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कामतानाथ संकलित कहानियां

कामतानाथ

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6427
आईएसबीएन :978-81-237-5247

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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...


नर्सिंग होम में


उस अत्यंत गोरी, मध्य वय की किंचित स्थूल शरीर वाली महिला को मैं दो-तीन बार बगल वाले कमरे से निकलकर आफिस में जाते देख चुका था। परेशान नहीं तो कुछ बेचैन जरूर लग रही थी वह। तभी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई। मुझे लगा वह बेंच पर बैठना चाहती है। मैं एक ओर सरक गया। मगर वह वहीं खड़ी रही।

'भाई साहब, आपके पास एक अठन्नी तो नहीं होएगी?' उसने कहा।
मैं अपनी जेब टटोलने लगा।
'टेलीफून करना रहा। एक अठन्नी रही सो ऊ डब्बा मां डाल दिया। बात भी भयी मगर बीचै मा ही टेलीफून कट गवा।'
मेरी जेब में खुदरे थे। मगर अठन्नी एक भी नहीं थी। 'माफ कीजिएगा, अठन्नी तो नहीं है। रेजगारी हाथ में लिए हुए मैंने कहा।
इस बार वह बेंच पर बैठ गई। 'रहन दीजिए। उसने कहा, 'खदै आवेंगे। उनका भी तो चिंता होय का चही।
मैं चुप रहा। वैसे भी अपरिचित महिलाओं से बातचीत करने में मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है।
'आपका डिलेभरी केस है क्या?' उसने कहा और बेंच पर काफी आराम से हो गई।
'नहीं। मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
'आपरेसन होना है?'
मैं उसकी बात समझा नहीं।
'बच्चेदानी निकलवानी है?' उसने अपनी बात स्पष्ट की।
'नहीं। इस बार भी मैंने संक्षिप्त उत्तर ही दिया।
'फिर?'
'वैसे ही चेकअप करवाना था। मैंने टालना चाहा।
'खून ज्यादा आ रहा है क्या?'

'हां' मैंने कहा। जिस सहज ढंग से वह बात कर रही थी उसे देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा था। किसी भी प्रकार की कोई झिझक उसमें नहीं थी।
'हियां क्यों ले आए? सरकारी अस्पताल में दिखा देते।' उसने कहा।
'डॉ. रोहतगी को दिखाया था घर पर। उन्होंने ही यहां लाने को कहा था।' मैंने कहा।
'अरे हियां तो लूट है पूरी।' वह एक क्षण रुकी तब बोली, 'आपसे कित्ते रुपये की बात भयी थी?'
'तीन सौ की।'
'देखना पांच सौ से कम न लेहें। औ कही और ज्यादा ले लें।'

मेरे पास कुल चार, सवा चार सौ रुपये थे। मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा।

'हमसे बारह सौ की बात भयी थी। अब जानो का कहते हैं? पचास रुपिया रोज के हिसाब से दस दिन का कमरा का किरावा। चार सौ रुपिया आपरेसन ठेठर का किरावा । पच्चीस रुपिया सुई लगवाई। पचास रुपिया गुलूकोज चढ़वाई औ सत्तर रुपिया और न जाने काहे-काहे का बताय रहे हैं। अब बताओ भाई साहब, कमरा का किरावा चलो मान लिया, मगर ई अपरोसन ठेठर का किरावा काहे का? आपरेसन का सड़क पर होत है का? बारह सौ आपरेसन का लिए हो तो केरावा वहीं मां से देव। हमसे केरावा से का मतलब?'
मैं चुप रहा।
वह एक क्षण खामोश रही तब बोली, 'यही मारे घर मां फून करित रहै। मगर उइ गद्दी पर रहे नहीं। जब तक मुनीम बुलावै बुलावै तब तक टेलीफून कटिगा। हमरे पास चौदह-पंद्रह सौ हैं। अब उइ घर से रुपिया लाबैं तो हमका छुट्टी मिले। औ कहौ देर हे जाए तो एक दिन का केरावा और लइलें।'

