पाँच साल बाद पत्र मिला। वह लड़की विदेश में ‘जाब’ कर रही है लिखा था कि सच तक पहुँचने की लम्बी यात्रा की कठिनाइयों से जो अनुभूत होता है, वह सच अपना होता है और वह आपकी आत्म-साक्षात्कार वाली बात की तह में जाने के बाद ही सम्भव हो सका। पत्र लम्बा था लेकिन उसमें मुख्य बात यही थी।
मेरे पाठकों ने मुझे सदा सचेत और युवा बनाए रखा है और वह रह-रहकर मेरा ध्यान आल्ड्स हक्सले के इस कथन की ओर ले जाते हैं कि ‘‘अनेक मोर्चों पर जय प्राप्त कर ली गई, परन्तु मनुष्य की ओर उसकी स्वतन्त्रताओं की लगातार पराजय हुई है।’’
लेकिन अब यह सिलसिला मद्धिम पड़ना चाहिए और मनुष्य की और उसकी स्वतंत्रताओं की जीत होनी चाहिए। यह खुली चुनौती मेरे और आपके लिए है, जिससे बच निकलने का अर्थ है अपने वजूद को नकारना। खैर अब अन्त में अपने उन मित्रों का शुक्रिया अदा कर दूँ, जिनकी वजह से मै इस मकाम तक पहुँच सका डॉ. कनुभाई पटेल, धीरज भाई म. मशरूवाला, प्रो, बलवंत राय वोरा. डॉ. नरहरि कृष्णा, प्रो. पूजा गाँधी, डॉ, शलभ मजूमदार, डॉ. के.एम. अंसारी, दीनदयाल दसोत्तर, गोकुल प्रसाद शर्मा, गिरिजा शंकर त्रिवेदी, कैलाश नारायण भटनागर, श्रीमती शशिकला, प्रो. प्रमोद तेन्दुलकर, डॉ. वंदना भाटिया आदि। आशा करता हूँ कि मेरे प्रिया पाठकों के लिए यह प्रयास उनमें संवाद की आँच को सहेजने में अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सकेगा। अस्तु;
और, क्यों हुआ है इस तरफ़ से हमारा सोच हलका ? एक अच्छा समाज हम सबकी आन्तरिक तथा बाहरी जरूरत है। समाज राज्य से बड़ा होता है और शक्तिशाली भी होता है, फिर वह राज्य के सामने बौना क्यों पड़ता जा रहा है ? क्यों हमारा विश्वास अपने पर से उठता जा रहा है ? क्यों हम श्रद्धा, त्याग, मुदिता, स्वाभिमान, करुणा, सहानुभूति, अपरिग्रह और शान्ति का मार्ग छोड़ने के लिए विविश हो रहे हैं ? क्यों स्वत्रन्त्र देश में पराधीनता के अभिशाप से ग्रस्त होते जा रहे हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में वर्तमान क्यों मौन होता जा रहा है और भविष्य क्यों लापरवाह, यह मेरी चिन्ता है।
जब दिशाएँ आग की लपटों से घिर कर झुलस और जल रही हों तब कलम का सिपाही सिर उठाने के लिए विविश हो जाता है और साहित्य को हथियार बना लेता है लड़ने लगता है हमारा इतिहास इसका गवाह है। जब कभी वर्तमान ने अपने से आँखें चुराने का रास्ता अपनाना शुरू किया, अतीत की ठण्डी पड़ती आग को कुदेरना आरंभ किया गया और वही उसके वर्तमान भविष्य बनता नज़र आया।
वह अतीत जो सत्य के लिए संघर्ष करता हुआ अपने समय पर इबारत लिखने में सफल हुआ है, शाश्वत हो जाता है और त्रिकालद्रष्टा बनता है। बेलगाम होते वर्तमान के लिए मुझे ऐसे अतीत की तलाश में अधिक पीछे नहीं जाना पड़ा, कल के बीते उस अतीत पर दृष्टि जा टकराई जो आज की सम्पूर्ण दृष्टि बन सकता है। उस अतीत के चश्मदीद गवाह चाहे अब लुप्त होते जा रहे हैं, अभी भी कुछ शेष है। समझ में यह नहीं आता कि हम अपने सामने बीते उस स्वर्ण अतीत को कैसे इतनी जल्दी दफ़नाकर और हाथ झाड़कर उससे अपने सम्बन्ध तोड़ बैठे, जिसे आज भी सारा संसार नमन करता है ?
