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चैत की दोपहर में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6393
आईएसबीएन :0000000000

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चैत की दोपहर में नारी की ईर्ष्या भावना, अधिकार लिप्सा तथा नैसर्गिक संवेदना का चित्रण है।...


अरण्य सवेरे ही निकल पड़ा था। आने पर देखा, हालत ऐसी है जिसके बारे में सोचा नहीं गया था। मिसेज घोष के निश्चित विश्वास की दीवार में दरार पड़कर सैलाब का पानी अन्दर घुस आया है।
बच्चे ने विश्वास को चकनाचूर कर दिया है।
यह खबर अरण्य को बाहर ही नर्स से मिल चुकी थी और मन बहुत ही उदास हो गया था, पर यह एक अविश्वसनीय आश्चर्यं की बात है कि कमरे के अन्दर आते ही अरण्य के मन में एकाएक एक प्रसन्नता की रोशनी कौंध गई।
गलत है, हाँ, बिलकुल गलत।
अरण्य ने सोचा, मुझे यह अच्छा लगना बहुत ही बुरा है।
लेकिन मन पर क्या जोर चल सकता है?
और आँखों की गतिविधि पर? अगर जोर चल सकता तो अरण्य की आँखें शुरू में बिस्तर पर पड़ी नीम-बेहोश लतिका पर पड़ने के बजाय बगल में बैठी अवंती पर नहीं पड़ जातीं।
लेकिन अवंती पर ही गईं। लिहाजा आँखों की भाषा के माध्यम से ही पूछना पड़ा, "तुम कब आयीं?''
अवंती ने सिर हिलाने की भंगिमा से जता दिया, यही थोड़ी देर पहले।
पर लतिका के बिस्तर के एक छोर पर जो आदमी दोनों हाथ से मुंह ढंके तिपाई पर बैठा था, अरण्य के आने की आहट पाते ही 'खामोश रहने के नियम' का पालन न कर एकाएक रोते हुए चिल्ला उठा, "खबर मालूम हुई? मेरा कहना है, जरूर ही कोई गलती हुई थी। जितने भी डॉक्टर हैं सब-के-सब अनाड़ी हैं। एक-एक नर्सिंग-होम खोलकर बैठ गए हैं।''
थोड़ी देर पहले मिसेज घोष ने खुद ही अवंती से कहा था, ''बच्चा मुझे बेवकूफ बनाकर चला गया, मिसेज मित्तिर। रात-भर बिलकुल स्वस्थ था, अचानक रात के आखिरी पहर के दौरान...क्या जो गया! खुद को मैं क्षमा नहीं करं पा रही हूँ।''
लेकिन अब इस अपमानजनक बात के बाद आत्मग्लानि का टिके रहना असम्भव है, इसीलिए मिसेस घोष के तीक्ष्ण कंठ से आवाज निकली, ''गलती आपने ही की थी, श्यामल बाबू। आपको अपनी पत्नी को 'वेलव्यू' में भर्ती कराना चाहिए था।''
श्यामल और कुछ बोलने जा रहा था मगर अवंती ने शांत स्वर में कहा, ''इतना अपसेट मत होओ, श्यामल! याद रखो कि वह समय पूरा होने के पहले ही धरती के प्रकाश में चला आया था। एडजस्ट नहीं कर सका। अब लतिका के बारे में सोचो।''
लतिका फफककर रो दी।
मगर सिर्फ रोने-धोने से ही तो काम नहीं चलेगा, दुनिया बड़ी निष्ठुर है। बहुत सारा कर्तव्य और प्रबन्ध करना है। काम की बात कहे बिना कुछ हो ही नहीं सकता।
सबको कमरे से बाहर निकल जाना पड़ा।
लतिका के सामने सारी बातों की चर्चा नहीं की जा सकती है।
उसके बाद-
बहुत देर बाद जब अवंती जाने को तत्पर हुई, अरण्य ने कहा, ''अवंती, तुम्हारी गाड़ी कहाँ है?''
अवंती न मजाक भरे लहजे में कहा, ''तेल खत्म हो गया है!''
अरण्य ने उसकी ओर देखा।
तेल खत्म होना वैसा कोई अहम् मुद्दा नहीं है।
बोला, ''लगता है कल रात पति से जमकर नोंक-झोंक हुई है।
''नोंक-झोंक? मुझे क्या तुम बहुत झगड़ालू औरत समझते हो?'' अवंती ने ललाट पर आए बालों को सरकाया। आज भी अरण्य का ध्यान इस बात पर गया कि अवंती की अँगुलियाँ रंगी हुई नहीं हैं।
अरण्य ने कहा, ''तुम्हे माप सकूं, ऐसी कैपिसिटी नहीं है।''
''धोखेवाज लोग इसी तरह चालाकी कर जिम्मेदारी से कतराते हैं।''
अरण्य ने हँसकर कहा, ''अवंती, कुल तुम्हारे सिर का दर्द ठीक हो गया था?''
