कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
"कम्मन!" सतीश ने अपने कमरे से आवाज दी-"बड़े मामा से पूछो खाना दे जाएं?"
"ले आओ।" उसने कहा।
कम्मन ने एक थाली में परांठे और आलू-बैंगन की सब्जी लेकर चारपाई पर रख दी।
चारपाई पर खाने की उसकी पुरानी आदत है। खाना, पढ़ना, शेव-सभी चारपाई पर ही
करता है।
मां ने गिलास में पानी लाकर नीचे फर्श पर रख दिया। उसने खाना शुरू किया।
"पिंकी साफ़-साफ़ बोलने लगा अब?" मां ने पूछा।
"अभी कहां! तुम्हारे सामने जैसा बोलता था, वैसे ही है।"
"उन लोगों को भी लेते आते। चार महीने हो गए मुझे देखे।"
वह खाना खाता रहा। "कम्मन का इम्तिहान हो जाए तो तुम भी वहीं चली चलो। एक-दो
महीने रह आओ।" उसने कहा।
"देखो, अभी तो दो-ढाई महीने हैं। पराठा और लोगे? दुल्हिन।" मां ने सतीश की
पत्नी को आवाज दी।
"नहीं-नहीं, बस।" उसने कहा।
खाना खाकर उसने हाथ धोए और बिस्तर पर लेटकर सिगरेट पीने लगा। मां उठ कर शायद
खाना खाने चली गईं।
वह लेटे-लेटे संतू के बारे में सोचने लगा। उसकी और संतू की उम्र में आठ वर्ष
का अंतर था। सतीश उससे पांच वर्ष छोटा था। संतू के बाद फिर मां के कोई संतान
नहीं हुई। संतू छह महीने का था, तब मां को टाइफाइड हो गया था। साथ ही संतू को
भी हुआ था। छह महीने तक रहा। तीन बार रिलैप्स हुआ। दो-एक बार तो ऐसा हुआ कि
मां के प्राण अब निकले, तब निकले। डॉक्टर लहरी का इलाज हो रहा था। कई लोगों
ने पिता को डॉक्टर बदलने की राय दी। परन्तु उन्होंने उन्हीं का इलाज चलने
दिया। आखिर उन्हीं के इलाज से फायदा भी हुआ। दोनों ठीक हो गए, मां ओर संतू।
परंतु उसका असर यह हुआ कि संतू का स्वास्थ्य हमेशा के लिए बिगड़ गया। शुरू से
ही वह दुबल-पतला था। सातवें में पढ़ता था तो एक बार फिर उसे भयंकर किस्म का
टायफाइड हुआ। तीन महीन रहा। ठीक होने के बाद डॉक्टरों की राय के अनुसार एक
वर्ष के लिए उसका स्कूल जाना बंद करा दिया गया।
वही भूल हो गई। एक वर्ष वह जी भर कर घूमा। संगत भी कुछ खराब हो गई। पिता भी
उन्हीं दिनों रिटायर हुए थे। वृद्ध भी हो चले थे। आर्थिक कठिनाइयां भी थीं।
वह कुछ देख-सुन नहीं पाते थे। नतीजा यह हुआ कि अगले साल जब दोबारा संतू का
स्कूल जाना शुरू कराया गया, तो उसका मन ही नहीं लगा पढ़ने में। अकसर स्कूल
जाता ही नहीं। फीस ले कर खर्च कर डालता।
शुरू में तो पता नहीं चला। चार-छह महीने बाद पता चला। कुछ मार-पीट हुई। मगर
कोई अन्तर नहीं पड़ा।
वहीं से वह खराब रास्ते पर पड़ गया। वह उन दिनों एम. ए. में पढ़ रहा था। पिता
ने उससे कहा कि उसको देखे। मगर वह लापरवाही कर गया। बाद में भी उसने संतू की
ओर ध्यान नहीं दिया। नहीं तो कहीं-न-कहीं चौकरी ही लगवा देता। उसके कई
मित्रों के पिता अच्छी जगहों पर काम करते थे। अब भी करते हैं। वह कह देता तो
वे लोग उसे कहीं-न-कहीं छोटी मोटी नौकरी पर लगवा सकते थे। परन्तु उसने कभी उस
