कहानी संग्रह >> कामतानाथ संकलित कहानियां कामतानाथ संकलित कहानियांकामतानाथ
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आम जनजीवन से उठाई गई ये कहानियां कथाकार के रचना-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं तो दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं...
भय
"शायद कोई हमारे पीछे आ रहा है।" सोनपती ने मां से कहा।
दोनों स्त्रियों ने एकसाथ मुड़कर पीछे देखा। कुछ दूरी पर दो व्यक्ति आपस में
बातें करते उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। सामने सुनसान सड़क थी। पीपल के नीचे
वाले महादेव जी के मंदिर का दीया भी बुझ चुका था।
मां-बेटी में कोई बात नहीं हुई।
जगदेई को किस्सू बाबू की बहू की बात याद आ आई। “अंधेरे-उजाले बेटी को
हंसुली-हमेल पहनाकर लाती हो, डर नहीं लगता? सवेरे क्यों नहीं आ जातीं?"
चलते-चलते सोनपती के पांवों के कड़े एक-दूसरे से टकरा गए और एक झंकृत-सा स्वर
वीरान दिशाओं में दूर-दूर तक गूंज उठा।
जगदेई ने बेटी को कोहनी से हुला। "धोती नीचे कर ले, मरी। कड़ा टनटनाती चल रही
है। मेरी भी जान लेगी!"
दोनों व्यक्ति वैसे ही उनसे कुछ फासला रखे पीछे-पीछे चल रहे थे।
जगदेई ने बेटी का आंचल गले तक खींच दिया ताकि उसके गले में पड़ी चांदी की
हंसुली और मल्का विक्टोरिया छाप रुपयों वाली हमेल ढक जाए।
अभी कोई तीन-चार दिन हुए, सोनपती लौटी थी ससुराल से। ऊपर से नीचे तक चांदी के
गहनों से लदी हुई। हंसुली, हमेल, करधनी, कड़ा, बाजूबंद, सब मिलाकर कोई
तीन-चार सेर चांदी का बोझ उसके शरीर पर था।
सड़क की बत्तियां बुझी हुई थीं। वैसे समय अधिक न हुआ था। यही कोई दस के आसपास
रहा होगा। जाड़े के दिन, सबुह आंख देर से खुलती है, कुछ आलस्य भी होता है।
इसीलिए रमापत बाबू के घर से टहल करके लौटी तो जगदेई ने सोचा. किस्सू बाबू के
यहां भी निपटा आए। सुबह समय से आंख न खुली तो नागा हो जाएगा।
"करधनी कहां है?" चलते-चलते उसने बेटी की कमर टटोली तो उसका जी धक से रह गया।
"घर पर है।" सोपनती ने उत्तर दिया। करधनी कुछ ढीली थी और कमर
के नीचे खिसक-खिसक आती थी। इसीलिए उसे वह घर पर उतार आई थी।
मन-ही-मन जगदेई देवी मां से प्रार्थना करने लगी, 'हे दुर्गा माई, तुम्ही
रक्षा करो। बेटी के जेवर चले गए तो दुनिया को क्या मुंह दिखाऊंगी!'
