आध्यात्मिक >> गौरांग गौरांगराजेन्द्र मोहन भटनागर
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चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पर आधारित रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
चैतन्य महाप्रभु कृष्ण के अवतार माने गये हैं। 1486 में बंगाल के छोटे से
गाँव में जन्में चैतन्य महाप्रभु बचपन से ही बहुत प्रतिभाशाली थे। छोटी
उम्र में ही उन्होंने सभी धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन कर उन्हें
कण्ठस्थ भी कर लिया था। केवल अड़तालीस वर्ष के छोटे से जीवन काल में
उन्हें अपने समय का सबसे महान और महत्त्वपूर्ण विद्वान् माना जाता था। देश
भर में भ्रमण करके उन्होंने संकीर्तन और ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण,
कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ का मूल मंत्र का संदेश देश के कोने-कोने
में फैलाया। कृष्ण भक्ति में लीन होकर कृष्ण का नाम भजना और साथ-साथ आनंद
में नाचना, इसकी शुरुआत उन्होंने ही की और यही आज दुनिया के कोने-कोने में
इस्कॉन (ISKCON) के नाम से जाना जाता है।
‘गौरांग’ चैतन्य महाप्रभु का उपनाम था। वे कृष्णभक्त होने के साथ-साथ समाज सुधारक और एक महान् विद्वान भी थे। चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन परम्परा की शुरुआत की जो आज के आधुनिक युग में ‘इस्कॉन’ के रूप में विश्व भर में फैली हुई है।
चैतन्य महाप्रभु का संदेश था, ‘जो भय से मुक्त होना चाहता है अर्थात् निडर बने रहना चाहता है उसका कर्तव्य है कि वह जीवन का लक्ष्य निर्धारित करे और उस पर अडिग चलता रहे।’ गौरांग का जीवन विलक्षण घटनाओं से भरा है–अनेक उतार-चढ़ाव जिन्हें समरस होकर जिया था उन्होंने।
एक महापुरुष की प्रेरणादायक जीवनगाथा इस उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। एक तो चैतन्य महाप्रभु के जीवन की महानता और दूसरी राजेन्द्र मोहन भटनागर की लेखनी, दोनों ने मिलकर इस उपन्यास की रोचकता और विशिष्टता दी है।
‘गौरांग’ चैतन्य महाप्रभु का उपनाम था। वे कृष्णभक्त होने के साथ-साथ समाज सुधारक और एक महान् विद्वान भी थे। चैतन्य महाप्रभु ने कीर्तन परम्परा की शुरुआत की जो आज के आधुनिक युग में ‘इस्कॉन’ के रूप में विश्व भर में फैली हुई है।
चैतन्य महाप्रभु का संदेश था, ‘जो भय से मुक्त होना चाहता है अर्थात् निडर बने रहना चाहता है उसका कर्तव्य है कि वह जीवन का लक्ष्य निर्धारित करे और उस पर अडिग चलता रहे।’ गौरांग का जीवन विलक्षण घटनाओं से भरा है–अनेक उतार-चढ़ाव जिन्हें समरस होकर जिया था उन्होंने।
एक महापुरुष की प्रेरणादायक जीवनगाथा इस उपन्यास के रूप में प्रस्तुत है। एक तो चैतन्य महाप्रभु के जीवन की महानता और दूसरी राजेन्द्र मोहन भटनागर की लेखनी, दोनों ने मिलकर इस उपन्यास की रोचकता और विशिष्टता दी है।
1
शची देवी तड़के उठी। मुँह-हाथ धोए और कलश उठा, नोहरे की ओर बढ़ गई। गाय के
पास आई। उसके सामने सानी डाली। उसकी पीठ पर हाथ फेरा। गाय ने पूँछ हिलाकर
सानी की ओर देखा और धीरे-धीरे सानी को मुँह लगाया। फिर वह जुगाली करने
लगी। वह बछड़े के पास आई। उसकी पीठ थपथपाई और गाय के थन से उसे लगा दिया।
