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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


वक्षस्थल के निकट एक ओर दमदमाते सोने के बटनों की कतार। चुन्नटदार बाँहों वाला महीन अद्धी का कुरता। फर्श पर लोटता हुआ मूँगे का काम किए हुए कांजीवरम् धोती का चुन्नटदार अग्रभाग। बालों के बीच माँग। और उन केश-कलाप और कला-कौशल से मिलता-जुलता उनका भौंरे जैसा रंग। पैरों में हिरन के चमड़े की चप्पलें, हाथ में बर्मी चुरुट। डनलपपिलो गद्दी वाले सोफे पर मखमल की मसनद। सामने कश्मीरी नक्काशीदार टी पॉय पर चाँदी की तश्तरी में मीठे पान की गिलौरी। ये हैं राजा अमियवल्लभ दत्त राय।
'राजा' खिताब को वे यत्न के साथ ढोते आ रहें हैं, इसकी घोषणा उनकी हवेली की नेमप्लेट कर रही है।
खिड़कियों पर लटके भारी परदों के टँगे रहने के कारण आधे अँधेरे कमरे में प्रवेश करते ही समझ में आ जाता है कि अमिय वल्लभ दत्त राय नामक व्यक्ति मध्ययुग के एक टुकड़े को आत्ममोह के माध्यम से पालते-पोसते आ रहे हैं।
अमिय वल्लभ के पिता ह्रदयवल्लभ की चौड़े फ्रेम में बँधी जो ऑयल पेंटिंग दीवार से सटकर खड़ी है, उसकी भी साज-सज्जा वैसी ही है। इस हवेली में एक लम्बे अरसे तक वास कर चुके हैं वे।

मार्लिन पार्क की यह हवेली ह्रदयवल्लभ ने ही असबाब समेत किसी अंग्रेज से खरीदी थी। उन्हीं जीर्ण सारो-समान से ही घर सजा हुआ है। नई साज-सच्चा के रूप में हैं डनलपपिलो का सोफासेट, फ्रिज, टी० वी० वगैरह।
यौवन-काल में विधुर हो जाने के बावजूद अमियवल्लभ ने दूसरी शादी नहीं की! एकमात्र कन्या शिशु मणिकुंतला को पाल-पोस कर योग्य बनाना ही उनका उद्देश्य था। पिता-पुत्री और बहुत सारे दास-दासी यही था घर-संसार का चेहरा। लड़की की शादी होने के बाद कुछेक दास-दासी हट गए हैं, सिर्फ दो-तीन आदमी रखकर काम चला रहे हैं। इसी प्रकार अमियवल्लभ संगीहीन हो गए हैं लेकिन यह तो लगभग बत्तीस-तैंतीस साल पहले की बात है। लेकिन बेहद शौकीन, खानदानी मिजाज के, राजा खितावधारी यह व्यक्ति पूरे तौर पर आत्मप्रेमी है और उसी प्रेम में डूबा रहता है, उसे देखने से ही इसका पता चल जाता है।
यह सब होने के बावजूद जवानी के दिनों में क्या कट्टर शुकदेव के क्रय किए गए व्यक्ति की नाईं ही बैठे रहे हैं? रसिक आदमी हैं। तरह-तरह के रसों के प्रति अभिरुचि है। संगीत-वाद्य, गायिका नर्तकी, सुर-सुरा-सब-कुछ के प्रति आसक्ति।
मणिकुंतला यद्यपि एकमात्र संतान है, परन्तु उसके यहाँ जाने पर रात के वक्त वहाँ नहीं रुकते हैं। मणिकुंतला के साथ भी यही बात है। पिता के घर आकर ठहरना मणिकुंतला के नियम के परे है; अलबत्ता हर रोज एक बार पिता-पुत्री में वार्तालाप होता है।
आज भी, अभी तुरन्त वार्तालाप समाप्त हुआ है। टूटू के लेक टाउन के मकान का काम खत्म हो चुका है, यह समाचार जानकर प्रसन्नमन एक छोटा-सा सुरापात्र लिये बैठे हुए हैं। अवंती ने कमरे में प्रवेश किया। लेकिन हाँ, हड़बड़ी के साथ नहीं, 'आ सकती हूँ?' कहकर।
अमियवल्लभ ने हाथ के पात्र को छिपाया नहीं, हाथ में थामे ही अतिशय उत्साह के साथ बोल उठे, ''अरे, आओ-आओ, रानी साहिबा।''
अवंती आकर बैठ जाती है (प्रणाम पसन्द नहीं करते अमिय वल्लभ) और हँसकर कहती है, ''असमय आ गई हूँ?''
अमियवल्लभ बोले, ''छि:-छि:, रानी साहिबा! यह भी बात में कोई बात है? जब भी तुम्हारे चरणों की धूल यहाँ गिरेगी, वही सुसमय होगा। मगर एकाएक इस बन्दे को यह सौभाग्य क्यों प्राप्त हुआ?''

