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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


3

कंघी-फीता लेकर छत पर चली गई थी रमोला। मुँडेर के किनारे खड़ी होकर बालों को सुलझा रही थी और बार-बार सड़क की ओर देख रही थी।
गाँव के घर तो खुले-खुले ही होते हैं पर यह घर ऐसा घिरा हुआ है कि छत पर न चढ़ने से सड़क दिखाई नहीं पड़ती है। भीतर की ओर तो विशाल बरामदा है, चौड़े आँगन में चबूतरा भी बना हुआ है, मगर उसके सामने ही तो रिश्तेदारों की चारदीवारी खड़ी है।
नज़र टकरा कर लौट आती है। बचा सिर्फ सामने में बना दलान, जिसके चारों ओर छोटा-सा फूल-बगीचा है। उसके भी आगे अपनी ही ज़मीन है काफी खुली-खुली-सी। वहाँ से नजर दौड़ाई जा सकती है, पता चल सकता है-कोई साईकिल पर सवार होकर आ रहा है कि नहीं।
परंतु उस पर एक मात्र बहिर्द्वार पर सदा-सर्वदा पहरा लगाये बैठे हैं घर-बैठे चाचा-ससुर। और उसके संग सोने पर सुहागा बालविधवा बूआ-सास।
उधर फटकना मुश्किल है। कैसा सुखद जीवन बिता रही है रमोला।
इतनी उम्र हो गई मगर आज तक कभी अपनी मर्जी से गृहस्थी नहीं चला सकी वह। हमेशा अधीनस्थ बनी रही।
केवल 'अधीन' ही क्यों, एक प्रकार से चक्की-तले पिसती रही वह। कहीं कोई ढील देने की नौबत नहीं है। जिस प्राचीन पद्धति से गृहस्थी की गाड़ी चली थी, आज भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं, कोई फेरबदल नहीं हुआ है।
मगर उन पहियों को ढकेलने में जी-जान लगाना है, कहीं अपने ढंग से कुछ कर जाओ तो बूआ-सास हंगामा खड़ा कर देगी, ''अरे बाप रे, सब गड़बड़ कर दिया! ओ बड़ी बहू, यह क्या किया? रहने दो, यह सब तुमलोगों से नहीं होने वाला है।''
कोई काम अगर सोच लो कि थोड़ी देर बाद करेंगे, कहाँ से दनदना कर पहुँच जाएँगी और उसे पूरा करके अफसोस के साथ कहेंगी-''किसी से कुछ नहीं होने वाला.......!'' जैसे कि दस मिनट बाद उस काम को करने से दुनिया एकदम उलट जाती। इतनी उम्र हो गई, अब और किसी के नीचे दबकर रहना सहन नहीं होता।
बालों की गुत्थी सुलझाते-सुलझाते मन की गुत्थी और भी उलझाये जा रही थी रमोला, ऐसे में एक परिचित घंटी सुनाई पड़ी।
मुँड़ेर से झुककर उसने देखा मुक्तिनाथ ही आ रहा था, उसी क्लाइव के ज़माने की साइकिल पर सवार होकर। रंग-रूप झरकर अब वह देखने में पोस्टमैन की साइकिल जैसा लगता है। फिर भी ये लोग कहते हैं कि आज की नई खरीदी हुई साइकिलों से वह मजबूत है।
साइकिल के दोनों हैंडल पर रूमाल में बँधी दो छोटी पोटलियाँ हैं, पीछे में बँधी बेंत की टोकरी से भी कुछ झाँक रहा है।
या तो फल-वल नहीं तो कलकत्ते से लायी गई कोई दुर्लभ सब्जी होगी। इसका अर्थ हुआ बेकार पैसों की बर्बादी। हिसाब से महीने का खर्च देने के बाद भी अगर मुक्तिनाथ इस तरह बड़प्पन दिखाए, उदारता दिखाए तो रमोला के तन-बदन में आग लगेगी कि नहीं?
जल्दी से नीचे उतर गई वह। सबकुछ अभी बूआजी के विशुद्ध भंडार में समा जाएगा, यह तो जानी हुई बात है। बूआजी उसमें से नाप-तोलकर बाँटेंगी, फिर भी क्या-कुछ खरीदारी हुई देखना आवश्यक है।