बछड़ा इसी प्रतीक्षा में था। वह तेजी से दूध पीने लगा–धनोष्ण
दुग्ध। वह सोचने लगी कि काश, अपना निमाई भी धनोष्ण दूध पीने लगता। तभी
उसका ध्यान अपने स्तन की ओर गया। उसने तो अपना दूध छुटाने के लिए नीम की
पत्ती पीसकर लगाई थी और निमाई ने स्तन मुँह में लेकर वहाँ से मुँह हटा
लिया था। निमाई ने क्रोधावेश से भरकर इतनी जोर से काट की कि वह तिलमिला गई
और उसकी पीठ पर धौल दे मारा। धीरे-धीरे वह बड़बड़ा उठी,
‘‘क्यों इतना सताता है, रे ! मैं तेरी सगी माँ हूँ और
तू मेरा पुत्र, लाल।’
निमाई रो पड़ा। रोता रहा। कुछ देर बाद वह चुप हो गया। उसका मुँह अरुणाक्त हो उठा। उसकी आँखों में ज्योति आभा बन मुखर हो उठी।
शची देवी उठी। गाय के पास जाकर ममत्व भरी दृष्टि से बछड़े की ओर देखा। वह लपलप करता थन को चूसता हुआ आत्ममग्न हुआ जा रहा था। यदाकदा कुछ दूध गिर भी रहा था। कभी जब मनुष्य के मुँह गाय का दूध नहीं लगा होगा। उसका बछड़ा सारा दूध पीकर छक जाता होगा और स्वतः माँ का थन छोड़कर अपलक दृष्टि से उसके थन से टपकते दूध को तटस्थ भाव से देखता होगा। उसने मन मारकर और अतीत की कल्पना से ध्यान हटाकर पहले गाय की पीठ को सहलाया, फिर उसकी धोली-पीत पीठ को सहलाते हुए बछड़े को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसकी माँ के थन से अलग किया। गाय ने भी दो-चार बार पूँछ फटकार कर, पिछले पाँवों पर मचल कर और सिर हिलाकर अपना एतराज दर्ज कराया।
हवा खिलखिलाकर पास से गुजर गई। व्यंग्य ने आँख दबाई। शची देवी के अरुण मुख पर पसीने की बूँदें ओस बिन्दुओं की तरह उभर आईं। मानो वह कोई अप्राकृतिक कार्य करने जा रही हो। उसने सँभल कर चारों ओर देखा। कहीं कोई उसे यह अपराध करते हुए देख तो नहीं रहा है। पल्ले से अज्ञातज्ञात पसीने को पोंछा और एक ठण्डी साँस भरी।
बछड़े को दूसरे खूँटे से बाँधकर उसके आगे रातिब डालकर उसे सहलाया। उसके मुँह में हाथ से रातिब पहुंचाया। उसने नाह-नूह से गरदन इधर-उधर मोड़कर फिर रातिब से मन को सन्तोष दिया। वह बीच-बीच में तेजी से जुगाली कर उठता था। कदाचित् उसे भी निमाई की तरह आक्रोश हो। फिर शची देवी बरतन धोकर और थन धोकर गो-माता को मनाने के लिए एक लोकगीत का स्वर गुनगुनाने लगी। पहले दो थन की धार बरतन पर पड़ी। तेज आवाज उठी–टंकार की तरह। फिर बरतन में पड़ने वाली धार तन्मय होकर तनक धिन तनक धिन का नाद सुनाने लगी। बीच में कभी-कभार थन पर से तनिक सा हाथ फिसला नहीं कि धार उसके मुँह पर जा पड़ती। उसकी जीभ चटकारे भर उठती। वह कहती, ‘‘माँ, अपने विश्व-निमाई के लिए अमृत दान कीजिए। ये भी आपके ही पुत्र हैं।’’
गाय हलके से पहले नाड़ हिलाती और फिर प्रसन्नता से भर पूँछ लहरा उठती। आनंद महकने लगता। अब उसने शेष दोनों थनों को पकड़ा, दबाया और थन पिचकारी छोड़ उठे। वह बतियाने लगती, ‘‘माँ क्षमा करना, आपके सुत के मुँह से थन हटाकर अपने सुत द्वय को दूध पिलाने का मोह, चाहकर भी, संवरण नहीं कर सकी।...छीन ली न ममता से ममता। मैं भी कैसी माँ हूँ। पर क्या करूँ ! इसी कारण मनुष्य से अधिक आप धन्य हैं, उदार हैं, कल्याणकारी हैं और क्षमाशील हैं।
शची देवी का बरतन भर गया। एक बार फिर उसने बछड़े को खुला कर दिया। वह दौड़कर लाड़ लड़ाता हुआ अपनी माँ के थन से छेड़छा़ड़ कर मुँह से दबाने लगा। फिर चूस उठा।
