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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


लेकिन शरत मित्तिर की चेष्टा कामयाब नहीं हो सकी। ऐसी बात नहीं कि टूटू और उसकी माता इसकी वजह से सहानुभूति से द्रवित हो उठे। गत कल पैदा हुए बच्चे के मरने का शोक तो हास्यकर ही है। और उससे भी बढ़कर हास्यकर है उस शोक में सांत्वना देने के खयाल वे जाना।
फिर भी अवंती का हड़वड़ाकर आना लाभदायक साबित हुआ। पत्नी को न ला पाने की वजह से टूटू को माँ से जो इतनी खरी-खोटी सुननी पड़ रही थी, वह और भी तीव्रतर होने के वजाय कम हो गई।
खाने की मेज की शक्ल और-और रविवारोंकी तरह ही थी। टूटू मित्तिर कृतज्ञता से द्रवित हो उठा, जब अवंती ने कहा, ''अच्छा माँ, बेसनी का व्यंजन कैसे तैयार किया जाता है, जरा बता दीजिएगा तो। बहुत ही उम्दा चीज़ होती है। मछली वगैरह के प्रिप्रेशन से बेहतर।''
अलवत्ता मणिकुंतला तत्काल सिखाने को राजी नहीं हुई। बोलीं, ''वह वैसी कोई बड़ी बात नहीं है। तुम तो अंग्रेजी रसोई पकाने की पुस्तक से कितनी ही अच्छी-अच्छी चीज़ें बनाने की विधि सीखकर बैठी हुई हो।''
''पाक कला की पुस्तक पढ़ने से कुछ भी नहीं होता।''
अवंती को सहेजकर बातें करने में क्या बहुत तकलीफ का अहसास नहीं हो रहा था? बहुत ही बुरा नहीं लग रहा था क्या? फिर भी परिस्थिति को सहज बनाने के लिए ऐसा बोलना ही पड़ता है। बोलती भी है।
आज भी बोली। इससे टूटू की जान में जान आई।
टूटू ने सोचा, मेरा सवेरे का वर्ताव ठीक नहीं था। रुपए-पैसे की बात न करना ही बेहतर रहता। वहरहाल, परिस्थिति को संभाल लेना होगा।
लिहाजा और-और रविवारों की तरह ही यह रविवार भी गुजरा। रात का खाना खाने के बाद जिस तरह दोनों जने कुछ खाने की सामग्री लेकर साथ-साथ लौटते हैं, वैसे ही लौट आए।
सिर्फ दो गाड़ियों के चलते ही थोड़ी-बहुत असुविधा हो रही थी। दोनों जने क्या अलग-अलग गाड़ी में वापस आएँगे!
रविवार को ड्राइवर को छुट्टी देनी पड़ती है, इसलिए टूटू की गाड़ी वह खुद ही चलाकर आया है। अवंती के साथ भी यही बात है।
इन्तजाम कर दिया शरत मित्तिर ने। बोले, ''एक काम कर टूटू, तू बहूरानी की लाल गाड़ी में चला जा और अपनी यही रख जा। मैं कल उसी से दफ्तर जाऊँगा। वहाँ से तू वापस ले आना।''

मणिकुंतला बेशक शुरू से अन्त तक अपने आपमें डूबी रहीं। जाने के दॉरान बहू ने प्रणाम किया, उसे मात्र 'रहने दो' कहकर बेटे की ओर ताकते हुए बोली, ''टेलीफोन का प्रबंध अब बिलकुल ठीक कर लो टूटू, रिश्वत नहीं दोगे, इस तरह का वहम इस जमाने में चल नही सकता।