ओर सोचा ही नहीं।
नतीजा यह हुआ कि शुरू में पतंग, गोली, कंचा चला। फिर जुआ, बीड़ी-सिगरेट आदि।
और अब यह अफीम और जेल।
मां खाना खा कर आ गई थीं। पानदान खोल कर उन्होंने पान लगाया। एक उसे भी दिया।
"थक गए हो तो कम्मन से पैर दबवा लो।" मां ने कहा।
"नहीं, नहीं।"
मां थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोली, "संतू का क्या होगा? साल भर का त्यौहार है
बेटा, किसी तरह उसे छुड़ा लो।"
"कल कुछ करेंगे, देखो।" उसने कहा।
मां चुप हो गईं। फिर अपने आप बोली, "बड़ा नालायक निकला। आज तक खानदान में कोई
जेल नहीं गया था। घर की सारी इज्जत मिट्टी में मिला दी।"
उसने कुछ कहा नहीं।
"कितने दिन की छुट्टी लाए हो?" मां ने कुछ देर बाद पूछा।
"चार दिन।" उसने कहा।
"बत्ती बुझा दें?" मां बिस्तर पर लेट गई थीं।
"जलने दो अभी।" उसने कहा।
मां ने करवट बदल ली। वह पत्रिका पढ़ता रहा। परन्तु अधिक देर जगा नहीं रह सका
वह। उसने उठ कर बत्ती बुझाई और आंखें बंद करके लेट गया।
सोने से पहले उसने सोचा कि सुबह उठ कर खुर्शीद के घर जाएगा। खर्शीद उसका
सहपाठी था। उसके पिता ने कई वर्ष जेल की नौकरी की थी। खुर्शीद जेल वालों को
जानता था। उसी के साथ, उसने सोचा, वह जेल जा कर संतू से मिलेगा। फिर देखेगा
क्या हो सकता है।
सुबह वह कुछ देर से उठा, जैसी उसकी आदत थी। लेटे-लेटे उसने कम्मन को आवाज दी।
कम्मन आ कर उसकी चारपाई की बगल में खड़ा हो गया।
“अखबार आ गया?" उसने पूछा।
कम्मन चला गया। शायद सतीश के कमरे में। लौट कर बोला, “अखबार नहीं आता अब।"
“अच्छा", वह चुप हो गया।
मां चाय ले आई थीं। वह उठ कर चाय पीने लगा।
"संतू को देखने जाओगे?" मां ने पूछा।
"हां," उसने कहा।
"मैं भी चलूं?"
"तुम क्या करोगी चल कर?" उसने कहा। एक क्षण चुप रहा, फिर बोला, "देखो, आज
जमानत का इन्तजाम करूंगा कुछ।"
प्याला जमीन पर रख कर वह सिगरेट पीने लगा।
"कुछ रुपया हो तो दो-तीन रुपये का खोया मंगा लो।" मां ने कहा।
"अच्छा।"
उठ कर उसने कोट की जेब से दस रुपये का एक नोट निकाल कर मां को दे दिया।
"तुम्हीं कह दो सतीश से। मेरे कहने से वह नहीं जाएंगे।"
उसने सतीश को आवाज दी। सतीश आ गया।
"लो, यह रुपये लो। कुछ खोया वगैरह ले आओ।"
"खोया आ गया है," सतीश ने कहा।
"आ गया है?"
"हां, कल ले आया हूं मैं।" उसने मां की ओर संदेहात्मक दृष्टि से देखा।
"मुझको क्या मालूम? मुझे कोई कुछ बताता है!" मां ने अपनी सफ़ाई दी।
"इसमें बताने-न-बताने की क्या बात है?" सतीश ने कहा।
मां ने कुछ कहा जो वह सुन नहीं सका।
वह बाहर आ कर लैट्रिन जाने के लिए डोंगे में पानी लेने लगा। रुपये वह वहीं
चारपाई पर छोड़ आया था।
हाथ-मुंह धो कर वह खुर्शीद के यहां जाने की तैयारी करने लगा।
"साइकिल है?" उसने सतीश से पूछा।
"नहीं।"
"क्या हो गई?"
"संतू कहीं ले गए थे, लौटा कर नहीं लाए।"
"लौटा कर नहीं लाए? क्या किया?"