शची देवी ने दूध से बरतन एक ओर रखा। कंडे सुलगाए। उनकी आँच मंद्धिम पड़ने पर कच्ची हंडिया में दूध गरम करने रख दिया। फिर कमरे में आई। चमक गई ! निमाई के मुँह के आसपास दूध के छींटे थे। उसने अपने इत्मीनान के लिए उसके मुँह पर पड़े छींटों को छुआ। जीभ से भी उस उँगली को लगाया। अचरज। धनोष्ण दूध था वह–हलका सा गरम। वह ध्यान से निमाई की ओर देखती रही। विश्वरूप के मुँह पर दूध का कोई छींटा नहीं था। क्या वह सच है जो ज्योतिषी कहते हैं। क्या वास्तव में वह !... नहीं...नहीं...यह सच नहीं है। वह कैसा उत्पात मचाता है। कैसे-कैसे खेल करता है। दूसरों को कष्ट देता है। आए दिन उसकी शिकायतें आती रहती हैं। वह किस-किसको समझाए ! कैसे समझाए। निमाई इस कान सुनता है, उस कान से निकाल देता है। उसे कोई चिंता नहीं है। दिन-पर-दिन वह जिद्दी और ऊधमी होता जा रहा है।
अब प्रातः ने आँखें मीड़ीं। हलके से खोलीं। समय देख, सुन और समझ रहा था। वह कभी गंभीर हो जाता था और कभी विहंस उठता था। कदाचित् वह उन सबसे अप्रभावित था, जिसमें व्यक्ति का मन डूबता या तैरने लगता है अथवा दोनों का संगम बनता हुआ वह अपने में अनुभव करता है। आश्चर्य स्वयं अवाक् था। दुर्लभ परिदृश्य। नींद में सोते हुए पच-पच कर उठा था।
पंडित जगन्नाथ मिश्र के परिवार में थे पत्नी शची देवी, पुत्र विश्वरूप और निमाई।
इस समय घर-आँगन में कोई नहीं मात्र माता शची देवी और निमाई थे। निमाई खटोले में पड़ा सो रहा था। माता शची धान बीन रही थी और रह-रहकर निमाई की सौंदर्य द्युति की अलौकिकता से मुग्ध होती जा रही थी।
पहले निमाई ने अंगड़ाई भरी और फिर किलकारी मारी। मानो नीलभ्र में चपला कौंध गई हो। चहुँ ओर चिक्वन उजास की आभा लुनाई भर मचल उठी। अपूर्व सौंदर्य छटा छा गई।
अचानक बादल घिले और बरसने लगे। निमाई जोर-जोर से रोने लगा। माता शची देवी ने धान भरी थाली एक और सरका दी। उठकर निमाई के पास आई। खटोले को झोंटा देने लगी। परंतु निमाई एकटक रोता रहा। हारकर माता शची ने उसे गोदी में ले लिया। गोदी में उसे झुलाने लगी। दुलारने लगी। मनाने लगी। फिर भी, निमाई का रोना थमा नहीं। उलटा तेज होता गया।
अब माता शची देवी क्या करे। उनका जी घबराने लगा। हाथ-पाँव फूलने लगे। न जाने यह क्या होता है निमाई को ! सोचने लगी कि यह तेरह माह गर्भ में रहने के कारण तो कहीं ऐसा नहीं हो गया है। हुआ था तब तो यह एकदम स्वस्थ था–बड़ी-बड़ी चमकदार आँखें, लाल-लाल होंठ, भरा-भरा मुख, काले-काले केश। एक वर्ष का शिशु-सा
इसी समय निमाई के नाना नीलांबर चक्रवर्ती ने अंदर के कक्ष में प्रवेश किया। शची कह रही थी, ‘‘चुप भी कर निमाई। गला फाड़-फाड़कर तूने सारे मुहल्ले को सिर पर उठा लिया है।’’
‘‘शची बेटी, तू दुःखी मत हो। उसे मेरे पास ला।’’ नीलांबर चक्रवर्ती ने सहज भाव से कहा।
‘‘आपने तो कहा था जे तो...।’’
‘‘सच कहा था, पुत्री। ...निष्क्रमण संस्कार के समय वह कैसी मधुर-मधुर मुस्कान फेंक रहा था कि राह चलता यायावर एक बार ठिठककर खड़ा रह जाए। जब उसका चार माह बाद नामकरण संस्कार हुआ था तब वह कैसे किलकारियाँ मार रहा था। जैसे ही मैंने गौरांग नाम लिया, वैसे ही अठखेलियाँ कर उठा था।... ला, तू इस नटखट को मुझे दे।’’
