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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


"उधर से ही मंझली चाची, बाबू और रमेश के यहां भी हो आना।" मां ने कहा।

"अच्छा।" वह नीचे उतर आया।

गली से बाहर निकल रहा था तो नुक्कड़ पर खड़े लड़कों ने उसे घेर लिया और उस पर रंग डालने लगे। वह रुक गया। "बस-बस।" उसने घड़ी को पानी से भीगने से बचाने के लिए उसके ऊपर रुमाल बांध लिया।

"पियो तो थोड़ी-सी ले लो चल कर।" राजीव ने कहा।
"कहां?"
"मेरे यहां। एक हाफ लाया था मैं। थोड़ी पी, बाकी रखी है।"
वह चला गया। राजीव ने अलमारी से बोतल निकाली। ऊपर से गिलास और एक प्लेट में भुना हुआ गोश्त ले आया।
थोड़ी देर वहीं बैठ कर उन लोगों ने थोड़ी-थोड़ी पी। उसने सुबह मंजन भी नहीं किया था, वैसे ही पानी से कुल्ला कर लिया था। उसे हल्का-हल्का नशा चढ़ने लगा।
थोड़ी देर बाद वे बाहर निकल आए। वैसे ही मोहल्ले में इधर-उधर निरुद्देश्य घूमते रहे। परिचितों और मित्रों से होली मिलते रहे।
"मुझे जरा लालबाग जाना था। चलोगे?" कोई एक घंटे के बाद राजीव ने कहा।
"किस लिए?"
"रिश्ते की एक भाभी हैं, उन्हीं के यहां जाना है। पीने को मिलेगी वहां।" "तुम हो आओ।" उसने कहा।

राजीव चला गया तो वह अकेला रह गया। पान की दुकान से उसने सिगरेट लेकर सुलगाई और एक क्षण खड़ा सोचता रहा कि क्या करे। तभी उसे ध्यान आया, मां ने दो-चार जगह जाने के लिए कहा था।

पहले वह मंझली चाची के यहां गया। मंझली चाची विधवा थीं। काफी दिन हुए चाचा की टी. बी. में मृत्यु हो गई थी। संतान कोई थी नहीं। मकान खासा बड़ा था। उसी में चाची की एक छोटी बहन भी रहती थीं। वह भी विधवा थीं परंतु उनके एक लड़की थी, जिसका विवाह हो चुका था। लड़की-दामाद भी उसी घर में रहते थे।

उसने घर में प्रवेश किया तो आंगन में खासा हुड़दंग मचा था। छोटी चाची की लड़की के अतिरिक्त दो-एक और लड़कियां और कुछ नवयुवक आंगन में रंग खेल रहे थे। किसी ने उसके आने पर ध्यान नहीं दिया।

वह एक क्षण वहीं द्वार पर खड़ा रहा। फिर आगे दालान में बढ़ गया। बगल वाले कमरे में चाची एक खटोले पर बैठी थीं। उसने चाची के पांव छुए और वहीं बैठ गया।

"कौन है?" चाची ने अपने मोटे चश्मे से उसकी ओर निहारा।

"मैं हूं-विपिन।" वह जानता था कि चाची को साफ़ दिखाई देता है। यह केवल उनकी आदत है।


"विपिन! बैठी, भइया।"
वह पहले ही बैठ चुका था।
"होली पर आ जाते हो तो देख लेती हूं, नहीं तो मुझको क्या मालूम मेरा भी कोई है।" चाची ने कहा।
"मेरा ट्रांसफर हो गया न!" उसने उनकी बात में छिपे कटाक्ष की ओर ध्यान नहीं दिया।
“कहां?"
“पटना।"
"कब हुआ?"
"कई महीने हो गए।" उसे अच्छी तरह याद था कि पटना जाने से पहले वह उनसे मिलने आया था और अपने ट्रांसफर के बारे में उन्हें बताया भी था।
चाची कुछ देर चुप रहीं। फिर अपने आप बोली, "मैं तो तंग आ गई इस घर से। सबेरे से हुड़दंग मचा रखा है इन लड़किनियों ने। अरे छोटी, सकुन, सबिता! कोई नहीं सुनता।"
"क्या है?" किसी ने कहा।
"अरे, तश्तरी में कुछ दे जाओ। विपिन आए हैं।"
"कौन विपिन?" छोटी चाची ने रसोई से पूछा।
"अरे फत्ते के लड़का।"
"अच्छा। आती हूं।"
आंगन अब भी लड़कियों की खिलखिलाहट से गूंज रहा था। "कौन लोग हैं ये?" उसने पूछा।
"छोटी की लड़किनी की सहेली हैं सबे। मेरी तो नाक में दम हो गया है। अरे, मैं कहती हूं अब बस भी करो।" वह कुछ हंसी, फिर बोलीं, "देवर आया है होली खेलने। वही सबे जुटी हैं।"
"अच्छा। और लोग भी तो हैं," उसने कहा। "उसी के दोस्त-वोस्त हैं।"
तब तक छोटी चाची खाने-पीने का कुछ सामान ले आई थीं। "अरे, यह तो बहुत है।" उसने कहा।
"थोड़ा निकाल लो, ज्यादा हो तो। मुझको तो कुछ दिखाई नहीं देता।" चाची ने कहा। तब तक छोटी का दामाद रामप्रकाश आ गया। रीजनल ट्रांसपोर्ट ऑफिस में काम करता था वह। खासी आमदनी होती थी। उसके साथ उसके दो-एक मित्र भी थे।
"अरे विपिन बाबू! आओ भई, आओ। कब आए पटना से?" वह उसे अपने कमरे में बुला ले गया। उसके मित्र भी वहीं बैठ गए। रामप्रकाश छोटे-छोटे गिलासों में शराब उड़ेलने लगा। देसी शराब थी।

