नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
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भक्तिनाथ के तीन बेटे हैं पर उनके साथ भक्तिनाथ का सम्पर्क इतना कम है कि
उसकी पत्नी मनीषा कभी-कभी कहती है, ''रास्ते में अचानक मिल जाएँ तो तुम अपने
बेटों को पहचान भी सकोगे कि नहीं, मुझे शक है।''पत्नी की शिकायतों का अंत नहीं! उन पर ध्यान देना बेकार है, यही भक्तिनाथ की राय है। पत्नी और बच्चों के प्रति उसका जो रवैया है उसकी प्रशंसा तो नहीं की जा सकती है।
छोटी-सी उम्र से ही भक्तिनाथ मुहल्ले के लड़कों का नेता है और करीब-करीब तभी से मुहल्ला तो क्या, सारे गाँव का ही सबसे अच्छा अभिनेता है।
मगर भक्तिनाथ का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि उसके नाटक देखने गाँव के स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े सभी जाते हैं, नहीं जाती है तो केवल मनीषा। और उसकी नाटक-कम्पनी में थोड़ा-सा मौका पाने की आशा से गाँव के जितने छोकरे सब भक्तिनाथ के आगे-पीछे करते रहते हैं मगर उसके अपने बेटे उस रास्ते से भी नहीं फटकते।
मझला बेटा जब छोटा था, एक बार 'वृषकेतु' का रोल करने के लिए कोई नहीं मिल रहा था। ऐसे में उसे रोल देने के लिए मनीषा से आग्रह किया था भक्तिनाथ ने। सुनकर बिना कुछ कहे बेटे को मनीषा ने आगे बढ़ा दिया था। और पता नहीं कहाँ से बाँस काटने वाला एक हँसुआ लाकर पति की ओर बढ़ाकर कहा था, ''यह भी लेते जाओ, कोई कसर बाकी नहीं रहेगी।''
तब से भक्तिनाथ ने यह चेष्टा छोड़ दी थी। मगर अब तो वे माँ के आँचल से बाहर आ गये हैं, मर्जी होती तो आ नहीं सकते थे क्या? खास कर बड़ा बेटा? बिल्कुल सिनेमा के हीरो जैसा चेहरा पाया है।......वह अगर हाथ आ जाता तो अपने आजीवन की साधना का हुनर उसे देकर बड़ा करता। वह आशा पूरी नहीं हुई, होने की संभावना भी नहीं है।
परन्तु जीवन की कौन-सी आशा ही पूरी होती है? लाइब्रेरी के बेंच पर बैठकर शक्तिनाथ यही सोच रहा था।
स्टेशन से सीधे घर नहीं जाता है वह, लाइब्रेरी में जाकर बैठता है। साईकिल को दलान पर दीवार से टिकाकर रख देता है, फिर कीचड़ लगे जूते को खोलकर भीतर चला जाता है। और भी कई लोग होते हैं, कमरे में सरगर्मी आ जाती है। शक्ति के खर्चे पर चाय का इंतज़ाम है। जो भी आता है उसे ही चाय मिलती है। अत: इस समय भीड़ रहती है। कुछ लोग दफ्तर से लौटते हुए स्टेशन से आते हैं तो कुछ बेकार युवक भी होते हैं। मुफ्त की चाय की आकर्षण कम नहीं होता।
मगर आज किसी की सूरत दिखाई नहीं पड़ रही है क्योंकि बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही है। अकेले कमरे में बैठकर शक्तिनाथ उसी बरसात की ओर देखकर बहुत-कुछ सोच रहा है।.....इस तरह से पहले कभी सोचा नहीं।
खैर, 'जीवन' के बारे में सोचते ही कितने लोग हैं? अधिकांश लोगों के लिए जीवन का अर्थ दिन-रात की समष्टि से बना एक कालखण्ड है। दिन-रात के इस आवर्तन में शैशव से बाल्यकाल, बाल्यकाल से यौवन और यौवन से प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ जाना, यही तो जीवन है। उस कालखंड के भीतर क्षणिक सुख-दुःख, आशा-निराशा है, क्रोध-विद्वेष, रोग-व्याधि है, गरीबी और फाके हैं, ऐशो-आराम है, और क्या!