'काहे का आप्रेशन था?'
'डिलेभरी केस रहा।'
'पहला बच्चा था क्या?'
'पहिला काहे का। सतवां। हम तो पहिले ते कहित रहै कि जब छः बिटिया भयी हैं तो को जानै यही विटियै होय। मगर उइ नहीं माने। औ उइ तो चाहे मानिउ जात मगर हमरी सास पीछे पड़ि गईं। कउनौ पंडित बताइन रहै उनका कि सतवां लड़का होई।'
'हुआ लड़का?' मैंने पूछा। मैं तय नहीं कर पर रहा था कि वह स्वयं अपने बच्चा होने की बात कर रही है या किसी और के।
'लड़का नाई तो सब भवा! फिर बिटिया होइगै। अरे जब लड़का होय वाले करम होएं तब तो लड़का होय। जमाने का तो तुम लूट रहे हो। लड़का कहां से होय! भगवानौ तो सब देखत हैं।'

उसके बारे में मेरी जिज्ञासा बराबर बढ़ती जा रही थी। लेकिन मुझे कुछ बोलना नहीं पड़ा।

'हम बताई भाई साहब आपका', उसने आगे कहा, 'हमरे घर मां बिटियै बिटिया हैं। छा नन्दै हैं हमरे। औ हमरी सासौ के छा नंदे रहीं। यही मारे उइ सोचती रहैं कि सतवां तो लड़का होइबै करी। हमरे घरौ मां यहै आस लगाए रहे। यही मारे हमहू भाई साहब कहा कि जउन तुमरे मन मा होय तउन कइ लेव। हमका का, पालै-पौसै का तो तुमही का पड़ी। औ सब किया हम, भाई साहब। हमरी सास कहिन सोमवार रहौ। सो हम सोमवार रहै लागेन। मगर हम कहा निरजला न रहब हम। फरहरी रहब। उइ कहिन फरहरी ही रहो। तो भाई साहब हम सोमवार रहेन साल भर । उड़ के बाद जब पेट आवा तो उइ बोलीं, रोज सवेरे गंगा नहाओ। हम कहा हम अकेले न जाब। तुम चलौ तो हमहू चली। उइ तैयार हे गईं। पोता का मुंह देखै की खातिर तो उइ कहौ गंगाजी मां बुड़ाए जाएं। सो भाई साहब, जाड़ा, गर्मी, बरसात बराबर हम गंगा नहायन। पूरे नौ महिना। सूरज निकरै से पहिलेहे हमरी सास चदिरिया ओढ़ के तैयार हे जाएं। हमरे घर मां कहिन मोटर लइ के जाओ। मगर हमरी सास कहिन पैदरै चलौ। हम कहा चलो। जब बुढ़ापा मां तुम पैदर चल लेहो तो का हम न चल लेबे? हियां आवै के एक दिन पहिले तक हम गंगा जी गए हन। मगर भाई साहब गंगाजी मां वा बात अब कहां रही! तमाम तो गंदगी ऊ मां गिरत है। औ फिर गंगा नहाय से लड़का होय लागै तो सबै न नहाय लें।

सहसा मोटर का हान सुनाई दिया तो वह उठकर खड़ी हो गई। मगर उसके घरवाले नहीं थे। कोई और ही था। वह वापस अपने स्थान पर बैठ गई।

'छिमा कियो भाई साहब', उसने आगे कहा, 'मरदन की तो कउनौ बात नहीं। उनका बच्चा पइदा करै मां का जात है? कहौ रोज पइदा करें। जान तो देय का पड़त हैं औरतन का। वह एक क्षण रुकी तब बोली, 'चौथी बिटिया के बाद से हम बराबर कह रहे हन कि हमार आपरेसन कराय देव। मगर उइ कहां माने वाले। चौथी बिटिया मां भाई साहब, बड़ी तकलीफ भयी हमका। ऊ का कहत हैं ऊ का, सेप्टिक होइगा रहै हमका। डाक्टर कहै लगी बच्चेदानी निकलवाय देव। मगर न हमरी सास राजी भयीं न हमरे घर मां राजी भे। जान का खतरा हेगा रहै हमका। मगर हम बचि गेन।' सहसा उसने इधर-उधर देखा तब बोली 'देखी कोउ और के पास अठन्नी होय तो एक बार फिर फून कइ लेई। ए जमादार हियां आओ।'

जमादार आ गया।
'तुमरे पास अठन्नी है एक?'
'कहां माईजी सबेरे से बोहनिही नहीं हुई।
'लेव इनकी सुनो। बोहनी नहीं भई इनकी। कउनौ दुकान खोले हौ का हियां?