शची देवी ने रोते हुए निमाई को नीलांबर चक्रवर्ती की गोदी में दे दिया। निमाई का रोना और तेज हो गया।
‘‘लाओ इसे मुझे ही दे दो। यह बड़ा जिद्दी है।’’ शची देवी ने कहा।
‘‘परंतु अपने नाना से जिद्दी नहीं है। ...तुमने अच्छे भले नाम गौरांग से निमाई क्यों किया ? निमाई हीनता का परिचायक। वह उसे कैसे स्वीकार करेगा। जितना बार निमाई नाम से उसे पुकारोगे, उतनी बार ही वह रो-रोकर उसका विरोध करेगा। क्यों, गौरांग मैं ठीक कह रहा हूँ न। ...नीलांबर चक्रवर्ती उससे बातें कर रहे थे। वह रोता भी जा रहा था और सुनता भी जा रहा था। रोने का स्वर ईषद् धीमा हुआ था। अब वह उसे गाकर सुना रहे थे, ‘‘हरि-हरि बोल, पक्का तोल, कभी झूठ न बोल। सदा मुकुंद माधव गोविंद बोल।’’ वह गाते रहे। गौरांग सो गया। शची देवी देखती रह गई। अब गौरांग खटोले में झूल रहा था।
पर अब ! अब घर में न दादा हैं और न नाना। तीन बरस से ऊपर का हो चुका है गौरांग। विश्वरूप तेरहवें वर्ष में चल रहा था। घर उसके लिए नहीं था और न वह घर के लिए। संतान से जो अपेक्षाएँ माता-पिता की होती हैं, उनकी ओर उसका ध्यान ही नहीं था। घूम फिर कर शची देवी की दृष्टि गौरांग पर जा ठहरती थी। पंडित जगन्नाथ मिश्र अपने में लीन रहते थे। उन्हें दीन-दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं था।
छोटा-सा कच्चा पक्का घर। लिपा-पुता। आँगन में तुलसी का बिरवा। नोहरे में दो गाय बँधी थीं। घर के द्वार पर अल्पना का रंग-संसार देखते ही बनता था।
निमाई का रोना शुरू। वह भी सुबह-सुबह। रोना तेज होता गया। फिर वह फूट-फूट कर रोने लगा। उस दिन उसके पिता जगन्नाथ मिश्र भी घर में ही थे। शची देवी ने कहा, ‘‘तनिक अपने लाडले को सँभालो तब तक मैं गाय दुह लूँ।’’
जगन्नाथ मिश्र जानते थे कि निमाई का रोना क्या गुल खिलाता है। कौन चुप करा सकता है उसे ! जगन्नाथ मिश्र बोले, ‘‘तू अपने लाडले को सँभाल, गौ को मैं दुह देता हूँ।’’
‘‘बचो नहीं, निमाई के पिता।’’
‘‘वो तेरी आँखों का तारा है। तू ही उससे लाड़ लड़ाती रहती है। तूने ही उसे सिर पर चढ़ा रखा है सो अब उसे तू ही संभाल भाग्यवान।’’ वह उससे बरतन लेकर नोहरे की ओर बढ़ गए। उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
इधर निमाई की शैतानियाँ बढ़ती जा रही थीं। वह सरपट दौड़ने लगा था। आसपास की छोरियाँ आकर उसका श्रृंगार करती थीं। अपने साथ नाचती नचाती थीं। एक धुन गूँज उठती थी, ‘‘हरि बोले सो हरि का होए। और मुकुट मुरली धर सोहे...।’’ उस समय वे छोरियाँ भी वहाँ कहीं नहीं दिखलाई पड़ीं। वे होतीं तो निमाई का रोना-धोना थम जाता और नृत्य-कीर्तन प्रारंभ हो जाता। शची देवी ने गहरी साँस भरी और निमाई के पास आई। उसके सिर-पीठ को सहलाया और मंद मधुर स्वर में कहा, ‘‘निमाई, तू क्यों गला फाड़-फाड़कर रो रहा है ?’’ क्या तेरे पेट में पीड़ा हो रही है ?’’
निमाई ने सिर हिलाकर मना कर दिया।
‘‘क्या तुझे भूख लग रही है ?’’
निमाई ने सिर हिलाकर पुनः मना कर दिया।
‘‘फिर तू क्या चाहता है, मुझे बता, मैं तेरी इच्छा पूर्ण करने का यत्न करूँगी ?’’ शची देवी ने साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए कहा।
‘‘सच कहती है, माता।’’
‘‘एकदम सच। तू बता तो ?’’
‘‘माता, अपने पड़ोस में हिरण्य पंडित और जगदीश गुंसाईं हैं न !’’
