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नारी विमर्श >> चैत की दोपहर में

चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


सनातन तमतमाया हुआ चेहरा लिये गेट के सामने खड़ा था।
अवंती पर नजर पड़ने पर गेट खोल, हटकर खड़ा हो गया। इस वक्त अवंती ने इस मकान को गौर से देखा। सड़क पर खड़ी हो, चेहरा उठाकर किसी दिन नहीं देखा था। मचान बना हुआ मकान बिलकुल श्रीहीन जैसा लगा। यह सोचने में बुरा लगा कि अवंती को अभी उसके अन्दर घुसना होगा।

नौकर का चेहरा जब इतना लटका हुआ है तो गृहस्वामी का कितना हो सकता है! लेकिन गृहस्वामी अभी अपने कार्यस्थल में हैं।
सनातन ने गम्भीरता के साथ कहा, ''कल से आपका इतना कौन-सा काम वढ़ गया है कि आप ही जानती हैं, भाभी जी। आज रविवार है, इसका भी खयाल नहीं है आपको।''
रविवार!
अवंती के सिर से पैर तक सिहरन की एक लहर दौड़ गई-भय, लज्जा और अपराध-बोध की।
बालीगंज की मणिकुंतला देवी के मकान की शक्ल आँखों के सामने तैरे उठी। इतनी वेला हो गई और उनके पुत्र और बहू पहुँचे नहीं हैं।
सवेरे के नाश्ते का आयोजन तो बेकार चला गया, अब लंच का भी समय हो गया।
भय पर हाबी होकर बोली, ''तुम्हारे मुन्ना भैया जी तो बहुत ही गुस्से में होंगे?''
''मुन्ना-दा बाबू? वे तो बहुत पहले ही जा चुके हैं।''
''जा चुके हैं?''
अवंती के कलेजे पर से भय का प्रस्तरखंड हट गया या फिर कोई नया प्रस्तरखंड आकर सवार हो गया?
तो भी मर्यादा का पालन तो करना ही होगा।
इसीलिए अवंती को अत्यन्त सहज स्वर में कहना पड़ा, ''खैर, यह एक बड़ी बुद्धिमानी का काम किया है तुम्हारे मुन्ना भैया ने, सनातन-दा। मैं भी नहा-धोकर तुरन्त चली जाऊँगी!''
''सवेरे तो आप नाश्ता खा नहीं सकी थीं। जहाँ गई थीं, वहाँ चाय भी नसीब हुई थी? चेहरे पर तो...''
अवंती ने सूखी हँसी हंसते हुए कहा, ''जहाँ मैं गई थी, वहां चाय मिलने की उम्मीद नहीं थी, सनातन-दा। मैं अस्पताल गई थी।''
''अस्पताल!''
''हाँ, सनातन-दा। एक मित्र को बच्चा हुआ था, मर गया।''
सनातन दोनों हाथों से अपने कान पकड़ बोल उठा, ''मुझे क्षमा कर दें, भाभी जी! क्षमा कर दें-। थोड़ी-सी चाय पीने के बाद ही नहाने जाइए।
''नहीं सनातन-दा, इतना वेला में अब...''
अवंती ने सोचा, दुनिया के तमाम लोगों को 'साला' कहने की इच्छा होने से काम चलेगा अरण्य?...ये लोग भी तो हैं। हो सकता है, इन्हीं लोगों की संख्या अधिक हो।
बालीगंज के उस मकान में यदि मणिकुंतला देवी होंगी तो शरत मित्तिर भी होंगे।
घर के अन्दर घुसने के पश्चात् अब बाँस के मचान पर नजर नहीं पड़ रही है। पंखा खोल अवंती ठण्डे मनोरम चित्र जैसे कमरे में बैठ गई है। अरण्य का रुक्ष, उद्धत चेहरा यहाँ स्पष्ट दिखाई नहीं पड़ रहा है।
गहरे लाल रंग की गाड़ी भागती हुई आ रही है।
दोमंजिले के बरामदे से शरत मित्तिर ने देखा। चट से अन्दर घुस उल्लास भरे स्वर में बोले, ''मणि, बहूरानी आ गई।''
मणिकुंतला के हाथ में हमेशा बुनाई का कोई-न-कोई काम रहता है। बेकार आदमी की तरह कांटा या क्रूश से-कुछ बुनती रहती हैं। जाड़ा, गरमी, वसंत, शरत हर ऋतु में। तरह-तरह के नम्बरों के आसन विलायती क्रूशों का ढेर उनके बक्से में मौजूद रहता है। ऊन बुनाई का काम खत्म हो चुका है, अभी पतले धागे से लेस बुनने का काम चल रहा है।
बुनाई से आँख उठाए बगैर वोली, ''आ गई हैं, मेरा धन्य भाग्य! क्या करना होगा? नाचूं?''
शरत का उत्साह ठण्डा पड़ गया। बोले, ''नहीं; कहने का मतलब है और थोडी देर पहले आ जाती तो खाने के लिए बैठ जा सकते थे।
''उससे क्या होता? महाभारत अशुद्ध हो जाता?''
शरत का उत्साह और बुझ गया। उल्लसित चित्त से तत्क्षण नीचे उतरने का साहस नहीं हुआ। खरामा-खरामा सीढ़ियों की तरफ बढ़ गए।
और उसके बाद ही शरत मित्तिर का उल्लसित स्वर सुनाई पड़ा, ''ओह, यह बात है! और हम तो छि: छि: इस्स...! टूटू ने तो कुछ वताया नहीं!''
यह सब बात चिल्ला-चिल्लाकर बोलना कोई महत्त्व नहीं रखती थी, फिर भी शरत मित्तिर चिल्लाकर ही बोले! क्योंकि यह आदमी अपने बिजनेस की दृष्टि से चालाक-चुस्त होने के बावजूद दुनियादारी के नजरिए से बेवकूफ है। क्यों चिल्ला-चिल्लाकर बोले, यह समझना किसी के लिए बाकी न रहा।

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