इसके सिवा जीवन और है क्या?
पर आज इस मूसलाधार बारिश की चपेट में भक्तिनाथ को ऐसी अप्रत्याशित निर्जनता मिल गई है। वह भक्तिनाथ, जिसे लोग एक नाटक-प्रेमी आवारा के सिवा और कुछ नहीं समझते हैं, आज अचानक वह जीवन का अर्थ ढूँढ़ने लगा है।
बचपन से ही उसका एक अस्वाभाविक अदम्य झुकाव था अभिनय-जगत् की ओर।
कितना रोमाँचकारी है वह जगत् जहाँ आदमी अपने एकमात्र परिचय को ग्रीनरूम के एक कोने में फेंक कर मंच के जगमगाते प्रकाश में भिन्न-भिन्न परिचय के माध्यम से अपने को प्रस्फुटित करता है। जहाँ आदमी को सामाजिक जीवन के नियम-कानून के पहिये से बँधकर घूमना नहीं पड़ता है। वह शराबी की भूमिका, पागल की भूमिका, दीवाने प्रेमी की भूमिका में निडर, लापरवाह, मदहोश हो सकता है! यह ऐसी जगह है जहाँ जीवन की सारी जलन, दुनिया के सारे अन्याय, अविचार, लोभ-पाप, दुर्नीति, अनाचार, नीचता और निर्लज्जता के विरुद्ध अनायास विद्रोह को सोच्चार किया जा सकता है। इसी मंच पर अभिनेता अपने हृदय की आशा-आकांक्षा, अपने आनंद-वेदना की अभिव्यक्ति को प्रकाशित कर सकता है।
कभी राजा तो कभी रंक।
यह प्रकाश और अँधेरे से घिरा रहस्यमय अभिनय-जगत् अपनी सारी रंगीनियों के इशारे देकर भक्तिनाथ को सदा बुलाता रहा।
उसकी पुकार भक्तिनाथ ने अपनी नस-नस में महसूस की! अपने आवेग के भीतर उसका अनुभव हुआ। वह पुकार मन के भीतर पहुँच गई पर दूसरों तक उस पुकार को वह पहुँचा तो नहीं सका?
मौका ही कहाँ है?
सुविधा कहाँ है?
जी-जान लगाकर उस जगत् के प्रवेश-द्वार की चाभी ढूँढ़ता रहा, मगर क्या कुछ कर सका जीवन में?
थोड़ा-बहुत जो हुआ वह मझले भैया के स्नेह और सहृदयता का सहारा था, इसीलिए। अर्थात् अपनी मर्ज़ी के अनुसार अपने दैनिक जीवन को चला सका।
अगर मझले भैया सख्ती करते (जो उनके साथ की गई) फटकारते, धिक्कार देते तब तो इतना भी नहीं हो पाता?
मझले भैया ने कहा, ''जी चाहे तो कर ले। मगर काम-धाम छोड़कर दीवाना मत हो जाना। पुरुष के जीवन में उसकी कमाई ही उसके पैरों के नीचे धरती है। उस धरती पर खड़े होकर जितना हो सके, कर ले।''
तब तो बाबूजी थे नहीं, बड़े भैया पहले ही गुजर चुके थे। मझले भैया ही गृहकर्ता थे, परंतु वे कठोर शासनकर्ता नहीं थे।
पर उससे क्या?
ऐसे छोटे-से गाँव की चारदीवार के भीतर रहकर क्या नीलगगन में पंख पसारे जा सकते हैं?
और तो और, जिंदगी में कभी कोई अच्छा अभिनय देखने का भी मौका नहीं मिला।
कितना जबरदस्त शौक था कि कम-से-कम एक बार भी शिशिर भादुड़ी का अभिनय देख सके! मगर वह शौक पूरा नहीं हुआ।
जबकि प्रतिदिन वह कलकत्ते जाता रहा। जाना क्या था, हावड़ा स्टेशन पर उतर कर स्ट्रैड रोड के एक विशाल कैदखाने के एक 'सेल' में कुछ घंटे बंद रहकर फिर वापस लौट आना।
मगर जो भी हो, क्या एक बार भी ऐसा नहीं हो सकता था?