''सिर का दर्द! ओहो! पता नर्ही। शायद नहीं। शायद रह ही गया है।
खैर, अपना समाचार बताओ! उतनी रात में घर लौटने पर झिड़कियों सुननी पड़ी?''
''झिड़कियाँ? कौन झिड़कियाँ सुनाएगा?''
''क्यों, तुम्हारी माँ?''
वह सव स्टेज वहुत दिन पहले गुजर चुका है।
''माँ ने अब प्रयास करना छोड़ दिया है। पर हाँ, कल एक अप्रिय घटना घट गई। माँ घर में थी ही नहीं।
''अप्रिय घटना! अप्रिय का मतलब?
''अप्रिय ही कहना चाहिए। जाकर देखा...
अरण्य ने मुख्तसर में कल की घटनाओं का ब्यौरा दिया।
उसके बाद वोला, ''खुशकिस्मत थी कि मर गई।
अवंती की आँखें सिकुड़ गईं।
''मरना खुशकिस्मती है?'
''उस हालत में जिन्दा रहने से क्या होता, सोचकर देखो। लगभग पूरा शरीर जल गया था।''
अवंती अब सिहर उठी। बोली, ''ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता।''
अब वे लोग नर्सिंग-होम के प्रांगण से सड़क पर आ गए हैं। अरण्य बोला, ''कैसे जाओगी?''
''जाने के लिए ही आयी हूँ। साइकिल रिक्शा से!
''कितनी परेशानी है! अभागे गरीबों की गाड़ी से!''
अवंती ने उसकी आँखों से आँख मिलाते हुए कहा, ''अगर कहूँ, रातों-रात बेहद गरीब हो गई 'हूँ!''
''यकीन नही करूंगा।''
''इस संसार में अविश्वसनीय कुछ भी नहीं है। मान लो, जिस पैक में मेरा सारा कुछ जमा है, मैं निश्चिन्त हूँ, और वह बैक सहसा फेल कर जाए तो क्या होगा?''
अरण्य मन-ही-मन हंसा। सोचा, इसके बाद भी विश्वास करूं कि पति सें तुम्हारी नोंक-झोंक नहीं हुई थी! होना आश्चर्यजनक भी नहीं है। तुम्हारा कल का आचरण और घर लौटने का वक्त किसी भी पति के लिए प्रसन्नता की बात नहीं हो सकती।...यह सब मन-ही-मन सोचा। जवान से कहा, ''तो भी कहूँगा कि रातों-रात 'गरीब' हो जाना सिनेमा-टाइप की कहानी है। वहां अवश्य ही देखने को मिलता है कि कारखाने में अचानक आग लगने के कारण बहुत बड़ा उद्योगपति घर, गाड़ी और सम्पदा से वंचित होकर फटेहाल हो गया है। और दूसरे दिन ही वह आदमी फटी बनियान पहने सड़क पर नल से पानी पी रहा है।"
अरण्य हंसने लगा।
और उसके बाद अकस्मात् ही बोल पड़ा, ''अच्छा अवंती, तुम औरतों के सिर पैर साधारण घटना के कारण या शायद अकारण ही जुनून क्यों सवार हो जाता है?''
''जुनून सवार हो जाता है?''
''इसके सिवा और क्या? औरतें भी तो मनुष्य हैं! नहीं हैं क्या? फिर? अकसर किसी कारणवश या बेवजह ही चट से खुद को मारने में दुविधा महसूस नहीं करतीं। गले में फंदा लगाकर सीलिंग से झूल जाती हैं या किरोसिन तेल छिड़क दियासलाई जलाकर आग लगा लेती हैं और जहर का इंतजाम हो तो फिर कहना ही क्या, थोड़ा-सा खा लेती हैं!''
अरण्य के बोलने का तौर-तरीका देख अवंती हँसे बगैर न रह सकी।
अरण्य ने कहा, ''इसमें हँसने की कोई बात नहीं है। जो सच है, वही कह रहा हूँ। यह क्या खून नहीं है?''
अवंती ने कहा, ''हो सकता है खून ही हो। लेकिन खून बेवजह क्यों करती हैं, इस तरह की धारणा क्योंकर पैदा हुई?''
''देख-देखकर, सुन-सुनकर! अरे बाबा, जिन्दगी में अगर परत-दर-परत अंधेरा छा गया है तो जिन्दा रहने का कोई उपाय नहीं है? मरना क्या जरूरी है?''
अवंती ने उसकी आँखों की तरफ आँखें उठाकर देखा, ''अगर जीवन के प्रति वितृष्णा हो गई हो तो?''
अरण्य ने कहा, 'तृष्णा को वापस लाने की कोशिश करनी होगी। खुद को मार डालना कोई अहमियत नहीं रखता। इसे मुक्तिहीन ही कहा जाएगा। हां, युक्तिहीन बेवकूफी।''
''मर्द क्या इस तरह की युक्तिहीन बेवकूफी नहीं करते?''