हस्पताल मां नौकरी करत हौ कि बिजनिस?'

मैंने जेब से एक रुपये का नोट निकालकर जमादार की ओर बढ़ाते हुए कहा, 'जाओ बाहर से इसे तुड़ा लाओ।'

'रहै देव भाई साहब।' उसने कहा, 'खुदै आवत होइहैं। तुम जाओ अपन काम देखौ।' उसने जमादार को भगा दिया। बोली, 'आजकल भाई साहब रेजगारी की इत्ती किल्लत है कि पूछौ न। हमरे हियां तो बिजनिस होत है न। तउन बजार से रेज़गारी खरीद के आवत है। सौ के ऊपर पांच देव तो सौ की रेजगारी मिली। बताओ ई जमाना आएगा कि रेजगारी की दुकानै लागै लागी ई देस मां।

'किस चीज का बिजनेस होता है आपके यहां?' मैंने पूछा।

'ई पान का मसाला होत है न। हृदय सम्राट। वहै बनत है। हमरे ससुर की जरा सी दुकान रही कत्था-सुपारी की। मगर जब से हमार बिहाव भवा यू जान लेव भाई साहब कि घर मां लछमी आएगै। पइसा जइसे घर मां बरसै लाग। जाहे मां हाथ डार देव वहै मां पइसा। अब तो सब्जी औ मीट के मसाला का कारखाना भी लग गवा है। मगर हमरी नंदन के भाग मां गरिबिही लिखी है। लाखन रुपया दइ के बिहाव कीन जात है मगर सुसराल मां फिरौ तंगी। हमरी सास ई बात मां जब देखौ तब हमका ताना मरती हैं। हम कहित है मारौ ताना। हमका का करैक? हमरे भाग मां राज करैक लिखा है तो हम राज करब। तुमरे ताना मारै से का होई। तुमरिउ बिटिया ऐसी भागवाली होतीं तो जहां जातीं हुआं लछमी बरसतै। सब नदै हमरी, भाई साहब, खुद घर का काम करती हैं। औ हमरे हिंया? चार चार नौकर लाग हैं। मगर भाई साहब, एक बात बताई हम आपका। ई सब मसाला खाए का न चही। सब मां मिलावट होत है। चाहे सब्जी का मसाला होय औ चाहे पान का। मगर आजकल की औरतन का कहा जाए! पैकट मां बंद मसाला चही। घर मां पीसै मां जान निकरत है। हम तो उनसे साफ कहि दीन कि जब तक तुम ई मिलावट का धंधा करिहौ लड़का का मुंह न देखक मिली। औ अब तो ई धंधौ छोड़ दें तबह न मिली। अब की हम आपरेसन कराय दीन। हाँ, अब दूसर बिहाव करें तो भले लड़का होय चाहे बिटिया। हम से तो जउन मिलैक रहा तउन मिल चुका।'

'रुई का बंडल डिटाल वगैरह लाए हैं आप?' एक नर्स ने आकर मुझसे पूछा।

'जी।' मैं उठकर खड़ा हो गया और थैले से सारा सामान निकाल कर उसे दे दिया।

'चलते समय भाई साहब अपना सारा सामान वापस लइ लिहो।' नर्स चली गई तो उसने कहा। 'जरा-सा डिटाल कहूं लागी औ पूरी सी-सी धर लेहैं। औ रुई का कहूं पूरा बंडल लाग जाई? हम तो ई जानित है, भाई साहब कि ई सब सामान अइसेन धरा रही। पैक किया भवा। इधर मरीज गवा औ उधर सामान बजार मां पहुंचा।

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