‘‘हाँ, हैं–आगे बोल।’’
‘‘उनके यहाँ ठाकुरजी के लिए विशेष नैवेद्य तैयार हुआ है।’’ निमाई रोता भी जा रहा था और बात भी करता जा रहा था।
‘‘मुझे बता, मुझे क्या करना है ?’’
‘‘माता, तू वह नैवेद्य मुझे लाकर दे।’’
‘‘तेरी मत मारी गई है, निमाई !...पहले वहाँ पूजा-अर्चना तो हो जाए, फिर मैं ला दूँगी।
‘‘पूजा होने से पहले नहीं, ना, माता।’’ इतना कहकर वह जोर-जोर से रोना लगा।
‘‘तू समझता क्यों नहीं है, निमाई। पहले ठाकुरजी को नैवेद्य समर्पित किया जाता है अर्थात् उनको भोग लगाया जाता है, फिर सबको प्रसाद मिलता है। तू जरा संतोष कर, भोग लग जाने दे।’’
‘‘नहीं-नहीं, माता, नहीं। ठाकुरजी से पहले वह नैवेद्य मुझे चाहिए।’’
‘‘तू कैसी आधारहीन बातें करता है। क्या आज तक कभी ऐसा हुआ है, निमाई। अपने यहाँ भी सर्वप्रथम भगवान को भोग लगाया जाता है, गौ को रोटी निकाली जाती और...।’’
‘‘मुझे इस सबसे मतलब नहीं है, माता’’
‘‘मुझे तो वो नैवेद्य चाहिए, माता।’’ इतना कहकर वह फिर रोने लगा।
‘‘सुनो निमाई के पिता, तुम्हारा लाड़ला क्या ठान बैठा है ? तनिक उसे शास्त्र के ज्ञान-ध्यान से समझाओ-बुझाओ तो।’’ शची देवी ने तेज स्वर में कहा।
तब तक आस-पड़ोस की स्त्रियाँ भी आ गईं। सब आश्चर्यचकित रह गईं। एक वृद्ध महिला समझाने लगी, ‘‘नहीं, बेटा, ऐसा मन नहीं बनाते। ठाकुरजी को भोग लगाने से पहले कोई भोग का ज़रा-सा भी अंश भी नहीं ले सकता। यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो उससे ठाकुरजी रुष्ट हो जाते हैं और उसे अंधा-बहरा या लूला-लंगड़ा कर देते हैं। अपना लाल तो लाखों में एक है, वह अपनी ताई की बात मानेगा।’’
निमाई रो पड़ा। रोता रहा। कुछ देर बाद वह चुप हो गया। उसका मुँह अरुणाक्त हो उठा। उसकी आँखों में ज्योति आभा बन मुखर हो उठी।
शची देवी उठी। गाय के पास जाकर ममत्व भरी दृष्टि से बछड़े की ओर देखा। वह लपलप करता थन को चूसता हुआ आत्ममग्न हुआ जा रहा था। यदाकदा कुछ दूध गिर भी रहा था। कभी जब मनुष्य के मुँह गाय का दूध नहीं लगा होगा। उसका बछड़ा सारा दूध पीकर छक जाता होगा और स्वतः माँ का थन छोड़कर अपलक दृष्टि से उसके थन से टपकते दूध को तटस्थ भाव से देखता होगा। उसने मन मारकर और अतीत की कल्पना से ध्यान हटाकर पहले गाय की पीठ को सहलाया, फिर उसकी धोली-पीत पीठ को सहलाते हुए बछड़े को उसकी इच्छा के विरुद्ध उसकी माँ के थन से अलग किया। गाय ने भी दो-चार बार पूँछ फटकार कर, पिछले पाँवों पर मचल कर और सिर हिलाकर अपना एतराज दर्ज कराया।
हवा खिलखिलाकर पास से गुजर गई। व्यंग्य ने आँख दबाई। शची देवी के अरुण मुख पर पसीने की बूँदें ओस बिन्दुओं की तरह उभर आईं। मानो वह कोई अप्राकृतिक कार्य करने जा रही हो। उसने सँभल कर चारों ओर देखा। कहीं कोई उसे यह अपराध करते हुए देख तो नहीं रहा है। पल्ले से अज्ञातज्ञात पसीने को पोंछा और एक ठण्डी साँस भरी।