आज भी रात गहराने पर गाड़ी चलाती आ रही है अवंती। आज भी उसकी बगल में मर्द बैठा हुआ है। लेकिन कोई दूसरा मर्द नहीं, बल्कि पति ही है। इसलिए इस फर्र-फर्र चलती हवा में अब उन्माद नहीं है और न एक भय को जीतने के बेपरवाह भाव का स्वाद।...यह है एक निश्चिन्त स्वस्ति की वायु में अपने शरीर को निढाल छोड़ आगे बढ़ने का स्वाद। इस स्वस्ति की निश्चिन्तता और निर्भय शांति को खरीदने के लिए कितनी कीमत चुकाने से काम बन सकता है, उसी का हिसाब करने अवंती बैठेगी? या फिर स्वयं को हवा की लहरों पर बहने देगी?
इसीलिए तो वायु की लहरों पर तैरती अवंती से कहना पड़ा, ''क्या हो रहा है? वगैर कोई एक्सिडेंट किए नहीं मानोगी?''
कहना पड़ा, ''अच्छा, मैं क्या भाग रहा हूँ? पिंजरे में ही तो घुसने जा रहा हूँ।''
आकाश स्वच्छ नीला।
मेघ का कहीं कोई नामोनिशान नहीं।
सड़क आहिस्ता-आहिस्ता जनशून्य होती जा रही है। गाड़ी की रफ्तार तेज होती जा रही है।
एक ही तो 'जीवन' होता है, यह बात मान ली थी मैंने। अवंती ने सोचा, और तालमेल भी बिठा लिया था मैंने। तालमेल रखते हुए चल भी रही थी। फिर? फिर क्यों एकाएक यह जीवन स्वादहीन, अर्थहीन लगने लगा? क्यों एक रूखे चेहरे के अशिष्ट बातचीत करने वाले अभागे व्यक्ति के लिए बेचैनी का अहसास होता
है? यह क्या शुभ है? मैं क्या इस बेचैनी को ठहरने-टिकने दूँ। स्वच्छ नीले आकाश की कामना कर मेघ को क्यों बुला लाऊँ?
अकारण ही स्टीयरिंग को मजबूती से पकड़ लेती है अवंती!
टूटू मित्तिर अब शुरू के आनन्द की छटपटाहट रोककर झपकियाँ ले रहा है। भरे पेट के भार से दबे शरीर में इस मादकता से भरी वायु के स्पर्श से नींद आ जाना स्वाभाविक है। हाव-भाव है उद्वेगहीन निश्चिन्तता का। जानता है, गाड़ी का स्टीयरिंग उसके सबसे अधिक विश्वसनीय व्यक्ति के हाथ में है।
अवंती ने उसकी ओर देखते हुए सोचा, यदि इसी तरह सोते हुए यह व्यक्ति रात बिता दे तो!
पर ऐसा करेगा क्या?
नींद का अवशेष समाप्त होते ही दुर्दमनीय हो उठेगा। नींद टूटने के बाद जगे हुए पशु की क्षुधा भयंकर होती है।

इरा बोली, ''आजकल तुम्हें क्या हो गया है, छोटे साहब। हमेशा बेचैन जैसा हाव-भाव रहता है।''

अरण्य ने कहा, ''इसके पहले क्या मैं बिलकुल निश्चिन्त जैसा लगता था?''
''बेशक नहीं। लेकिन आजकल और ही तरह के लगते हो। प्रेम-वेम के चक्कर में! तो नहीं पड़ गए? ऐसी बात है तो बता दो।''
अरण्य इस बेवकूफ औरत को चिढ़ाने के खयाल से बोल उठा, ''कुछ कर सकोगी?''
''ओह, तो फिर स्वीकार कर रहे हो?''
''न करने से कोई लाभ नहीं है। तुमने तो सही अंदाज लगा ही लिया है। लेकिन करोगी क्या?''
''ठीक है। देख लेना, कर सकती हूँ या नहीं...''
इरा बड़े ही उत्साह के साथ कहती है, ''तुम सिर्फ लड़की का नाम-धाम और उसके पिता या बड़े भाई का नाम बता दो।''
''बाप और बड़े भाई का नाम जानने से क्या होगा? उन लोगों की हिफाजत में नहीं रहती है।''

