कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
"जाओ, मामी से कहो, चाय बना दें।" मां ने कम्मन से कहा। फिर उससे पूछा, “कुछ
खाया-पिया था दिन में?" वह अब भी उसकी पीठ पर हाथ रखे थीं।
"हां।" उसने उत्तर दिया।
चाय पीकर वह बाहर चला गया। राजीव शायद देहरादून से आया हो, उसने सोचा। राजीव
उसका बचपन का दोस्त था। आयल एंड नेचुरल गैस कमीशन में साइंटिफिक असिस्टेंट
था। आजकल देहरादून में पोस्टेड था। होली पर हर वर्ष वह घर आता है। उसके मकान
से दूर नहीं है।
उसने जा कर राजीव को आवाज दी। राजीव बाहर आया। शायद कहीं जा रहा था। उसने
कमरा खोला।
कुछ औपचारिक-सी बीतें हुई। तभी यकायक राजीव ने पूछा, "संतू के बारे
में...क्या सच बात है?"
"हां" उसने कहा।
"जमानत-वमानत नहीं हुई?"
"हो गई।"
राजीव फिर खामोश हो गया। उसने फिर घड़ी देखी।
"कहीं जा रहे हो क्या?" उसने पूछा।
"हां, जरा भाभी के साथ पिक्चर जाने का प्रोग्राम था।"
उसने भी घड़ी देखी। नौ बजे थे।
"जाओ फिर। तुम्हें देर हो रही है।" वह खड़ा हो गया।
राजीव भी खड़ा हो गया।
"सुबह आऊंगा। घर पर ही रहोगे?"
"हां-हां।"
वह बाहर सड़क पर आ गया। चौराहे पर उसने भोला की दूकान से सिगरेट ली।
"नमस्ते, भइया! कब आए?" भोला ने पूछा। यहां था तो रोज ऑफिस जाते समय वह
साइकिल रोक कर भोला की दुकान पर पान खाता था।
"कल!" उसने कहा और सिगरेट जलाने के लिए टीन के डिब्बे से कागज का टुकड़ा
उठाने लगा।
“माचिस लो, भइया!" भोला ने उसकी ओर माचिस बढ़ा दी।
वह सिगरेट जलाने लगा।
"संतू भइया की जमानत हो गई?" भोला ने पूछा।
"हां।" उसने माचिस दुकान के तख्ते पर रख दी और अपने मकान की ओर चल दिया।
घर आ रहा था तो उसने देखा, होली पर लकड़ियों का ढेर लगा था। दो-चार लोग वहां
खड़े भी थे। वह उधर से न आ कर पार्क के अंदर से होकर निकल आया।
क्या आज ही होली जलेगी, वह सोचने लगा। दिन में एक-दो जगह कुछ बच्चे शीशियों
में रंग भरे खेल रहे थे। एक ने उसके कपड़ों पर डाल भी दिया था। परंतु यह तो
होली जलने के तीन-चार दिन पहले से होने लगता है। जिस दिन होली जलती है, उस
दिन तो खासा रंग चलता था पहले। लेकिन अब तो सभी त्यौहार बदल-से गए हैं। रस्म
निभाने की बात रह गई है।
"क्या आज ही होली जलेगी?" घर आ कर उसने मां से पूछा।
"हां।"
"हमारी पिचकारी देखोगे, बड़े मामा?" कम्मन उसे पिचकारी दिखाने लगा। टीन की
सस्ती-सी पिचकारी थी। "प्लास्टिक वाली भी है।" उसने प्लास्टिक की एक जूतेनुमा
बनी पिचकारी भी उसे दिखाई।
"हां, यह तो बढ़िया है।" वह उसे हाथ में लेकर देखने लगा।
"यह कह रहे थे, वह बोतल में लगाने वाला फव्वारा लेंगे," मां ने कहा, "मगर
सुना वह बहुत महंगा आता है।"
"ढाई रुपये का आता है।" कम्मन ने कहा। "अच्छा देखो, कल ले देंगे तमको।" उसने
कहा।
"खाना खाओगे?" मां ने पूछा।
"हां, लाओ।" उसने कहा और कपड़े बदलने लगा।
खाना खाकर वह लेट गया। "होली तापने जाओगे?" मां ने पूछा।
"कितने बजे जलेगी?"
"सुनते हैं सुबह चार बजे आग लगेगी।"
"हम नहीं जाएंगे," उसने कहा, "संतू कहां गए?"
"बाहर वाले कमरे में नहीं हैं?"