इस दृष्टि से मैं सरदार वल्लभभाई पटेल को कुरेद बैठा। सरदार मुझे आज के लिए अन्तर्दष्टि बनते नज़र आए। मैं फिर से उन्हें अपनी प्रयोगशाला में लाकर परीक्षण करने लगा। अचरज के साथ उत्सुकता बढ़ी, मन उद्वेलित हो उठा और विश्वास ने मन थाम लिया।
गाँधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकारी हुए पं, नेहरू और आध्यात्मिक उत्ताधिकारी हुए विनोबा भावे और सरदार पटेल......। सरदार की उपाधि गाँधीजी ने वल्लभभाई पटेल को दी थी- ठीक वैसे जैसे नेताजी सुषाष चन्द्र बोस ने गाँधीजी को महात्मा से अलंकृत किया था। जैसे-जैसे मैं उसमें डूबने लगा, उसके कर्म क्षेत्र का दौर करने लगा और उनके समय के महान् पुरुषों से मिला, मुझे अनुभव हुआ कि वे वर्तमान की दृष्टि के लिए सर्वाधिक उपयुक्त चरित्र हैं, जिनका महिमामंडित चरित्र दस्तावेज़ों के बाहर आज भी स्पंदित और सक्रिय है।
मैं यह कहकर आपको अपनी तरह स्वतन्त्र रखना चाहूँगा कि मेरा लिया गया निर्णय हो सकता है कि आपकी कसौटी पर उतना खरा न बैठे जितना मैं मान बैठा हूं। फिर भी शायद इस बात को आप भी स्वीकार कर सकेंगे कि उनसे संवाद किया जाना चाहिए। कई वर्षों से मैं यही काम कर रहा था। उन पर बनी फ़िल्म (वृत चित्र) भी देखी-लगा, जल्दी की तैयारी थी और संवाद शुरू करने जैसा उसके पीछे कोई इरादा नहीं था। वह साधारण घटना से आगे नहीं जा सकी।
वह कालखण्ड विशिष्ट था, तेजी से अनुभवों से गुजर जाने का था- विश्व युद्ध से लेकर अपने-अपने देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई का था, विभिन्न संगठनों के अस्तित्व में आ जाने से पेचीदा भी था और महापुरुषों से घिरा था। वह संक्रमण काल से भी अधिक संवेदनशील, धैर्य तथा सहनशक्ति, हिंसा तथा अहिंसा, सत्य तथा असत्य की पराकाष्ठा का था। सब कुछ बदल रहा था और वह भी बहुत तेजी से, विध्वंस और सृजन के साथ। निस्संदेह किन्हीं दृष्टियों से वह समय आज से भी उग्र था, निर्णायक था, ज्वालामुखी पर नंगे पाँव चल रहा था, अंधियों से गुजरते हुए कभी संयम तोड़ रहा था, कभी संयम बना रहा था। ऐसे में सरदार फूँक-फूँक के पाँव रखते हुए एक सर्वमान्य और वृहत दृष्टि की खोज में सबके साथ, सबसे अलग चलते चले जा रहे थे इत्मीनान से चरखे पर सूत कातते हुए और प्रार्थनाओं के पाथेय को साथ लिए।
उस सबसे गुजरते हुए उत्तेजना, उत्सुकता, आशंका थ्रिल, दुःस्वप्न आदि से उसी तरह गुजरना पड़ा, जिस तरह बारडोली के सत्याग्रहियों को अपनी लड़ाई को जारी रखते हुए गुजरना पड़ा था। उसके पीछे सत्य का आग्रह था और संयम की ढाल। वह अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध ऐसी-समझी लड़ाई थी जिसमें उन्होंने अपना सर्वस्व दाँव पर लगा दिया था। सन 1921 असहयोग आन्दोलन सामने आ खड़ा हुआ। अन्तर मात्र उतना था कि इसका नेतृत्व गाँधी कर रहे थे। और उसका सरदार ने किया था। सरदार सफल हुए थे जबकि गाँधी ने सफल होते हुए आन्दोलन को चौरीचौरा हिंसा काण्ड के कारण वापस ले लिया था। बारडोरी सत्याग्रह उस असहयोग आन्दोलन के साकेत वर्ष के बाद सामने आया था। लगा, गाँधी संयम और विनय के आदमी हैं और पटेल कुशल प्रशासन और रुआब के।
