नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
दुनिया उलट जाय मगर नियम का व्यतिक्रम तो होने वाला है नहीं। चाचा भी तो
महाभारत के बहाने रास्ता घेरकर बैठे रहते हैं.....कैसा असहनीय जीवन है रमोला
का!
झट से रमोला ने अपनी आधी गुथी हुई चोटी उधेड़ कर बाल बिखेर लिए और कंघी हवा
हटाकर खिड़की के किनारे जाकर बैठ गई।
अचानक, पता नहीं क्यों अपनी सजी-सँवरी मूरत उस आदमी को दिखाने की इच्छा नहीं
हुई।
मुक्तिनाथ ने सोचा था रमोला के पारिवारिक कर्त्तव्य की त्रुटि को लेकर
हँस-हँसकर कुछ बात सुनाएगा, परंतु कमरे में प्रवेश करते ही उसका दिल बैठ गया।
रमोला का चेहरा भरोसे के लायक नहीं था।
यही तो होता है।
और यही कारण है कि बेचारा मुक्तिनाथ अपने कमरे में जाना टालता रहता है। चाचा
और बूआ-उनके पास तो जैसे एकदम निर्भय होकर बात करता है। दो पल मुक्तिनाथ उनसे
बात जो कर लेता है उसी से जैसे निहाल हो जाते हैं वे। दोष निकालने के लिए सर
पर सवार नहीं रहते हैं। मगर यहाँ बात बिल्कुल विपरीत है। इस कमरे में तो कदम
रखते ही ऐसा महसूस होता है जैसे कठघरे में आकर खड़ा हो गया हो।
वैसे ही आकर खड़ा हुआ मुक्तिनाथ।
बिना कोई सम्भाषण किये संक्षेप में रमोला बोली, ''राणा भैया के घर गये थे?''
अब मुक्तिनाथ का दिल धड़क उठा। जाने से पहले कठोर आदेश दिया था रमोला ने, ''आज
जाना ही है।''
अचानक अम्बुवाची की बात उठी और सब भूल गया वह। मगर यह बात कहकर आग को भड़काने
की हिम्मत नहीं हुई उसे।
इसीलिए जल्दी से बोल उठा, ''गया तो था मगर फायदा कुछ नहीं हुआ।'' मुक्तिनाथ
को रमोला पिछले पच्चीस सालों से देखती आ रही है, उसके चेहरे के हर उतार-चढ़ाव
से पूरी तरह परिचित है वह।
सही बात को भाँप लेने में रमोला को देर न लगी। फिर भी उसे मन में ही दबाकर
तीखे स्वर में बोली, ''क्यों? फायदा नहीं होने का कारण?''
''कारण और क्या। भेंट नहीं हुई।''
''भेंट नहीं हुई?''
''वही तो।''
''भाभी भी नहीं थी?''
मुक्तिनाथ को शायद रमोला की आवाज़ में उसके संदेह होने का भान हो गया। इसीलिए
बचाव के लिए बोला, ''अरे नहीं! भाभी क्यों नहीं होंगी?''
''तो उसने मकान के बारे में कुछ कहा नहीं?''
मुक्तिनाथ जल्दी से बोला, ''नहीं, उनके साथ इस बारे में कोई बात-''
रमोला और भी तीखे स्वर में बोली, ''उन्हीं के साथ तो बात करनी थी। उन्हीं का
फूफेरा भाई तो किराये पर मकान देगा। या फिर यह भी नहीं जानते थे?''
मुक्तिनाथ धीमे स्वर में बोला, ''जानता क्यों नहीं? मेरा मतलब-''
''रहने दो, तुम्हें और 'मतलब' समझाने की जरूरत नहीं है। मैं मतलब समझ गई हूँ।
मकान ढूँढ़ना तुम्हारे बस की बात नहीं है, यह भी मैं समझ चुकी हूँ। अब जो
करना है, खुद करूँगी।''
कमरे से निकल गई रमोला, शायद आँसू रोकने के लिए ही।
मैके के रिश्ते में जो जहाँ भी है, रमोला उन सबकी मिन्नत कर चुकी है एक फ्लैट
खोज देने के लिए।
जब मैके आना-जाना होता है तब तो कहती ही है, वैसे पत्र के माध्यम से भी
लगातार कोशिश किये जा रही है।
अब और सहन नहीं होता है।
इसके अलावा बच्चे भी अब आवाज उठाने लगे हैं। अब इस गाँव में वे पड़े रहना नहीं
चाहते हैं। बेटियाँ दिन-रात माँ को तगादा देती हैं, ''बाबूजी से कहो!'' और
बेटे तो बस में हैं ही नहीं। साफ कह दिया है, ''और महीने भर इंतजार करेंगे,
उसके बाद हम अपना इंतजाम खुद कर लेंगे। 'मेस' में रहेंगे, ट्यूशन देकर अपना
खर्चा चलायेंगे।''
कलकत्ते के उल्लास, वहाँ की उत्तेजना, वहाँ के जीवन के तीखे, नशीले स्वाद की
झलक मात्र देखकर ही वे घुटुर-घुटुर रेलगाड़ी चढ़कर ऐसे निरूताप, उत्तेजना-विहीन
बेरंग जीवन में आकर समा जाने से विरक्त हो गये हैं।
क्या इसे जीवन कह सकते हैं?