"बत्ती तो नहीं जल रही थी वहां।"
"तो कहीं निकल गए होंगे। इतना समझाया लेकिन उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता।
अपने साथ ही लेते जाओ इनको, वहीं कहीं कोई नौकरी लगवा दो। शायद सुधर जाएं।"
उसने कुछ कहा नहीं। चुपचाप लेटा रहा।
दूर कहीं लोग फाग गा रहे थे। ढोलक-मंजीरे के साथ गाने के कुछ अस्पष्ट-से स्वर
देर तक उसके कानों में पड़ते रहे।
सुबह वह कोई नौ बजे सो कर उठा। मां ने चाय ला कर दी। उसने सिगरेट सुलगा ली और
चाय पीने लगा।
कम्मन नीचे से रंग खेल कर आया तो ऊपर से नीचे तक रंग से सराबोर था। थर-थर
कांप रहा था। परंतु बाल्टी में रंग घोले जा रहा था। मुंह पर किसी ने कालिख
लगा दी थी।
छोटा भाई छत पर खड़ा उससे हंसी कर रहा था। "अम्मा के ऊपर भी डाल दो थोड़ा-सा
रंग।" वह कह रहा था।
"डाल दें, नानी?" कम्मन ने पिचकारी भरते हुए पूछा।
“मुझ बूढ़ी के ऊपर क्या डालोगे," मां ने कहा, "जाओ, बड़े मामा के ऊपर डाल
आओ।"
कम्मन ने मुड़ कर उसके कमरे की ओर देखा। वह चाय पी कर प्याला नीचे रख रहा था।
उसने कुछ कहा नहीं। कम्मन चुपचाप बाल्टी लेकर नीचे चला गया।
छोटे भाई की पत्नी रसोई में कचौड़ियां तल रही थी। दूसरे चूल्हे पर गोश्त पक
रहा था, खुशबू से उसने अनुमान लगाया। कमरा रसोई के बगल में होने के कारण
उसमें धुआं भर रहा था। वह उठ कर छोटे भाई वाले कमरे में आ गया और बालकनी पर
खड़े होकर नीचे गली में देखने लगा।
कम्मन बाल्टी लेकर गली के नुक्कड़ पर खड़ा था। गली में कुछ बच्चे एक-दूसरे पर
रंग डाल रहे थे। नीच पाइप पर पुत्तन सुनार महरिन से ठिठोली कर रहा था।
"तुम्हारे किसी ने रंग नहीं डाला?"
"तुम डाल देव न!"
"सबके सामने कैसे डाल दें?"
तभी गली में रंग खेलने वालों की टोली ने प्रवेश किया। वह उनमें से कुछ लोगों
को जानता था। इससे पहले कि वे वहां तक पहुंचे, वह बालकनी से हटकर कमरे में आ
गया और बिस्तर पर लेटकर कम्मन की एक किताब उठा कर पढ़ने लगा।
किताब इतिहास की थी। वह पढ़ने लगा : “एक समय भारत बड़ा धनी देश था। उसे सोने
की चिड़िया कहते थे..."
रंग खेलने वाले लोग नीचे गली में खासा शोर कर रहे थे। वे लोगों को उनके घरों
से बुला रहे थे। कुछ लोग शायद भंग पिएं हुए थे और जोर-जोर से हंस रहे थे।
उसने सोचा, शायद उसे भी वे लोग बुलाएं। पर वे आगे बढ़ गए।
उसे यह सब कभी अच्छा नहीं लगा। जब से उसने होश संभाला, कभी इस तरह रंग नहीं
खेला। जाने क्यों, उसे इस तरह रंग खेलना कुछ अजीब फूहड़पन-सा लगता है।
"कोई आया नहीं?" उसने मां से पूछा।
हर वर्ष उसके यहां कुछ लोग होली पर आते हैं-जीवन मामा, चौथे साहब, पानदरीबा
वाले मौसिया, बच्चू दादा आदि।
"अभी तो कोई आया नहीं," मां ने कहा, "कुछ खाओ तो ले आऊं।"
"नहीं," उसने उतर दिया।
तभी राजीव ने उसे आवाज दी। वह उठ कर बालकनी पर आ गया।
"क्या कर रहे हो? निकलो बाहर!" राजीव ने कहा।
जाना ही पड़ेगा, वह जानता था। उसने कपड़े बदले (होली के लिए एक पुरानी पैंट
और कमीज वह साथ लाया था) और नीचे उतर आया। कमरा खोला। राजीव ने उसके गुलाल
आदि लगा दिया। उसने भी उसी से गुलाल ले कर उसके माथे पर लगा दिया। छोटा भाई
एक थाली में पापड़-गुझिया आदि दे गया।
"चलो, निकलोगे नहीं बाहर?" राजीव ने पीक थूक कर पापड़ मुंह में रखते हुए कहा।
"पी आए हो क्या कहीं से?" उसने पूछा।
"थोड़ी-सी घर पर ही ले ली थी," उसने कहा, "चलो, चलें।"
"कहां चलोगे?"
"यहां से तो निकलो।"
वह उठ कर ऊपर आया। मां से बोला, "अभी आते हैं थोड़ी देर में।"
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