मुझमें प्रेरणा धूप सी खिलती गई। मैं सरदार के प्रमुख कर्म क्षेत्रों की यात्रा करने लगा। सामाजिकों से संवाद बनाने लगा। नई पीढ़ी अपने पास के, हाल के इतिहास से अनभिज्ञ होती मिली। क्या गौरवान्वित इतिहास इतना जल्द भुलाया जा सकता है कि उसे अपने पड़दादा का नाम भी मालूम न हो ? उन्हें जरूरत कहाँ पड़ती है ? आज वह अलाव कहाँ है ? वह होता तो जाड़ा फूलों की सेज बन जाता। एक कह देता है, ‘‘आज़ादी पाना उनका स्वप्न था। जल्दी में आधी-अधूरी जैसी आजादी मिली, झोली में डाल ली। इसकी चिन्ता नहीं की उनके बाद की पीढ़ियों के लिए वह कितनी सार्थक होगी या कितनी ऊहापोहात्मक ? नई पीढ़ी का सोच इस प्रकार था-‘‘सत्ता का स्थानान्तरण आजादी की ज़मीन नहीं सींच सकता।’’ कृष्णा पटेल का महीन परन्तु ओजस्वी स्वर था।
‘‘वे थके-हारे लोगों का सन्तोष था जो अपने समय के अन्याय को अनदेखा करने के लिए विवश हुआ।’’ दीपक साराभाई की तनिक आक्रोशित टिप्पणी थी।
‘‘हमें गुलाम रहना पसन्द था पर ऐसी आज़ादी नहीं चाहिए थी जो एक देश को ही बाँट गई।’’ मणिलाल के दमखम भरे तेवरों की जंग खाई कुठां थी वर्जना संकुल।
‘‘डाक्टर साहब, क्या लार्ड रीडिंग ने गलत कहा था ?’’
‘‘क्या, कृष्णा पटेल ?’’
‘‘कि गाँधी का उद्देश्य भारत के राजनीति मंच से भ्रष्टाचार, ढोंग, आतंकवाद और अंग्रेजों की दुस्सह्य सर्वोच्चता को उखाड़ फेंकना था।’’ 1
‘‘मात्र वही नहीं कृष्णा। गाँधीजी ने कहा था कि वे अंग्रेजों के जुए से भारत को मुक्त कराने में रुचि नहीं रखते। वे तो चाहते हैं कि भारत किसी कन्धों पर किसी प्रकार का जुआ न कर रहे।’’2
‘‘पर ऐसा हुआ नहीं।....उनके बीच प्रो. कमल अग्निहोत्री का हस्तक्षेप हुआ। वह इतिहास और राजनीति शास्त्र से डबल, एम.ए. था और भारत के विभाजन पर शोध कर भी रहा था।’’ खखार कर उसने गला साफ किया और आगे कहा, ‘‘विकलांग आज़ादी पर सबसे पहले सरदार पटेल ने अपना मानस बनाया था। तत्कालीन वायसराय एडमिरल वायंकाउंट पर माउंटबेटन के चक्कर में वे आ गए। फिर उन्होंने नेहरू को अपने पक्ष में किया। लेडी माउंटबेटन पर नेहरू सम्मोहित थे। एक खूबसूरत विधुर की क्या कमजोरी हो सकती है और वह भी तब जब वह शहजादा का दिल रखता हो, यह बात लेडी माउंटबेटन कभी नहीं भूली। कांग्रेस की मशीनरी को नियंत्रण में रखने वाला सरदार पटेल ही उसकी सफ़ाई करता था और कांग्रेस की माली हालत को बेहतर बनाए रखने में करोड़पतियों से अच्छी रक़म भी वही हासिल करता था। वह एक कुशल प्रशासक था।’’
‘‘हमें ठहरना चाहिए मि. अग्निहोत्री।’’ कृष्णा पटेल ने बीच में टोक दिया, ‘‘किसी एक या दो व्यक्ति को विकलांग आज़ादी के लिए दोषी करार कर देना शायद न्यायोचित नहीं है। हमें जिन्ना की तरह धीरज नहीं खोना चाहिए और न डा. अम्बेडकर की तरह शक्की होना चाहिए।’’