"मेरे लिए न दीजिएगा," उसने कहा।
"क्यों? पीते नहीं हो क्या?"
"वैसे ही कभी पी ली तो पी ली।"
"कभी-कभी के लिए ही तो है।" उसने उसके गिलास में भी उड़ेल दी। उसने आगे इंकार नहीं किया।
"संतू का सब ठीक हो गया न?" रामप्रकाश ने पूछा।
"अभी तो नहीं।"
"अरे, सब ठीक हो जाएगा। इसमें कुछ है नहीं। बिशनसिंह से मैं कह दूंगा।" "कौन बिशनसिंह?"
"डी. वाई. एस. पी. सिटी। मेरे यहां तो आते रहते हैं। संतु अभी मिले थे। मैंने उनसे कहा है, मुझको दो-एक दिन में याद दिला दें।"
वह चुप रहा। आंगन में शोर कम हो गया था। वह थोड़ी देर और बैठा, तब उठकर खड़ा हो गया।
"अच्छा, अब चलूं।" उसने कहा।
"चलोगे? अच्छा।" रामप्रकाश उसे बाहर तक छोड़ने आया।
आंगन में रंग खेलना बंद हो गया था और एक-दूसरे के मुंह में चमकीले सुनहले पाउडर लगाए जा रहे थे।

“अरे भाई, इनके ऊपर भी रंग डाल दो जरा।" रामप्रकाश ने लड़कियों से कहा।

"आप तो, जीजाजी, वहां कमरे में जा कर छिपे गए!" किसी लड़की ने उत्तर दिया।

"छिपा नहीं हूं। तुम्हारे साथ रंग खेलने की तैयारी कर रहा हूं।"
वह चाची के पास आ गया। "चलता हूं, चाची!" उसने कहा।
"अच्छा, भइया। पान ले लिया?"
"हां।" उसने कहा।
"ये संतू के बारे में सुनने में आया कि जेल हो गई।"
"हां।"
"छूट गए?"
"अभी नहीं।"
"जेल में ही हैं?"
"नहीं, जमानत हो गई है। अच्छा नमस्ते, चाची!"
वहां से वह बाबू दादा के यहां आ गया। बाबू दादा उसके चचाजाद भाई थे। उससे आयु में काफी बड़े थे। उसे गोद में खिलाया था। उनकी शिक्षा-दीक्षा उसी के घर, उसके पिता की देख-रेख में हुई थी। विवाह भी। परंतु विवाह के चार-पांच वर्ष पश्चात वह अपने परिवार को ले कर अलग हो गए थे। कुछ दिनों दोंनो घरों में आना-जाना भी बंद रहा था। काम-काज में एक घर से दूसरे घर में निमंत्रण आता, परंतु शामिल कोई न होता। आखिर काफी दिनों बाद धीरे-धीरे फिर आना-जाना शुरू हो गया।

शुरू में बाबू दादा बड़े गुस्सेवर मिजाज के थे। उनका सारा घर, पत्नी बच्चे-सब उनके आगे थर-थर कांपते थे। परंतु अब वह काफी नर्म पड़ गए हैं।

"आओ, आओ!" बाबू दादा ने उससे कहा और उसे कुर्सी पर बिठा कर खुद तख्त पर बैठ गए।

काफी देर उससे इधर-उधर की बातें करते रहे। पटना शहर के बारे में। अपने ऑफिस के बारे में। अपने और उसके बाबा के बारे में। इस बीच उसे सिगरेट भी पेश की।

उसने आज तक उनके सामने सिगरेट नहीं पी थी। अतः उसने इंकार कर दिया।
"पियो, पियो। अब तुम बड़े हो गए हो। नौकरी करते हो। यह सब कब तक चलेगा?" उन्होंने कहा।
उसने सिगरेट जला ली।।
उनके कमरे में घर के और किसी व्यक्ति को आने की अनुमति नहीं थी। अतः घर के बच्चे उसे वहां बैठा देख कर द्वार से ही नमस्ते करके चले गए।
"शराब पियोगे?" उन्होंने पूछा।
"नहीं-नहीं।"
"पीते हो?"
"जी नहीं।" उसने सोचा, कहीं उसके मुंह से बू तो नहीं आ रही है।
"पीते हो तो दूं थोड़ी। न पीते हो तो मत पियो।" उन्होंने कहा और अपनी लड़की को आवाज दी, "रेखा, चाचा को अंदर ले जाओ। नाश्ता-वाश्ता कराओ।"
"मैं चला जाता हूं।" वह उठकर खड़ा हो गया।
"आओ लालाजी, तुम तो दिखाई ही नहीं देते," उसके अंदर घुसते ही भाभी ने कहा।
"कैसी तबीयत है आपकी?" उसने पूछा। भाभी प्रायः बीमार रहती हैं। उनके हाथ-पैर में सूजन आ जाती है। दिल धड़कने की भी बीमारी है।।

"आज उठी हूं थोड़ी देर के लिए। त्यौहार में न उठा जाए तो भी काम नहीं बनता। मगर देखो, जरा सा काम किया है पांव फूल आए।" वह धोती उठाकर पांव दिखाने लगीं।
वह चारपाई पर बैठ गया।

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