हाँ, हो तो शायद सकता था, पर अपने शौक को लेकर हंगामा करने की हिम्मत भी तो नहीं थी। अपने-आपको मूल्यहीन समझने की आदत संस्कार बन चुकी थी।
उस युग के दृष्टिकोण में पला हुआ मन सदा ही एक अनधिकारी की भूमिका में सिमटा पड़ा रहा, मानो जो भी करना चाहे वह निषिद्ध है।
भक्तिनाथ जैसे लोगों को कब किसी ने यह आश्वासन दिया कि इस दुनिया में तुम्हारा कोई अधिकार है, अपनी इच्छानुसार जीने का अधिकार है तुम्हें। तुम्हारी जिंदगी केवल मात्र तुम्हारे परिवार के लिए नहीं है, तुम्हारे अपने लिए भी है।
नहीं, ऐसा आश्वासन नहीं मिला उन्हें! उनकी इच्छा-शक्ति में भी शायद यह तीव्रता नहीं थी कि यह आश्वासन प्राप्त कर लें।
व्याकुल वासना और तीव्र इच्छा-शक्ति में अंतर तो है ही।
जिस तीव्र इच्छा-शक्ति के बल पर आदमी घर-बार छोड़कर निकल जाता है, आवारा, लापरवाह हो जाता है, वह बात भक्तिनाथ में होती तो उसका सपना सफल हो सकता। पर वह बात उसमें नहीं थी इसीलिए बाँसुरी की तान दूर से उसे व्याकुल करती रही, सपने दिखाती रही पर उसका घर नहीं छुड़वा सकी।
सारी दुनिया की खबर पता नहीं भक्तिनाथ को, अपनी जानी-पहचानी दुनिया की खबर है उसे। तभी तो उसने सपना देखा था गिरीश घोष होने का, दानी बाबू दुर्गादास बंदोपाध्याय, शिशिर भादुड़ी होने का, अहीन्द्र चौधरी, नरेश मित्र और छवि विश्वास होने का।
वह सपना खो गया।
प्रख्यात होने की बात तो दूर रही, बाँस के बने स्टेज को छोड़कर कभी किसी ढंग के स्टेज पर खड़े होने का मौका भी जीवन में नहीं मिला।
मगर फिर भी भक्तिनाथ इस थोड़े में ही संतुष्ट है क्योंकि इस अभिनय-जगत् में ही उसकी जान बसती है। थोड़ा बहुत जो कुछ है वह उसकी अपनी सृष्टि है, उसी में उसे आनंद मिलता है, उसी में उसके जीवन की सार्थकता है।
खुशी भी तो मिलती ही है। जब नये नाटक का रिहर्सल चलता है, जब वह नाटक मंचस्थ होता है। सारा गाँव देखने के लिए जब उमड़ पड़ता है तो खुशी नहीं होती है क्या? मन का कोना-कोना उस खुशी में सराबोर हो जाता है। केवल मनीषा की विरूपता खटकती है, कहीं चुभती रहती है। चाहकर भी उस चुभन को भुला नहीं सकता है वह। जब मनीषा उसे तुच्छ दृष्टि से देखती है, उसकी अवहेलना करती है तब सारी खुशी पर पानी फिर जाता है।
मगर शायद पहले कभी इस प्रकार आज की तरह भक्तिनाथ ने सोचा नहीं था। शायद इस तरह अकेला भी नहीं हुआ पहले। इस क्षणिक अकेलेपन में भक्तिनाथ की दृष्टि उधर पड़ी जिधर अचानक एक खिड़की खुल गई थी।
उस खिड़की से उसे दिखाई पड़ा एक सूने कमरे में और कोई नहीं है, अकेले भक्तिनाथ खड़ा है। बेवकूफ की तरह खड़ा है वह। तो क्या यही भक्तिनाथ का जीवन हैं?
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