बछड़े को दूसरे खूँटे से बाँधकर उसके आगे रातिब डालकर उसे सहलाया। उसके मुँह में हाथ से रातिब पहुंचाया। उसने नाह-नूह से गरदन इधर-उधर मोड़कर फिर रातिब से मन को सन्तोष दिया। वह बीच-बीच में तेजी से जुगाली कर उठता था। कदाचित् उसे भी निमाई की तरह आक्रोश हो। फिर शची देवी बरतन धोकर और थन धोकर गो-माता को मनाने के लिए एक लोकगीत का स्वर गुनगुनाने लगी। पहले दो थन की धार बरतन पर पड़ी। तेज आवाज उठी–टंकार की तरह। फिर बरतन में पड़ने वाली धार तन्मय होकर तनक धिन तनक धिन का नाद सुनाने लगी। बीच में कभी-कभार थन पर से तनिक सा हाथ फिसला नहीं कि धार उसके मुँह पर जा पड़ती। उसकी जीभ चटकारे भर उठती। वह कहती, ‘‘माँ, अपने विश्व-निमाई के लिए अमृत दान कीजिए। ये भी आपके ही पुत्र हैं।’’
गाय हलके से पहले नाड़ हिलाती और फिर प्रसन्नता से भर पूँछ लहरा उठती। आनंद महकने लगता। अब उसने शेष दोनों थनों को पकड़ा, दबाया और थन पिचकारी छोड़ उठे। वह बतियाने लगती, ‘‘माँ क्षमा करना, आपके सुत के मुँह से थन हटाकर अपने सुत द्वय को दूध पिलाने का मोह, चाहकर भी, संवरण नहीं कर सकी।...छीन ली न ममता से ममता। मैं भी कैसी माँ हूँ। पर क्या करूँ ! इसी कारण मनुष्य से अधिक आप धन्य हैं, उदार हैं, कल्याणकारी हैं और क्षमाशील हैं।
शची देवी का बरतन भर गया। एक बार फिर उसने बछड़े को खुला कर दिया। वह दौड़कर लाड़ लड़ाता हुआ अपनी माँ के थन से छेड़छा़ड़ कर मुँह से दबाने लगा। फिर चूस उठा।
शची देवी ने दूध से बरतन एक ओर रखा। कंडे सुलगाए। उनकी आँच मंद्धिम पड़ने पर कच्ची हंडिया में दूध गरम करने रख दिया। फिर कमरे में आई। चमक गई ! निमाई के मुँह के आसपास दूध के छींटे थे। उसने अपने इत्मीनान के लिए उसके मुँह पर पड़े छींटों को छुआ। जीभ से भी उस उँगली को लगाया। अचरज। धनोष्ण दूध था वह–हलका सा गरम। वह ध्यान से निमाई की ओर देखती रही। विश्वरूप के मुँह पर दूध का कोई छींटा नहीं था। क्या वह सच है जो ज्योतिषी कहते हैं। क्या वास्तव में वह !... नहीं...नहीं...यह सच नहीं है। वह कैसा उत्पात मचाता है। कैसे-कैसे खेल करता है। दूसरों को कष्ट देता है। आए दिन उसकी शिकायतें आती रहती हैं। वह किस-किसको समझाए ! कैसे समझाए। निमाई इस कान सुनता है, उस कान से निकाल देता है। उसे कोई चिंता नहीं है। दिन-पर-दिन वह जिद्दी और ऊधमी होता जा रहा है।
अब प्रातः ने आँखें मीड़ीं। हलके से खोलीं। समय देख, सुन और समझ रहा था। वह कभी गंभीर हो जाता था और कभी विहंस उठता था। कदाचित् वह उन सबसे अप्रभावित था, जिसमें व्यक्ति का मन डूबता या तैरने लगता है अथवा दोनों का संगम बनता हुआ वह अपने में अनुभव करता है। आश्चर्य स्वयं अवाक् था। दुर्लभ परिदृश्य। नींद में सोते हुए पच-पच कर उठा था।
पंडित जगन्नाथ मिश्र के परिवार में थे पत्नी शची देवी, पुत्र विश्वरूप और निमाई।
इस समय घर-आँगन में कोई नहीं मात्र माता शची देवी और निमाई थे। निमाई खटोले में पड़ा सो रहा था। माता शची धान बीन रही थी और रह-रहकर निमाई की सौंदर्य द्युति की अलौकिकता से मुग्ध होती जा रही थी।
पहले निमाई ने अंगड़ाई भरी और फिर किलकारी मारी। मानो नीलभ्र में चपला कौंध गई हो। चहुँ ओर चिक्वन उजास की आभा लुनाई भर मचल उठी। अपूर्व सौंदर्य छटा छा गई।