कोई आध मील का रास्ता अभी तै करना था, बीच में क्रिस्तानों का पुराना
कब्रिस्तान पड़ता था। सड़क के दोनों ओर कोई दुकान भी न थी।
जगदेई ने कनखियों से पीछे देखा। दोनों व्यक्ति पहले की अपेक्षा कुछ निकट आ गए
थे। उनकी चाल ही से उसने अनुमान लगा लिया कि दोनों हट्टे-कट्टे जवान हैं। पर
कौन जाने, राहगीर ही हों! जगदेई ने मन को समझाने का प्रयत्न किया। बेटी का
हाथ अपने हाथ में लेकर उसने धीरे से दबा दिया। दोनों ने चाल धीमी कर दी ताकि
पीछेवाले व्यक्ति आगे निकल जाएं।
धीरे-धीरे दोनों के बीच का फासला कम होता गया। जगदेई ने बेटी को किनारे कर
लिया था। उसका हृदय तेजी से धड़क रहा था। दोनों व्यक्ति बराबर से निकले तो एक
चुभती हुई दृष्टि उन्होंने सोनपती के गठे हए सडौल, मांसल शरीर पर डाली।
सोनपती को शरीर में झुरझुरी-सी अनुभव होने लगी। हल्की-पीली चांदनी में उसके
चेहरे का रंग तपे हुए तांबे के समान चमक उठा। बड़ा संभाल-संभालकर उसे कदम
रखने पड़ रहे थे ताकि कड़े आपस में टकराने न पाएं।
कुछ दूर आगे जाकर दोनों व्यक्ति अंधेरे में खो गए। जगदेई की सांस अब भी वैसे
ही तेज-तेज चल रही थी। उसका हृदय भी तीव्रता से धड़क रहा था। हां, उसका भय
अवश्य कुछ कम हो गया था।
कोई चौथाई मील का रास्ता अभी शेष था। पहले यहां सब वीरान पड़ा था। अभी हाल
में महापालिका ने नई कालोनी बसाई है। सब बड़े-बड़े लोग रहते हैं मकानों ।
में। पैसेवाले। इनकी महरी-महराजिनों की तनख्वाहें भी बड़ी हैं। पैसे ही का तो
लोभ है, नहीं तो कौन इतनी दूर यहां मरे आकर? आए दिन चोरी-बदमाशी की वारदातें
होती रहती हैं।
जगदेई के मन में आया वापस लौट जाए। परंत वापसी का रास्ता तो और लंबा था।
सामने कालोनी की बत्तियां चमक रही थीं। एक बार वहां पहुंच जाए, फिर किसी बात
की चिंता नहीं। बेटी के जेवर उतरवाकर किस्सू बाबू की बहू के पास रखा देगी।
सुबह ले लेगी।
दोनों चुपचाप सुनसान सड़क पर चलती रहीं।
"पुलिया पर बैठे हैं दोनों।" सोनपती ने मां से कहा।
जगदेई ने देखा, वास्तव में दोनों नरसिंह की पलिया पर बैठे सिगरेट पी रहे थे।
कहीं गए न थे। इस बार तो मानो उसकी जान ही निकल गई। अब बचने का कोई उपाय
नहीं। यहीं मारकर नाले में डाल देंगे। लौटना तो और भी निरर्थक था। कालोनी बस
कुछ कदमों के फासले पर थी।
“देख, कुछ हुआ तो तू तो भागना। कालोनी के किसी भी घर में घुस जाना।" जगदेई ने
बेटी से कहा।
"हं!" सोनपती ने हंकारी भरी यद्यपि उसे कोई विशेष भय न लग रहा था। हां, एक
रोमांच की सी अनुभूति उसके मन को छाए थी। मल्का विक्टोरिया छापवाले रुपये
उसके शरीर की गोलाइयों का स्पर्श कर उसके शरीर में सिहरन सी पैदा कर रहे थे।
कुछ गर्मी भी उसे लगने लगी थी।
दोनों सड़क के जिस ओर वह बैठे थे, उसके दूसरे ओर आ गईं। जगदेई बार-बार मन में
देवी से मनौतियां मान रही थी। सोनपती को उसने अपनी आड़ में कर लिया था।
पुलिया पर पहुंची तो दोनों व्यक्तियों ने उन्हें घूरकर देखा। किसी ने कुछ कहा