‘‘गिमलेट और हिज नित्स एक दूसरे को नापसन्द करते थे।’’ मैं कह रहा था कि मीणा पाटनी ने टोक दिया, ‘‘ये गिमलेट और हिज नित्स कौन थे।’’
‘‘‘गिमलेट यानी जिया और हिज नित्स गाँधी जी। वायसराय माउंटबेटन की प्रातः कालीन नाश्ते की मेज पर दिन भर के ख़ास मुद्दों पर चर्चा करने के लिए उनके ख़ास वफादार कमांडर जार्ज, (लेफ्टिनेंट कर्नल वर्नोन अर्सकाइन, एलेन कैम्बेल जानसन, जार्ज एबेल) आदि प्रतिदिन इकट्ठे होते थे। इनमें अच्छा तालमेल था और सभी पुराने परिचित थे। इन्हें डिकी बर्ड्स यानी एक थाली के चट्टे-बट्टे भी कहा जाता था। ये लोग भारत की आज़ादी की समस्या पर मजाकिया मुद्रा में बातचीत करते और ‘दं बाड्स’ यानी भारतीयों पर फब्तियाँ कसते। उनके लिए भारत की आजादी की लड़ाई टेबुल टेनिस की गेंद की तरह इधर से उधर नाचती होती। माउंटबेटन जजमेंट सीट पर आसीन होकर मन ही मन मुस्कराता रहता।’’ मैंने उस समय की एक तस्वीर उनके सामने रखी ताकि वे जान सकें कि आजादी की लड़ाई के पीछे कौन कितना गम्भीर था।
‘‘क्या अच्छा होता कि सन्’ 47 में हमे आज़ादी नहीं होती ?’’ वीणा पाटनी का स्वर कुछ-कुछ नरम था।
मुझे नेताजी सुभाष और विद्वान भाई पटेल का वह संयुक्त वक्तव्य याद आता है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि ‘‘राजनीतिक नेता के रूप में गाँधीजी को अपनी पराजय स्वीकार कर लेनी चाहिए।’’ दीपक साराभाई कह रहे थे, ‘‘नेताजी सुभाष ने विस्मार्क के
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1. ‘गाँधी ए स्टडी रिवोल्यूशन’-एश जाफरी पृ. 127
2. ‘आटोबायोग्रॉफी एम.के.गाँधी पृ. 4
कथन पर सहमति जताते हुए माना कि इतिहास की बहस द्वारा कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ है। उसका एकमात्र विकल्प युद्ध है।....जो युद्ध पहले होना चाहिए था, वह बाद में हुआ और वह भी आपस में विकलांग आजाद़ी का ज़माना मनाने के साथ।....वह युद्घ आज तक चल रहा है और शायद कभी ख़तम होने वाला भी नहीं है।’’
‘‘हो सकता है वह समाप्त हो यदि हम फिर से एक हो जाएं।....मुसलमान भी तो भारत माँ की उसी तरह सन्तान हैं जिस तरह हिन्दू।’’ कृष्णा पटेल कह गई।
प्रो. कमल अग्निहोत्री ने धीरे से कहना शुरू किया, ‘‘ये सब इस विकलांग आजादी के लिए उत्तरदायी हैं- नेहरु, पटेल, जिन्ना, आजाद आदि सभी अति महत्त्वकांक्षी थे और परस्पर एक-दूसरे की टांग खिंचाई करने में नहीं थकते थे। गाँधी एक हारे हुए जुआरी की भूमिका में अन्त में नज़र आए। मुझे लगता है कि इन्हीं कारणों से आज की पूरी पीढ़ी उनसे दूर होती जा रही और शायद इसलिए भी कि उस समय के साथ पूरा-पूरा न्याय नहीं किया जा सका। हालाँकि मुसोलिनी की इस बात का न मैं समर्थन कर पा रहा हूँ और न असमर्थन की शांतिवादी सिद्धान्त से नैतिक निर्बलता का जन्म होता है, फिर भी उसका यह कथन स्यायुओं की उत्तेजना कहकर नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। हमारा ध्यान उन वक्तव्यों और आलोचनाओं पर भी जाना चाहिए जो उस समय विदेशों में रह रहे भारतीयों ने किए थे। उनको इतिहास में जगह नहीं दी जाती है, इस कारण नई पीढ़ी के मन में शंका जन्मती है।’’