अचानक बादल घिले और बरसने लगे। निमाई जोर-जोर से रोने लगा। माता शची देवी ने धान भरी थाली एक और सरका दी। उठकर निमाई के पास आई। खटोले को झोंटा देने लगी। परंतु निमाई एकटक रोता रहा। हारकर माता शची ने उसे गोदी में ले लिया। गोदी में उसे झुलाने लगी। दुलारने लगी। मनाने लगी। फिर भी, निमाई का रोना थमा नहीं। उलटा तेज होता गया।
अब माता शची देवी क्या करे। उनका जी घबराने लगा। हाथ-पाँव फूलने लगे। न जाने यह क्या होता है निमाई को ! सोचने लगी कि यह तेरह माह गर्भ में रहने के कारण तो कहीं ऐसा नहीं हो गया है। हुआ था तब तो यह एकदम स्वस्थ था–बड़ी-बड़ी चमकदार आँखें, लाल-लाल होंठ, भरा-भरा मुख, काले-काले केश। एक वर्ष का शिशु-सा
इसी समय निमाई के नाना नीलांबर चक्रवर्ती ने अंदर के कक्ष में प्रवेश किया। शची कह रही थी, ‘‘चुप भी कर निमाई। गला फाड़-फाड़कर तूने सारे मुहल्ले को सिर पर उठा लिया है।’’
‘‘शची बेटी, तू दुःखी मत हो। उसे मेरे पास ला।’’ नीलांबर चक्रवर्ती ने सहज भाव से कहा।
‘‘आपने तो कहा था जे तो...।’’
‘‘सच कहा था, पुत्री। ...निष्क्रमण संस्कार के समय वह कैसी मधुर-मधुर मुस्कान फेंक रहा था कि राह चलता यायावर एक बार ठिठककर खड़ा रह जाए। जब उसका चार माह बाद नामकरण संस्कार हुआ था तब वह कैसे किलकारियाँ मार रहा था। जैसे ही मैंने गौरांग नाम लिया, वैसे ही अठखेलियाँ कर उठा था।... ला, तू इस नटखट को मुझे दे।’’
शची देवी ने रोते हुए निमाई को नीलांबर चक्रवर्ती की गोदी में दे दिया। निमाई का रोना और तेज हो गया।
‘‘लाओ इसे मुझे ही दे दो। यह बड़ा जिद्दी है।’’ शची देवी ने कहा।
‘‘परंतु अपने नाना से जिद्दी नहीं है। ...तुमने अच्छे भले नाम गौरांग से निमाई क्यों किया ? निमाई हीनता का परिचायक। वह उसे कैसे स्वीकार करेगा। जितना बार निमाई नाम से उसे पुकारोगे, उतनी बार ही वह रो-रोकर उसका विरोध करेगा। क्यों, गौरांग मैं ठीक कह रहा हूँ न। ...नीलांबर चक्रवर्ती उससे बातें कर रहे थे। वह रोता भी जा रहा था और सुनता भी जा रहा था। रोने का स्वर ईषद् धीमा हुआ था। अब वह उसे गाकर सुना रहे थे, ‘‘हरि-हरि बोल, पक्का तोल, कभी झूठ न बोल। सदा मुकुंद माधव गोविंद बोल।’’ वह गाते रहे। गौरांग सो गया। शची देवी देखती रह गई। अब गौरांग खटोले में झूल रहा था।
पर अब ! अब घर में न दादा हैं और न नाना। तीन बरस से ऊपर का हो चुका है गौरांग। विश्वरूप तेरहवें वर्ष में चल रहा था। घर उसके लिए नहीं था और न वह घर के लिए। संतान से जो अपेक्षाएँ माता-पिता की होती हैं, उनकी ओर उसका ध्यान ही नहीं था। घूम फिर कर शची देवी की दृष्टि गौरांग पर जा ठहरती थी। पंडित जगन्नाथ मिश्र अपने में लीन रहते थे। उन्हें दीन-दुनिया से कुछ लेना-देना नहीं था।
छोटा-सा कच्चा पक्का घर। लिपा-पुता। आँगन में तुलसी का बिरवा। नोहरे में दो गाय बँधी थीं। घर के द्वार पर अल्पना का रंग-संसार देखते ही बनता था।
निमाई का रोना शुरू। वह भी सुबह-सुबह। रोना तेज होता गया। फिर वह फूट-फूट कर रोने लगा। उस दिन उसके पिता जगन्नाथ मिश्र भी घर में ही थे। शची देवी ने कहा, ‘‘तनिक अपने लाडले को सँभालो तब तक मैं गाय दुह लूँ।’’
जगन्नाथ मिश्र जानते थे कि निमाई का रोना क्या गुल खिलाता है। कौन चुप करा सकता है उसे ! जगन्नाथ मिश्र बोले, ‘‘तू अपने लाडले को सँभाल, गौ को मैं दुह देता हूँ।’’