''उन्हें मैं जनाना मर्द कहता हूँ। बरदाश्त नहीं कर पाता!'' अवंती ने कहा, ''फिर तो मुश्किल की बात है। मुझे ही तो बीच-बीच में इस तरह की बेवकूफी भरी इच्छा होती है। लेकिन प्राण निछावर करने को बेवकूफी क्यों कहा जाता है?'
''अवंती!''
अरण्य एकाएक अवंती का कंधा कसकर पकड़ लेता है। अरण्य को पिछली रात का भय दबोच लेता है! गंभीर स्वर में कहता है, ''अवंती, सच-सच बताओ, यह तुम्हारा मजाक है या नहीं।''
अवंती अपना कंधा हटा लेती है। गम्भीर हाव-भाव के साथ कहती है, '''उफ़! ऐसा हाव-भाव दिखा रहे हो जैसे तुम्हारा सारा कुछ रसातल में चला जाएगा।''
''क्या जाएगा या नहीं जायेगा, यह मैं नहीं जानता। लेकिन औरतों पर यकीन नहीं किया जा सकता। वचन दो कि इस तरह की बेवकूफ इच्छा को मन में पनपने नहीं दोगी। हाँ, कभी नहीं।'' 
''वाह, एक ही बात में वचन दिया जा सकता है'? कब कौन-सा मूड आ जाए।''
वे लोग एक पेड़ की छांह में खड़े हो एक रिक्शा का इन्तजार कर रहे हैं। अरण्य ने सड़क की तरफ काफी दूर तफ निगाह दौड़ाई। न, कल की तरह ही हालत है और धूप भी काफी तेज हो गई है। लेकिन कल भी तो अरण्य की निगाह इसी समय अवंती पर पड़ी थी। कितना रानी-महारानी जैसा हाव-भाव था!
अरण्य बोल उठा, ''अवंती कल तुम्हारा पति से अवश्य ही जमकर झगड़ा हुआ है।''
अरण्य की आवाज में उत्तेजना है।
लेकिन अवंती ने एकाएक उसकी उत्तेजना पर पानी छिड़ककर मुक्त कंठ से हँसते हुए कहा, ''अरण्य; आश्चर्य है! तुम्हें कैसे पता चला, बताओ तो सही!''
अरण्य ने कहा, ''हुआ है या नहीं?''
''हाँ, बहुत ज्यादा। मुझे भी कल तुम्हरे उस ममेरे भाई की पत्नी की तरह किरोसिन छिड़कने की इच्छा हुई थी। पर...सनातन वह सब कहाँ रखता है?'' अपना चेहरा रुँआसा और करुण बनाकर कहती है अवंती।
अरण्य जोर से हँस देता है।
कहता है, ''उफ़ ऐसा डरा दिया था कि क्या कहूँ! अब भी तुम वैसी ही हो। याद है, एक बार लंच पर अचानक छिपकर सबों को भयभीत कर दिया था तुमने! मल्लाह ने किचन में घुसकर...''
अवंती ने कहा, ''याद नहीं था, याद आ गया।''
संतोष ने तो जोरदार शब्दों में कहा, ''थोड़ी देर पहले उसने पानी में किसी भारी चीज़ के गिरने की आवाज सुनी है। सभी उस समय संतोष को मारने पर उतारू हो गए और कहा, उस समय क्यों नहीं बताया साला।''
''आह अरण्य! तुममें कोई बदलाव नहीं आया। इस भद्दे शब्द को तुम छोड़ नहीं सके?''
अरण्य ने निःसंकोच कहा, ''यह शब्द कितना भावव्यंजक है, तुम नहीं जानती, अवंती। वह भाव प्रकट करने का बेजोड़ आदर्श है। उसे त्याग देने से अभिव्यक्ति की नींव लड़खड़ाने लगती है।''
उसके बाद पैट के पॉकेट से रूमाल निकाल माथे का पसीना पोंछकर बोला, ''आदत बदलने का क्या कोई कारण घटित हुआ? 'पृथ्वी' को 'भाई' कहने की कोई परिस्थिति पैदा हुई है? धीरे-धीरे तो पृथ्वी के तमाम लोगों को साला कहने की इच्छा जग रही है।''
अब अवंती ने अपने आपको वश में कर लिया है। इसीलिए अवंती आँखों के कोने में हँसी लाकर बोल उठी, ''मुश्किल यही है कि तुम्हें किसी दिन घर पर बुलाना सम्भव नहीं हो सकेगा। गृहस्वामी अपनी पत्नी के मित्र के मुंह से इस तरह की देवभाषा सुनेंगेँ तो सिर पर पानी उलीचने भाग जाएँगे।''
''अरे, कौन जा रहा है तुम्हारे पति के रू-ब-रू होने?''
''डरते हो?
''भरोसा भी नहीं है!'' 
''कायर! मर्द नाम के अयोग्य!''
अरण्य कहना चाहता था, इसीलिए तो अयोग्यता के साथ हटकर खड़ा हो गया था। कहना नहीं हो सका। एक साइकिल-रिक्शा पर नजर पड़ते ही अवंती ''ऐ, ऐ, ओ भाई''-कहकर हाथ उठाकर आगे बढ़ गई।

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