जब प्रो. कमल अग्निहोत्री की ओर सबका ध्यान अटक कर रह गया तब मुझे कहना पड़ा, ‘‘मित्रों, सत्य तपाने से निखरता है। मैं एक उदाहरण देने की छूट लेना चाहूँगा। यह बात 1935 के अन्त की है। जिनिवा के एक समाजवादी पत्र ‘दुआ दे पेटल’ में सोमेन्द्रनाथ टैगोर की गाँधीजी पर प्रकाशित पुस्तक की विस्तृत समीक्षा छपी थी। गाँधीजी पर आरोप लगाया था कि वे पूँजीपतियों के हाथों बिक गए हैं और भारतीय जनता के प्रति विश्वासघाती हैं। यह आरोप एक भारतीय ने उन पर लगाया था अतः यूरोप में एक गलत सन्देश जाता है। इस पीड़ा को लेकर मदलेन रोलां ने विला लिओनेत, विलनेव (वो), से नेहरू को तत्काल एक पत्र लिखकर उनसे हस्तक्षेप का अनुरोध यह किया था कि दुराग्रहियों से उस मनुष्य की नेकनामी को बदनामी से बचाया जाए, जिसने की भारत में अपनी आन्तरिक ऊर्जा के प्रति चेतना को जन्म दिया है और जिसने अपनी आस्था की आधारशिला पर अपना सारा जीवन देश की सेवा में लगा दिया है और जिसने एक देवदूत के हृदय से दलित वर्ग के पक्ष का समर्थन किया है। ऐसा आज भी हो रहा है और उत्तेजना, तनाव, असंयम, आक्रोश और अहम से घिरे लोग उस सच्चाई से नई पीढ़ी का ध्यान हटाने के लिए उसी तरह कर रहे हैं जैसा कभी चीन को अफीम की लतडुबोए रखने के लिए हुआ था।....शंकाएं तब जन्मती हैं जब समाज के लिए सोच का काम कतिपय ट्रेडमार्क व्यक्तियों तक सीमित रह जाता है शेष समाज अध्ययन से दूर होता जा रहा है और पत्र-पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं पर बिना उस पुस्तक को पढ़े एवं सत्य को जांचे विश्वास करने का ढिंढोरा पीटने लगता है। प्रमाद की यह मानसिकता किसी नशे के जहरीले प्रभाव से ज्यादा खतरनाक और आत्मघाती हो सकता है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए।’’
मुझे इन संवादों ने यह सोचने के लिए विवश किया कि कुछ न कुछ करना चहिए। मैंने किया भी जैसे दिल्ली चलो’, ‘स्वराज्य’ ‘अंतिम सत्याग्रही’ आदि उपन्यासों के माध्यम से सामने आया। मेरे पास अनेक पाठकों के पत्र भी आए। उनमें मुझे लगा कि पाठक की चेतना जागरुक है और उनकी जिज्ञासा वृत्ति सक्रिय है। यह जानता हूँ कि यह संवाद कभी ख़तम नहीं होगा क्योंकि यह संवाद शाश्वत है और हर पीढ़ी के लिए हवा-पानी की तरह आवश्यक भी है। सरदार पटेल इसी क्रम में मेरा प्रयास है समर्थन जुटाने के लिए नहीं बल्कि इस संवाद की जाँच को कभी नहीं बुझने देने के संकल्प के लिए। आँच सुलगी रहेगी तो जिन्दगी आत्म साक्षात्कार से आँख नहीं चुराएगी। जब पोरबन्दर के गर्ल्स कालिज की लड़कियों में से एक ने यह प्रश्न किया कि नेताजी सुभाष ने गाँधीजी को कभी वृद्ध और बेकार का कबाड़ा क्यों कहा था ?