अवंती हाथ का बैग गोद पर रख चट से बोल पड़ी, ''अच्छा नानाजी, यह सौभाग्य यदि चिरस्थायी हो जाए तो? आप राजी हैं?''
अमियवल्लभ ने अब सुरा-पात्र को हाथ से नीचे उतार, पान की गिलौरी की तश्तरी के पास रख दिया, तनकर बैठते हुए बोले, ''क्या बात है, महारानी?''
''कह रही हूँ-मैं अगर आपके यहाँ रहना चाहूँ तो आप रहने दीजिएगा?''
''अरे, यह कितना भयानक प्रश्न है! कृतार्थ होने और स्वयं को धन्य समझने जैसी बात है। मगर...''

अमियवल्लभ तनिक और सीधे होकर बैठ गए। बोले, ''सच बात खोलकर बताओ न! मामला क्या है? उस बुद्धू गँवार से प्रणय- कलह? इसी वजह से उसे जरा टाइट करने की जिद्द? तुम यहाँ दो- दिन छिपकर बैठी रहोगी तो वह साला खोज-खोजकर परेशान हो उठेगा-यही इरादा है न?''

अमिय वल्लभ हो-हो कर हँस पड़े। गोराचेहरा टहटह लाल हो गया।
अवंती ने कहा, ''वह सब बचपना करने का शौक नहीं है, नानाजी। अब कोप-भवन का युग भी नहीं रहा। मान लीजिए, जितने दिनों तक किसी नौकरी का जुगाड़ न कर पाती हूँ, यहीं रह जाऊँगी। आपके शतरंज खेलने की संगिनी बनकर रहूँगी, कविता पढ़कर सुनाऊँगी।''
ये दो वस्तुएँ अमियवल्लभ को विशेष तौर पर प्रिय हैं। प्रसन्न होकर बोले, ''अहा हा! सुनकर बड़ा ही लोभ हो रहा है, महारानी। मगर कोहेनूर हीरा रख सकूँ ऐसी सामर्थ्य कहाँ है? जगह ही कहाँ है?''
''कोहनूर हीरा! फिजूल की बातें नहीं कीजिए। रखने की जगह की कमी है? आपके पास इतना बड़ा मकान है। सिर्फ एक ही आदमी रहता है।''
अमियवल्लभ ने मीठी मुसकान के साथ कहा, ''असुविधा इसी बात की है रानी साहिबा। मैं एक विधुर आदमी हूँ, घर-संसार में कोई दूसरा लड़का या लड़की नहीं है। और तुम एक खूबसूरत तरुणी हो...''*
''नाना जी, आपकी उम्र कितनी हो चुकी है?'' अवंती ने ठनकती आवाज में कहा। अमियवल्लभ ने सिर झटकते हुए कहा, ''उम्र के बारे में मत पूछो, महारानी, मत पूछो। धोखा खा जाओगी।''  ''तो फिर आपको यंगमैन कहना होगा?''
''सो न भी कह सकती हो, मगर बूढ़ा मत कहो। यही तो इस तरह का एक लुभावना प्रस्ताव सुनकर छाती में सिहरन हो रही है। लेकिन प्रचेष्टा स्वीकार करने का साहस नहीं हो रहा है।
साहस नहीं है!
अवंती के लाल चेहरे पर अँधेरा पुत गया, ''उफ़ नाना जी! अब भी आपको लोकनिन्दा का भय होता है? छि:-छि:!''
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*बंगाल में नाना और नाती-नातिनी या नाना और दोहित्र वधू के बीच हँसी-मजाक चलता है।

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