नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में चैत की दोपहर मेंआशापूर्णा देवी
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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...
करुणा के पात्र! तो भी उनके छोटे-से घर-संसार के प्रति अरण्य नामक यह भगोड़ा
क्यों इतना कशिश महसूस करता है? उन लोगों के बेवकूफी भरे प्रेम, उन लोगों के
एक उल्लेखन करने योग्य शोक के लिए शोक मानने और एक-दूसरे के प्रति सहानुभूति
प्रकट करने का क्रियाकलाप अरण्य को मानो अपनी ओर खींचता रहता है। यही वजह है
कि वह जब तब उन लोगों के पास पहुँच जाता है। लेकिन अवंती? वह भी यदा-कदा
श्यामल और लतिका के समीप जाकर खड़ा हो जाती है। वह भी क्या प्रेम से पूर्ण उस
छोटे-से घर-संसार को देखने के खयाल से ही?
नहीं-नहीं, अवंती उन लोगों के पास कर्तव्य निबाहने के खयाल से जाती है।
मिसेज़ घोष से मनमुटाव होने के तीन-चार दिन बाद ही लतिका चली आयी है। अवंती को
देखती है तो 'दीदी-दीदी' कहकर उसे कसकर पकड़ लेती है, ''आपके आने से कलेजे में
नई ताकत पैदा हो जाती है, दीदी! आप जब तक रहती हैं, कितने सुकून का अहसास
होता है!''
श्यामल भी कहता है, ''सचमुच अवंती, इतने दिनों के बाद तुमसे मुलाकात हो जाएगी
और इस तरह तुम आत्मीया जैसी हो जाओगी, ऐसा कभी नहीं सोचा था।''
श्यामल की माँ अवंती को पाकर स्वयं को धन्य महसूस करती है। बड़े आदमी की पत्नी
खुद गाड़ी चलाकर आती है पर कितनी निरहंकार है! कितना सहज हाव-भाव है! ऐसी औरत
को देखकर स्नेह से विगलित क्यों नहीं होगी!
लेकिन अरण्य? अरण्य एक रहस्य है।
अरण्य ठीक उसके विपरीत है।
वजह-बेवजह, या शायद 'कारण' खड़ा कर अरण्य अवंती पर व्यंग्य कसता है, विद्रूप
करता है, उसे तीखी बातें सुनाता है और श्यामल के प्रति उसकी जो सहानुभूति या
प्रेम है, उसे बड़े आदमी की पत्नी के महिमा-विकास की एक सूक्ष्म कला के नाम से
अभिहित करता है।
मानो, अवंती पर चोट करने में सक्षम हो पाना ही उसके लिए अर्थपूर्ण है।
हालाँकि एक ही जगह बे दोनों बार-बार आते-जाते रहते हैं। एकाएक भेंट-मुलाकात
भी हो जाती है।
यह क्या अरण्य के अवचेतन में है? या वह जान-सुनकर ऐसा करता है?
कौन जाने, जान-सुनकर करता है या नहीं। शायद अरण्य के श्यामल के घर में
बार-बार आने को (जो व्यक्ति मित्रों के लिए दुर्लभ वस्तु है) श्यामल यदि और
ही कुछ समझे तो उसके संदेह पर कुठारा-घात करना ही क्या उसका उद्देश्य है?
या ऐसा उसके अवचेतन में है?
अरण्य की प्राप्य वस्तु एक 'बड़े आदमी' पर दखल जमाए बैठी है, इसी की जलन है
क्या?
या फिर प्रतिपक्ष होने पर बातें करने का बहुत मौका मिलता है, इसलिए?
कारण चाहे जो भी हो, लेकिन लगता है अवंती पर निगाह जाते ही अरण्य के अन्दर आग
की एक लपट दहक उठती है।
और जुबान धारदार हो जाती है।
अवंती यदि कहती है, ''तुम इस वक्त? दफ्तर नहीं है?'' तो अरण्य कहता है,
''दफ्तर' नहीं है, यह बात श्यामल जानता है। चालाकी करके न जानने से काम चल
सकता था।''
अवंती का चेहरा लाल हो जाता है। कहती है, ''इतनी घटिया बातों की तालीम कहाँ
ली?''
अरण्य का तत्काल उत्तर ''घटिया लोग ही घटिया बातें जानते हैं। तालीम लेने की
जरूरत नहीं पड़ती।''
श्यामल तत्क्षण कहता है, ''चुप रहो। इसको मिलाकर कितनी बार नौकरी की और कितनी
बार छोड़ी, इसका हिसाब किया है?''