‘‘क्योंकि गाँधीजी ने सफल होता सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस लिया था और सुभाष तब वियना में अपना इलाज करवा रहे थे। लेकिन उन्हीं सुभाष ने गाँधी जी को महात्मा भी कहा था। यह प्रश्न विराम का नहीं है, विराम से आगे बढ़ने का है और हर पीढ़ी को नए सिरे से सोचने, बहस करने और किसी निर्णय के निकट पहुँच कर कुछ पहले से अधिक सार्थक करने का है।.... आम लोग आत्म-साक्षात्कार करते रहें तो, अपने पर नियंत्रण रख पाएँगे और किसी बहाव में सूखे पत्ते की तरह बहने से बच जाएंगे।’’ तब बात खतम। आश्चर्य की पाँच साल बाद पत्र मिला। वह लड़की विदेश में ‘जाब’ कर रही है लिखा था कि सच तक पहुँचने की लम्बी यात्रा की कठिनाइयों से जो अनुभूत होता है, वह सच अपना होता है और वह आपकी आत्म-साक्षात्कार वाली बात की तह में जाने के बाद ही सम्भव हो सका। पत्र लम्बा था लेकिन उसमें मुख्य बात यही थी।
मेरे पाठकों ने मुझे सदा सचेत और युवा बनाए रखा है और वह रह-रहकर मेरा ध्यान आल्ड्स हक्सले के इस कथन की ओर ले जाते हैं कि ‘‘अनेक मोर्चों पर जय प्राप्त कर ली गई, परन्तु मनुष्य की ओर उसकी स्वतन्त्रताओं की लगातार पराजय हुई है।’’
लेकिन अब यह सिलसिला मद्धिम पड़ना चाहिए और मनुष्य की और उसकी स्वतंत्रताओं की जीत होनी चाहिए। यह खुली चुनौती मेरे और आपके लिए है, जिससे बच निकलने का अर्थ है अपने वजूद को नकारना। खैर अब अन्त में अपने उन मित्रों का शुक्रिया अदा कर दूँ, जिनकी वजह से मै इस मकाम तक पहुँच सका डॉ. कनुभाई पटेल, धीरज भाई म. मशरूवाला, प्रो, बलवंत राय वोरा. डॉ. नरहरि कृष्णा, प्रो. पूजा गाँधी, डॉ, शलभ मजूमदार, डॉ. के.एम. अंसारी, दीनदयाल दसोत्तर, गोकुल प्रसाद शर्मा, गिरिजा शंकर त्रिवेदी, कैलाश नारायण भटनागर, श्रीमती शशिकला, प्रो. प्रमोद तेन्दुलकर, डॉ. वंदना भाटिया आदि। आशा करता हूँ कि मेरे प्रिया पाठकों के लिए यह प्रयास उनमें संवाद की आँच को सहेजने में अपनी भूमिका के साथ न्याय कर सकेगा। अस्तु;
दिनांक 10 जून, 2002
शशिनिवास, 105 सेक्टर 9ए,
गिरनमगरी, उदयपुर
शशिनिवास, 105 सेक्टर 9ए,
गिरनमगरी, उदयपुर
राजेन्द्र मोहन भटनागर
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