‘‘बचो नहीं, निमाई के पिता।’’
‘‘वो तेरी आँखों का तारा है। तू ही उससे लाड़ लड़ाती रहती है। तूने ही उसे सिर पर चढ़ा रखा है सो अब उसे तू ही संभाल भाग्यवान।’’ वह उससे बरतन लेकर नोहरे की ओर बढ़ गए। उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
इधर निमाई की शैतानियाँ बढ़ती जा रही थीं। वह सरपट दौड़ने लगा था। आसपास की छोरियाँ आकर उसका श्रृंगार करती थीं। अपने साथ नाचती नचाती थीं। एक धुन गूँज उठती थी, ‘‘हरि बोले सो हरि का होए। और मुकुट मुरली धर सोहे...।’’ उस समय वे छोरियाँ भी वहाँ कहीं नहीं दिखलाई पड़ीं। वे होतीं तो निमाई का रोना-धोना थम जाता और नृत्य-कीर्तन प्रारंभ हो जाता। शची देवी ने गहरी साँस भरी और निमाई के पास आई। उसके सिर-पीठ को सहलाया और मंद मधुर स्वर में कहा, ‘‘निमाई, तू क्यों गला फाड़-फाड़कर रो रहा है ?’’ क्या तेरे पेट में पीड़ा हो रही है ?’’
निमाई ने सिर हिलाकर मना कर दिया।
‘‘क्या तुझे भूख लग रही है ?’’
निमाई ने सिर हिलाकर पुनः मना कर दिया।
‘‘फिर तू क्या चाहता है, मुझे बता, मैं तेरी इच्छा पूर्ण करने का यत्न करूँगी ?’’ शची देवी ने साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए कहा।
‘‘सच कहती है, माता।’’
‘‘एकदम सच। तू बता तो ?’’
‘‘माता, अपने पड़ोस में हिरण्य पंडित और जगदीश गुंसाईं हैं न !’’
‘‘हाँ, हैं–आगे बोल।’’
‘‘उनके यहाँ ठाकुरजी के लिए विशेष नैवेद्य तैयार हुआ है।’’ निमाई रोता भी जा रहा था और बात भी करता जा रहा था।
‘‘मुझे बता, मुझे क्या करना है ?’’
‘‘माता, तू वह नैवेद्य मुझे लाकर दे।’’
‘‘तेरी मत मारी गई है, निमाई !...पहले वहाँ पूजा-अर्चना तो हो जाए, फिर मैं ला दूँगी।
‘‘पूजा होने से पहले नहीं, ना, माता।’’ इतना कहकर वह जोर-जोर से रोना लगा।
‘‘तू समझता क्यों नहीं है, निमाई। पहले ठाकुरजी को नैवेद्य समर्पित किया जाता है अर्थात् उनको भोग लगाया जाता है, फिर सबको प्रसाद मिलता है। तू जरा संतोष कर, भोग लग जाने दे।’’
‘‘नहीं-नहीं, माता, नहीं। ठाकुरजी से पहले वह नैवेद्य मुझे चाहिए।’’
‘‘तू कैसी आधारहीन बातें करता है। क्या आज तक कभी ऐसा हुआ है, निमाई। अपने यहाँ भी सर्वप्रथम भगवान को भोग लगाया जाता है, गौ को रोटी निकाली जाती और...।’’
‘‘मुझे इस सबसे मतलब नहीं है, माता’’
‘‘मुझे तो वो नैवेद्य चाहिए, माता।’’ इतना कहकर वह फिर रोने लगा।
‘‘सुनो निमाई के पिता, तुम्हारा लाड़ला क्या ठान बैठा है ? तनिक उसे शास्त्र के ज्ञान-ध्यान से समझाओ-बुझाओ तो।’’ शची देवी ने तेज स्वर में कहा।
तब तक आस-पड़ोस की स्त्रियाँ भी आ गईं। सब आश्चर्यचकित रह गईं। एक वृद्ध महिला समझाने लगी, ‘‘नहीं, बेटा, ऐसा मन नहीं बनाते। ठाकुरजी को भोग लगाने से पहले कोई भोग का ज़रा-सा भी अंश भी नहीं ले सकता। यदि कोई ऐसा दुस्साहस करता है तो उससे ठाकुरजी रुष्ट हो जाते हैं और उसे अंधा-बहरा या लूला-लंगड़ा कर देते हैं। अपना लाल तो लाखों में एक है, वह अपनी ताई की बात मानेगा।’’
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