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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


तभी फिर मोटर का हार्न सुनाई दिया। मगर इस बार वह निश्चित बैठी रही। गाड़ी उसी के घर की थी। ड्राइवर ने गाड़ी पोर्टिको में लगा दी और दरवाजा खोल कर बाहर आ गया।

'हियां आओ रामऔतार।' उसने ड्राइवर को बुलाया।
ड्राइवर आ गया।
'उइ नहीं आए? तुम ही का भेजिन है?'
'जी।'
'रुपिऔ भेजवाइन है कुछ कि नहीं?'
'रुपये तो नहीं भिजवाए।'
'तो जाओ उनसे कही जाएके कि आठ सौ रुपिया कम से कम भेजें। औ नाईं तो खुदै आवै लइके रुपिया। औ हां, गद्दी पर को बइठ है?'
'मनीराम।'
'हम टेलीफून किया रहै तो मनीराम काट काहे दिहिन टेलीफून?'
'हमको नहीं मालूम।"
'अच्छा तो जाओ औ जल्दी ही लउट्यो। समझेव कि नाही?'
'जी।'
ड्राइवर गाड़ी लेकर वापस चला गया। तभी वह उठकर खड़ी हो गई। 'अभी आइत हैं, भाई साहब' उसने कहा, 'भवानी का देख आई जरा सोउती हैं अभी कि जाग तो नहीं गईं। इतना कहकर वह अपने कमरे में चली गई। दो-एक मिनट बाद ही वह बच्ची को गोद में लिए हुए वापस आ गई। पूर्ववत् मेरी बगल में बैठ कर बोली, 'यई भवानी आएं। कईस मऊज मां आंखीं बंद किए सो रही हैं। देखो भाई साहब।'

साफ कपड़े में लिपटी हुई उस नन्हीं बच्ची की ओर मैंने निहारा।

'दुआ देव भाई साहब ई का कि जब तक ई संसार मां रहै अइसे ही सुखी रहै अइसे ही मऊज की नींद सोवै हमेसा।'

इतने छोटे बच्चे को कैसे दुआ दी जाती है मुझे नहीं मालूम। फिर भी मैंने उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा, 'क्यों नहीं सुखी रहेगी। जिसकी मां आप जैसी लक्ष्मी हो उसकी बेटी कभी कष्ट नहीं उठा सकती।

तभी बच्ची ने आंखें खोल दीं। 'वाह भवानी! सब सुन रही हो।' उसने कहा और गोद में लिए-लिए ही उसका मुंह चूम लिया।

तभी वह जमादार सामने से निकला तो उसने उसे पुकारा 'ए जमादार!' जमादार रुक गया। 'बोहनी भई?' उसने पूछा। जमादार ने दांत निकाल दिए।

'रुको, अभी बोहनी कराइत है। उसने कहा और बच्ची को लेकर वापस अपने कमरे में चली गई। लौट कर आई तो उसके हाथ में कैनवस के कुछ थैले थे जिन पर उसके यहां बनने वाले मसालों का विज्ञापन छपा था। एक थैला और दो रुपये का एक नोट उसने जमादार की आरे बढ़ाते हुए कहा, 'लेव बोहनी करो।'

जमादार ने खुशी-खुशी थैला और नोट ले लिया।
'और सब जने कहां हैं?' उसने पूछा।
'वार्ड में होंगे।' जमादार ने उत्तर दिया।
'चलौ उनहू की बोहनी कराय दें।' उसने कहा और वार्ड की ओर जाने लगी। चलते-चलते मुड़कर मुझसे बोली, 'जाना नहीं भाई साहब, हम अब ही आइत है।'

मैं चुपचाप उसे जाते हुए देखता रहा।

थोड़ी ही देर में वह वापस आई तो उसके हाथ में एक भी थैला नहीं था। मेरे पास से गुजरते हुए उसने कहा, 'अभी एक मिनट में आइत हैं भाई साहब।' और दोबारा अपने कमरे में चली गई।

इस बार वह चमड़े का एक बहुत खबसरत ब्रीफकेस लेकर लौटी और उसे मुझे देते हुए बोली, 'ई आप रख लेव भाई साहब। मना न करना।' और बैग उसने मेरे हाथ में पकड़ा दिया।