"क्या मालूम क्या किया! बेच दी होगी। नहीं तो कहीं गिरवी रख दी होगी।"
वह चुप हो गया। कपड़े पहन कर पैदल ही घर से निकल गया।
खुर्शीद जेल के दो-एक अधिकारियों को जानता था। उसी के साथ वह जेल पहुंचा।
जेलर ने संतू को वहीं अपने कमरे में बुलवा लिया। संतू आ कर चुपचाप खड़ा हो
गया। उसने देखा, संतू के कपड़े बहुत मैले थे। बाल रूखे थे। चेहरे पर बढ़ी हुई
दाढ़ी थी।
"बैठ जाओ," जेलर ने उससे कहा तो वह कमरे में एक ओर पड़े लकड़ी के एक बक्स पर
बैठ गया। वह भी वहीं जा कर उसी बक्स पर बैठ गया। खुर्शीद ने संतू की ओर देखा।
फिर सिगरेट जला कर जेलर से बातें करने लगा।
"क्या हुआ था?" उसने संतू से पूछा।
"कुछ नहीं।"
"कुछ हुआ ही नहीं? यों ही तुमको पकड़ लिया?"
"मुझको नहीं मालूम।"
"अफीम नहीं निकली थी घर से?"
"अफीम! नहीं तो। कब निकली थी?"
"फिर? पुलिस से तुम्हारी कोई दुशमनी है?"
"मुझको नहीं मालूम।"
संतू की आदत है, वह ऐसे ही बात करता है। वह चुप हो गया और थैले का सामान
निकाल कर उसे देने लगा। डबलरोटी, मक्खन और दाल-मोठ बगैरह। दो पैकेट सिगरेट भी
थी। वह जानता था, संतू सिगरेट पीता है हालांकि उसके समाने कभी नहीं पी।
खुर्शीद भी उठ कर वहीं आ गया। "क्यों भइया, क्यों यह सब काम करते हो? खुद
परेशान होते हो और घरवालों को भी परेशान करते हो।"
संतू ने उसकी ओर देखा। बोला कुछ नहीं। जैसे जताना चाह रहा हो, “आपसे क्या
मतलब है?"
"सतीश की साइकिल क्या की?" उसने पूछा।
"मिल जाएगी।"
"है कहां?"
"एक दोस्त के घर पर है।"
थोड़ी देर बाद वह खुर्शीद के साथ वापस चला आया।
सारी दोपहार उसे वकील और कचहरी करते बीती। बड़ी कठिनाई से चार बजे के करीब
जमानत मंजूर हुई। खासा खर्च भी हुआ। उसके पास अधिक रुपये थे नहीं। खुर्शीद के
जरिये एक महाजन से सौ रुपये उसने सूद पर उधार लिए। पधीस वकील को दिए।
चार-पांच दर्खास्त वगैरह देने में लग गए। पांच पेशकार को दिए। तब उसने दस्ती
रिलीज आर्डर बना कर दिया। पांच बजे से पहले ही आर्डर जेल पहुंच जाना चाहिए
वरना रिहाई नहीं होती। खुर्शीद उसके साथ-साथ रहा।
उसकी जान-पहचान के कारण पांच बजे के बाद जेल पहुंचने के बावजूद रिहाई हो गई।
खुर्शीद जेल से ही लौट गया। वह संतू के साथ घर आया। रास्ते में उसने संतू से
कोई बात नहीं की। संतू के चेहरे से कदापि ऐसा नहीं लगा कि उसे कुछ भी
पश्चाताप है।
सात बजने के करीब वह घर पहुंचा। जीना चढ़ कर ऊपर पहुंचते ही कम्मन ने जोर से
कह, “अम्मा, संतू मामा आ गए।"
मां शायद अपने कमरे में थीं। वह उठकर बाहर आ गईं। किसी ने किसी से कोई बात
नहीं की। मां चारपाई पर बैठ गईं। उसी पर वह भी बैठ गया। संतू दूसरी चारपाई पर
बैठ गया। सतीश शायद अपने कमरे में था। वह बाहर नहीं निकला। उसकी पत्नी अंदर
रसोई में कुछ कर रही थी।
मां उसकी पीठ पर हाथ फिराने लगी। “कम्मन, जाओ, बड़े मामा के लिए कुछ खाने को
ले आओ। सुबह से कुछ खाया-पिया नहीं बेटे ने।" उन्होंने कहा। फिर संतू से
बोलीं, “भइया, कुछ खयाल करो घर-खानदान का। आज यह न होता तो कौन छुड़ाता
तुमको?"
संतू ने कुछ कहा नहीं।
"गुझिया ले आएं?" कम्मन ने मां से पूछा।
"नहीं, चाय बनवा दो जरा।" उसने कहा।
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