''फिर? मामा के घर में पली-बढ़ी है? तो फिर उस मामा का ही नाम-धाम...''
''मामा के घर में पली है या नहीं, मालूम नहीं। मामा है या नहीं, यह भी नहीं जानता। रहती है पति के घर में।''
''आय!''
इरा ने गुस्सा कर कहा, ''मजाक कर रहे हो?''
''यह मजाक कतई नहीं है इरावती, सोलहो आना सच है। और योग्य से योग्य पति और अच्छा से अच्छा मकान है।''
''बाप रे! अन्ततः एक शादीशुदा औरत के इश्क में फँस गए? धत्त!''
''क्यों, शादी-शुदा औरत के प्रेम पड़ना क्या अनुचित है?
इरा ने कहा, ''फिजूल की बातें मत करो। तुमने मेरा मूड बिगाड़ दिया। अनुचित नहीं है? 'उचित' कैसे है? सोचने पर भी खराब लगता है। वह औरत भी क्या तुम्हें...''
''वह औरत 'मुझे' क्या, यह नहीं जानता, मैं भी उस औरत को ठीक से नहीं जानता, समझीं? समझने की कोशिश कर रहा हूँ। किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सका हूँ।''
इरा चिल्लाकर कहती है, ''यह सब तुम्हारी चालबाजी है। मुझे बेवकूफ बना रहे हो?''
''प्रेम में पड़ने की बात समझने में काफी मेहनत-मशक्कत की जरूरत पड़ती है?''
''नहीं पड़ती है?''
''बिलकुल नहीं। एक बार आँखों की ओर ताकने पर ही समझ में आ जाता है।''
''समझ में आ जाता है?'' यही कह रही हो?
''हाँ। प्रेम की आँखें ही अलग किस्म की होती हैं।''
अरण्य ने कहा, ''अच्छा इरावती, तुम कभी प्रेम-वेम के चक्कर में पड़ी हो, ऐसा तो नहीं लगता, फिर यह सब रहस्य कैसे समझीं?''
इरावती ने सिर हिलाकर मुसकराते हुए कहा, ''किसने कहा कि नहीं पड़ी हूँ?''
''अयँ! पड़ी हो? कब, किस समय, कहाँ?''
इरा ने उसी प्रकार हँसते हुए कहा, ''शादी के लग्न के समय मंडप के तले।''
''होपलेस! यह तुम्हरी प्रेम में पड़ने की हिस्ट्री है? छि:-छिः!''
इरा गम्भीरता के साथ कहती है, ''क्यों जनाव, छि-छि: किसलिए? प्रेम में पड़ने के लिए जरूरत पड़ती है एक लड़के और एक लड़की की। है या नहीं? दोनों का सामीप्य, एक से दूसरे की आँखें मिलना, एक-दूसरे का हाथ पकड़ना-इसी से तो शुरुआत होती है। उसके बाद पौधा वृक्ष में परिणत हो जाता है। तो-ब्याह का स्पर्श लगने से ही क्या अशुद्ध हो जाता है, यह सिर्फ तुम लोगों का वहम है। यह सच है या झूठ, नहीं जानती, एक पराई स्त्री से प्रेम करने से कौन-सा लाभ हो सकता है? उसके सामने भी मुसीबत है और तुम्हारे सामने भी। सुख नहीं, तृप्ति नहीं। अपने भैया को देखो। रात-दिन सुख के सागर में तैर रहा है।''
इरा का यह कथन बेशक कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अरण्य को भी लगता है, भैया रात-दिन सुख के सागर में तैर रहा है। देख-देखकर आश्चर्य भी होता है कि किस सुख से भैया का सुखी जैसा चेहरा है।... 'उसके बाद करुणा भी जगती है। सोचता है, यह अबोध व्यक्ति का सुख है। जो बेवकूफ होते हैं वे ही सुखी हो पाते हैं। दो बेवकूफ मिलकर एक हो गए हैं न! महाभारत की उस कहानी की तरह कि तंडुलोदक पीकर खुश हो जाता है कि दूध पिया है।...लेकिन यह कैसे कहूँ-श्यामल को भी तो देखा हुऐ, पत्नी के लिए वह जी सकता है और मर भी सकता है। पत्नी भी तो पति को पाकर स्वयं को धन्य समझती है। फिर! हानि कहाँ है?
यह सोच उसे हँसने को विवश कर देता है।
दुनिया में शायद ऐसे ही लोगों की तादाद ज्यादा है-करुणा के इन पात्रों की। फिर भी ये करुणा के पात्र ही हैं।

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