'ई हम लाए रहे डाक्टर का देय की खातिर। मगर ऊका अब नहीं देंगे। डाक्टर काहे की पूरी डाकू है। उसने कहा। तब बोली, 'ई के अंदर भाई साहब एक कलम
और डायरी भी है। आप पढ़े-लिखे आदमी हो आपके काम आएगी। और हां, भाई साहब, कलेंडर भी छपे हैं हमरे हियां । अबकी बार बड़े अच्छे कलेंडर छपे हैं। अबै तक तो हेमा मालिनी और न जाने का का छपत रहै। अबकी हम मना कर दिया। हम कहा छपवावैक होय तो भगवान वाले कलेंडर छपुवाओ नाहीं तो रहै देव। राम-लछमन, शिव-पारबती और हां, तिरुपति जी का भी एक कलेंडर है। मढ़ावै वाले हैं सब । हम भूली गए नहीं तो रामऔतार से कह देते तो लेत आवत। आपका जरूरत होय तो आय के लइ जाना भाई साहब। हम बोल देबे। पता बैग पर छपा है।'

'बहुत-बहुत धन्यवाद।' मैंने कहा।

नर्स को आप्रेशन थियेटर में गए काफी देर हो चुकी थी। मुझे चिंता होने लगी। यद्यपि आप्रेशन बहुत मामूली था।

पता नहीं कैसे वह मेरी चिंता भांप गई। ‘आप भाई साहब, फिकर न करो। सब ठीक होइ जाएगा। देर तो लगती ही है।' तब एक क्षण रुक कर बोली, 'कित्ते बच्चे हैं आपके?'
'दो।' मैंने कहा, 'एक लड़का, एक लड़की।'
'आप, भाई साहब, बहुत भाग्यवान हो।' उसने कहा, 'मगर हमरी बात मानो आप। अब अपना आपरेसन कराए लेव आप। और एक बात और, भाई साहब।

अपनई कराना, घर में न कराना। औरत के आपरेसन मां बहुत परेशानी होत है। हमरे घर मां तो सब पढ़े के नाम पर ककहरा हैं। यही से हमरी सास उनका मना कइ दिहिन। हम कहा मना कई देव। हम ही कराए लेब अपन। जऊन होई तऊन भुगतब। उइ सोचती होइहैं कि हम मर जाई तो दूसर बिहाव कइ दें घर मां। सायद यही तना पोता का मुंह देखैक मिल जाए। मगर हम मरै वाली नहीं हन भाई साहब!'

तभी उसकी गाड़ी आ गई। उसका पति इस बार भी नहीं आया था। ड्राइवर ने वरांडे में आकर सौ-सौ के आठ नोट जेब के निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिए।

'लीजिए।' उसने कहा।

'हम का करबे?' उसने कहा, 'अपनेहे पास धरौ।' और अपने आंचल में बंधे हुए रुपये भी निकाल कर उसको देते हुए बोली, 'जाओ हुवै दफ्तर मां जमा कराय देव। कागज सब यही मां हैं। और हां, रसीद लै लिहो।'

ड्राइवर चला गया तो वह उठकर अंदर चली गई। थोड़ी देर में ही बच्ची को गोद में लिए हुए आई और उसी प्रकार मेरी बगल में बैठ गई।

'आपके साथ इत्ती देर टाइम कट गवा, भाई साहब। नहीं तो अकेले बइठे-बइठे बोर होएक पड़त।' उसने कहा, 'औ हमरे घर वालेन का देखो भाई साहब! सास, नदै सबै हैं हमरे घर मां। मगर कोउ हियां तक आय नहीं सकत। औ उनका का कही हम। उनका तो अपने धंधै से फुरसत नाई है।'

'आना तो चाहिए था किसी न किसी को।' मैंने कहा।

'कइसे आवै। बिटिया जो होइगै। लड़का होत तो सबै आवत। मगर भाई साहब, हम तो कहित है कि लड़का-लड़की मां का फरक है? हमरे लिए तो यहै लड़का है।' और वह बच्ची को गुदगुदा कर उससे खेलने लगी।

ड्राइवर बिल का भुगतान करके आ गया था। उसने उसे आदेश दिया, 'देखो कमरा मां सब सामान बंधा धरा है। ऊ का उठा के गाड़ी मा धर देव।

ड्राइवर सामान गाड़ी में रख चुका तो वह भी उठ कर खड़ी हो गई।

'अच्छा भाई साहब चलित है', उसने कहा, 'देखो शायद फिर कभी यही तरह भेंट है जाए।

मैं भी उठकर खड़ा हो गया और उसके साथ-साथ गाड़ी तक आ गया। ड्राइवर ने गाड़ी का दरवाजा खोला तो वह पीछे वाली सीट पर आराम से बैठ गई।

'अच्छा नमस्ते भाई साहब!' उसने कहा। भर्र की आवाज करती हुई गाड़ी गेट के बाहर निकल गई।

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