क्या इसमें जान है?
जब पढ़ने-लिखने की उम्र थी, यार-दोस्तों की रंगीन महफिल से या राजनीति के
जबरदस्त अड्डों से उठकर भागना पड़ता था ट्रेन पकड़ने के लिए। इतनी उम्र हो गई,
अभी तक पता नहीं चला नाइट-शो देखने का मजा क्या है।.....फिर तो काम पर ही जुट
जाना पड़ा।
कलकत्ते में मामा लोग तो रहते हैं, मगर उनके घरों में इतनी जगह नहीं कि
भांजे-भाजियाँ आकर रात बिता सकें।......मिलने आओ, खाओ-पीओ, रास्ता नापो, बस!
फिर भी बच्चे मामा के घर जाकर मोहित हो जाते हैं, निहाल हो जाते हैं। खास कर
मझले मामा के घर। वहाँ जाने से ही चिकन-करी, मटन-कटलेट और अंडे का 'डेविल'
जरूर बनेगा।
मझली भाभी रोज ही शौकीन पकवान बनाती है। पर हँस-हँसकर कहती भी हैं, ''एक ही
बिटिया है, तभी कर पाती हूँ बेटा। तेरी माँ जैसा हाल होता तो थोड़े ही कर
पाती?''
खैर, यह तो मजाक की बात हुई, सच्चाई यह है कि उनका जीवन उज्ज्वल शहरी जीवन
है। मगर ऐसा भी नहीं कि उनकी कमाई मुक्तिनाथ से कुछ अधिक हो। कमी है यहाँ तो
रुचि की, जीवन-पद्धति की।
यहाँ रात के भोजन का अर्थ ही है रोटी-दाल, कुछ फालतू सब्जी और सुबह की बनी
हुई रसदार मछली। रात को चौके में मछली नहीं बनती है क्योंकि अल-सबेरे चूल्हा
जलाना पड़ता है। दफ्तर जाने वालों का खाना टाइम पर देने के लिए रात से ही सब
तैयारी ठीक रखनी पड़ती है।
क्षेत्रबाला के घर में गोश्त पकाना भी जैसे एक उत्सव है।
एक खाली खटाल पड़ा है, वहीं एक चूल्हा जलाकर पकाया जाता है। छोटी दादी इसका
जिम्मा लेती हैं। माँ को पूजा का काम करना पड़ता है, इसलिए उनके लिए संभव नहीं
है।
माँ इस तरफ चावल पका कर भेज देती है। बाग से केले के पत्ते काटकर चबूतरे पर
आसन बिछाए जाते हैं। मिट्टी के कुल्लड़ में वह परम आकांक्षित वस्तु परोसी
जाती है।
बचपन में यही उल्लास का विषय था, पर अब घृणा आती है। मामा, मौसी यहाँ तक कि
छोटी बुआ के घर (वह तो इसी घर की बेटी हैं) के रोशनी से जगमगाते डाइनिंग
टेबुल का दृश्य याद आ जाता है और धिक्कार आता है अपने-आप पर.......उनके घर
खाने की मेज पर राजनीति को लेकर कैसे तर्क के तूफान उठते हैं। मामा और मामी
दोनों दो गुट में बँट जाते हैं। क्या जोशीला तर्क होता है।
क्या हुआ अगर उनके घर छोटे-छोटे हैं, फिर भी तो कितने सुंदर-सजीले हैं और
यहाँ? सबकुछ इतना विशाल है। साल में एक बार भी समूचे घर को घूम-फिर कर देखना
संभव नहीं हो पाता!
आवश्यकता से अतिरिक्त यह विस्तार कितना अर्थहीन लगता है।
मुक्तिनाथ का बड़ा बेटा कहता है-घर-बार का यह विस्तार चिंतन की परिधि को
संकीर्ण बना देता है, जब तक दम न घुटने लगे, मुक्ति की तृष्णा नहीं जागती है।
हालाँकि मझला बेटा टुपाई इस बात से सहमत नहीं है। उसके अनुसार-जीने का ढंग
अगर सुंदर न हो तो चिंतन में उन्नति नहीं होती है।
दोनों भाइयों में प्रत्येक विषय पर मतभेद होते हुए भी एक विषय पर दोनों एक मत
हैं। कलकत्ते जाकर रहना है। वहाँ 'लाइफ' है।
बेटे और बेटियों की इस चाहत के दबाव को रमोला को ही तो झेलना पड़ता है, जबकि
कुछ भी उसके बस में नहीं है।
इससे दुखद बात और क्या हो सकती है?
परंतु अब रमोला दृढ़ निश्चय कर चुकी है, मामला अपने हाथ में ले लेगी। बेटों का
सहारा लेकर कलकत्ते जाकर फ्लैट का इंतज़ाम करेंगी।
उसका भरोसा टिका हुआ है भाभी के फूफेरे भाई के विशाल चार मंजिल वाले 'मैनशन'
पर, जिसके अनगिनत फ्लैट में से एक के खाली होने की आशा है।
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