भी जो जगदेई ठीक से सुन न सकी। उसका मन हुआ कि वह भागे परंतु उसके पैर ही न
उठ रहे थे। चुपचाप मन में भगवान का नाम दोहराती वह चलती रही।
किस्सू बाबू के घर पहुंची तो वह बुरी तरह डरी हुई थी। दरवाजे भिड़े थे। उसने
इतने जोर से धक्का दिया कि दरवाजे दीवार से जा टकराए। सब लोग चौंक पड़े।
"क्या हुआ जगदेई?" किस्सू बाबू की बहू ने पूछा।
"भगवान ने बचाया मालकिन आज।" जगदेई ने हांफते-हांफते सारी बात बताई।
किस्सू बाबू ने सुना तो हंसने लगे। “अरे राहगीर रहे होंगे। तुम वैसे ही बिला
वजह डर गईं," उन्होंने कहा। बाहर निकलकर कुछ दूर जाकर उन्होंने देखा भी परंतु
उन्हें कहीं कोई नजर नहीं आया।
किस्सू बाबू की बहू ने सलाह दी कि न हो तो दोनों मां-बेटी यहीं रह जाओ परंतु
जगदेई राजी न हुई। वह अपने दो छोटे बच्चों को घर पर छोड़ आई थी। हां, बेटी के
सारे जेवर उतरवाकर उसने किस्सू बाबू की बहू के पास रखा दिए। अपनी चांदी की
चूड़ियां भी रखा दीं।
चौका-टहल समाप्त करके जब दोनों बाहर निकलीं तो चांदनी कुछ और निखर आई थी।
कोलतार की नई सड़क और उसके किनारे लगे इक्का-दुक्का वृक्ष की शाखाओं पर
चांदनी का प्रकाश पिघलने-सा लगा था। पुलिया के निकट पहुंची तो उन्होंने देखा
कि दोनो उसी स्थान पर बैठे हैं।
"वही हैं।" सोनपती ने मां ने कहा।
"होंगे, तुझको क्या करना।" जगदेई ने उत्तर दिया।
और निकट पहुंची तो उन्होंने देखा, वास्तव में वही दोनों थे। परंतु इस बार
जगदेई को कोई हौलदिली नहीं हुई। वह चुपचाप चलती रही। पुलिया पार करके उसने
पीछे मुड़कर देखा। दोनों व्यक्ति वहां से उठ गए थे और उनके पीछे-पीछे आ
रहे थे। धीरे-धीरे उन दोनों के बीच फासला कम होता गया। पीछे चलनेवाले
व्यक्तियों में से एक ने कोई सस्ते किस्म का गाना शुरू कर दिया था।
बराबर से निकले तो फिर उन्होंने एक चुभती हई दृष्टि सोनपती के शरीर पर डाली।
"हरामी!" जगदेई ने मुंह-ही-मुंह में उन्हें गाली दी।
दोनों व्यक्ति आगे निकल गए और कुछ दूर चलकर सड़क के किनारे एक वृक्ष के नीचे
पड़े पत्थरों के ढेर पर बैठकर सिगरेट पीने लगे।
वहां खासा अंधेरा था। इसके बावजूद सोनपती को उनकी दृष्टि अपने शरीर में
गड़ती-सी लग रही थी। जेवर उतर जाने के पश्चात उसे अपना शरीर कुछ हल्का-सा लग
रहा था। सर्दी भी कुछ बढ़ गई थी और वह अपने हाथों से अपने शरीर को कसे हुए
थी।
"इधर ही देख रहे हैं दोनों।" उसने मां से कहा।
"तू अपना रास्ता चल चुपचाप।" जगदेई ने इस बार उसे झिड़क दिया।
जान-बूझकर वह इस बार उसी ओर से निकली जिस ओर वे दोनों बैठे थे। बगल से गुजरी
तो एक भद्दी गाली दी उसने उन्हें।
"नासपीटे! रास्ता चलना दूभर किए हैं।"
किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया।
काफी दूर जाकर जगदेई ने पीछे मुड़कर देखा। दोनों वहीं बैठे थे। अंधेरे में
उनकी सिगरेटें बार-बार चमक उठती थीं।
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