''जीवन में और कोई विलासिता करने का सुयोग नहीं है। बस, वही एक विलासिता है।
बॉस के चेहरे पर उपेक्षा के साथ रेजिगनेशन लेटर फेंककर चले आने से बढ़कर
आमोद-प्रमोद क्या हो सकता है? अवंती कुछ न कहती हो, ऐसी बात नहीं। कहती है,
''जिन लोगों को असाधारण बनने की इच्छा रहती है मगर उनके अन्दर वह सामर्थ्य
नहीं होती, वे ही 'अस्वाभाविक' होकर यातना की पड़ताल करते हैं।''
अरण्य से चेहरे पर धारदार हँसी उभर आती है। कहता है, ''ऊँचे तबके के लोग
सोचते हैं, जिसको जो मर्जी हो कहने का हमें अधिकार है। कह, श्यामल, सही बात
है न?''
लतिका इस तरह की बेसिर-पैर की बातों से बहुत डरती है। तुरन्त कहती है,
''थोड़ी-सी चाय बनाकर ले आऊँ आप लोगों के लिए?'
अवंती कहती है, ''न। कितनी! गरमी है! चाय-वाय नहीं चलेगी।''
अरण्य चट से कहता है, ''मैं पिऊगा। गरीबों को इतनी गरमी नहीं लगती। दूसरे के
पैसे से जो कुछ मिल जाए, फायदा ही है।''
लेकिन आश्चर्य की बात है, जिस दिन आने पर अरण्य देखता है कि अवंती नहीं आयी
है, या नहीं आयी थी, अरण्य कहता है, ''चाय रहने दो। बहुत बार पी चुका हूँ।
चलता हूँ। जरा काम है।'' अवंती यह सब अपमान सहने के बावजूद क्यों आती है? यह
भी तो एक रहस्य ही है। सचमुच क्या उस लतिका नामक बेवकूफ औरत से दीदी सुनने के
लिए? यही व्याकुलता क्या अवंती को इस तरह के दुर्निवार बेग से खींचती है?
लेकिन एक तरफ के धागे को खींचने से दूसरी तरफ का हिस्सा टूटेगा ही।
बूढ़ा सनातन कहता है, ''मैं नौकर-चाकर हूँ। कहना शोभा नहीं देता। फिर भी आपके
भले के लिए ही कह रहा हूँ, 'आप दोस्त-मित्रों के यहाँ आना-जाना छोड़ दें,
क्योंकि मुन्ना बाबू को यह सब तनिक भी नहीं सुहाता।''
अवंती गंभीर ही जाती है। कहती है, ''तुझसे यह बात किसने कही, सनातन-दा?''
''यह कैसे समझाया जा सकता है, भाभी जी? भले ही मूरख हूँ पर भगवान के द्बारा
दी गई ज्ञान-बुद्धि है। हमेशा क्या दूसरे की भलाई की जा सकती है? दूसरे की
भलाई करने के लिए जाने पर अगर अपनी बुराई हो तो यह क्या कोई देखने आता है?''
अवंती क्या सनातन की इस धृष्टता पर क्रोधित हो उठती है? नहीं, नहीं होती है।
अवंती जानती है, सनातन उन लोगों को सचमुच ही प्यार करता है इसलिए...
अवंती कहती है, ''भलाई करने की बात रहे'' सनातन-दा, आदमी के किसी दोस्त-मित्र
का घर नहीं हो सकता है क्या?
सनातन अभिभावक के लहजे में कहता है, ''इससे यदि घर में अशांति फैले तो न रहना
ही बेहतर है। कोई क्या छाता लेकर आएगा और आँधी-पानी से बचाएगा?''
चाहे जो भी हो, आखिर है तो नौकर ही, इसीलिए बरदाश्त नहीं किया जा सकता। तो भी
देखने को मिलता है, ऐसे में अवंती एकाएक कहकहा लगाकर कहती है, ''वाह,
सनातन-दा, तुमने आज-कल इतनी सीख देना सीख लिया है कि क्या कहा जाए! पाठशाला
में मास्टरी करने जाओ तो अच्छा रहे।''
हाँ, इसी तरह हँसकर अवंती अपने नौकर का उपदेश अनदेखा कर जाती है। लेकिन नौकर
के मालिक की बारी आने पर? क्यों उसकी मामूली बात से ही मन में फफोले उभर आते
हैं?
टूटू मित्तिर कहता है, ''यह एक अच्छा तरीका खोज निकाला है। दोस्त की पत्नी,
दोस्त की माँ। मैं कहूँ, यह बहानेबाजी है। और भी दसियों जिगरी दोस्त जमा होकर
अड्डेबाजी को गुलजार करते रहते हैं।''
अवंती बेपरवाही के लहजे में कहती है, ''मर्जी हो तो कह सकते हो। बात पर कोई
टैक्स नहीं देना पड़ता।''
''मेरा कहना है, यह सब नहीं चलेगा।''
''मैं भी तुम्हें स्मरण दिला देती हूँ कि यह हराम का जमाना नहीं है।''
ऐसा जब-तब होता रहता है।
अत: मानना ही पड़ेगा कि आकाश स्वच्छ नीला नहीं है, ईशान कोने में बादल मँडरा
रहे हैं। उनका रंग क्रमश: गहरा होता जा रहा है। आंधी आने के आसार है।
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