नीचे उतरते-उतरते ही उसे क्षेत्रबाला के पुलकित स्वर की शिकायत सुनाई पड़ी, ''तू पागल है या क्या है रे मुक्ति? मानती हूँ मेरा व्रत है, मगर उसके लिए इतने आम, केले, इतने सारे अंगूर और खजूर।''
मुक्ति का सुखी, संतुष्ट स्वर सुनाई पड़ा, ''क्या करूँ, तुम तो सारे दाँत खोकर बैठी हो? सख्त चीज़ खा नहीं सकती! कब से कह रहा हूँ दाँत बनवा लो!''
कहता जरूर है परंतु बूआ को भी मालूम है कि उस कथन में कोई वज़न नहीं है। मगर ऐसा तो नहीं कहती, ''क्या दाँत मैं खुद जाकर बनवा लूँ?'' क्षेत्रबाला इतनी ममताहीन नहीं है।
उसके उस कहने-भर को बड़ा मान देती है क्षेत्रबाला। तभी हँसकर कहती है, ''अब मैं फिर से दाँत बनवाने जाऊँ क्या ईख, खीरा और कच्चे अमरूद चबाने के लिए?''
मुक्ति के स्वर में वही खुशी झलक उठी। बोला, ''इसमें गलत क्या है? तुम्हारा जैसा 'हेल्थ' है, अभी आराम से पंद्रह साल.......''
मुक्तिनाथ का मन बड़ा हल्का है आज। सस्ते दामों में फल खरीद लाया यह एक कारण है, अचानक कुछ ताजा पनीर मिल गया (जो अम्बुवाची में काम आएगा) यह भी एक कारण है, और सबसे बड़ा कारण है-रमोला को अच्छी तरह 'डाउन' कर सकेगा।
'अम्बुवाची' के बारे में रमोला तो बिल्कुल भूल ही चुकी थी, मुक्तिनाथ से कुछ नहीं कहा था इस बारे में। दफ्तर में कोई कह रहा था-''माँ के लिए 'अम्बुवाची' का फल ले जाना है'', सुनकर उसे पता चल गया। उसी के साथ होकर मुक्तिनाथ ने भी अपना सौदा कर लिया।
'अम्बुवाची'1 शब्द कानों पर पड़ते ही रमोला का कलेजा काँप उठा। अरे बाप रे! बिल्कुल याद ही नहीं रहा।
आज मुक्तिनाथ को मौका मिल जाएगा उस पर अपना सिक्का जमाने का! जिसे कोई जल्दी हरा नहीं सकता, एक बार अगर वह हाथ आ जाय तो कोई उसे छोड़ता नहीं, चाहे वह कितना भी अपना क्यों न हो।
इस बात को महसूस किया रमोला ने और मन को कठोर बना लिया उसने। ''हाय, हाय कैसी भूल हो गई मुझसे!'' कहकर अफसोस नहीं जाहिर करना है, नहीं तो और सर पर सवार हो जायगा।...... और वैसे भी उस तुच्छ बात को लेकर बूआ-भतीजे के बीच जो प्यार-भरा कथोपकथन हुआ उसे सुनकर मन तो कठोर हो ही चुका है।
सारी गंभीरता, सारी थकावट और सारी दुश्चिंता रमोला के सामने ही होती है। चाचा-बूआ के पास जाते ही उनका 'मुन्ना' भतीजा एकदम 'बबुआ' बन जाता है!
देखकर जी जलता है रमोला का। एक बुड्ढे आदमी को इस तरह बचपना करते देखकर उसका जी हमेशा के लिए खट्टा हो चुका है। बड़ी देर बाद अपने कमरे में आया मुक्तिनाथ। क्योंकि किस तरह मोल-भाव करके लँगड़ा आम सस्ते में ले आया, चाचा के साथ यही चर्चा चल रही थी अब तक। चाचा भी इसी संदर्भ में अपनी 'डेली पैसेंजरी' के ज़माने की पुरानी यादों को ताजा कर तरह-तरह की बातें कर रहे थे।
उफ, रमोला से सहन नहीं होता!
कभी एक दिन भी जो दफ्तर से लौटकर पहले कमरे में आता।......पहले राजदरबार में सलाम बजाना जरूरी है। चाचा और बूआ को इस तरह सर चढ़ाना।
और करे भी तो क्या? 
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1. विधवाओं का व्रत

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