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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


रमोला के शब्दों में यह है, "गृहस्थी के फालतू झमेलों से हटकर प्रतिदिन साफ-धुले कपड़े पहन कर निकल जाने का सुयोग।"
खैर जो भी हो, अब तक तो माँ के हर काम में वीरू का सहयोग होता ही था। पर उस दिन जब बाबूजी को बड़े मेहनत से लिखे उस लेख को फाड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर फूट-फूट कर रोते देखा, तब से लग रहा है-बाबूजी को हम जितना हृदयहीन समझते रहे, शायद उतने नहीं है। शायद उनके पक्ष में भी कुछ बातें हैं।...
शायद सभी के पक्ष में कुछ-न-कुछ बातें होती हैं। केवल एक व्यक्ति-विशेष के स्वार्थ के दृष्टिकोण से दूसरे को देखने से शायद गलती ही हो जाती है।
रंग-बिरंगे फूलों को मिलाकर गुलदस्ता सजाने में बहादुरी तो है, पर उन सभी फूलों को एक ही रंग में डुबोकर गुलदस्ते की सुंदरता को बढ़ाने की चेष्टा करना मूर्खता ही है। जो जैसा है उसे वैसा ही रहने दो।
आजकल ऐसी बातें सोचने लगा है वीरू। इसीलिए अब उसे लग रहा है कि यह माँ की ज्यादती है। बाकी तो कोई ऐसा बुरा बर्ताव नहीं करते हैं उनके साथ। जबकि हम हमेशा ही सोचते आये कि माँ दुखी है, सताई जाती है। अब से वाबूजी के बारे में भी सोचना पड़ेगा।
अत: ऐसा लगता है कि बेटे का सम्पूर्ण समर्थन नहीं मिला मनीषा को।
और पति का?
उसका तो सवाल ही नहीं है।
भक्तिनाथ स्वयं चाहे कितना भी नाटक-प्रेमी आवारा हों या जो भी हो, इस राय परिवार की मर्यादा के विषय में पूर्ण रूप से सचेतन है वह।
पर उसके समर्थन या असमर्थन की कौन परवाह कर रहा है? औरत को एक बार पैरोंतले धरती मिल जाय, फिर वह किसकी परवाह करती है? इसके अलावा मनीषा तो डरनेवालों में से है भी नहीं।

इसलिए जब भक्तिनाथ ने कहा, "नौकरी की ऐसी क्या जरूरत पड़ गई? क्या खाना-कपड़ा नहीं मिल रहा था?"
तब मनीषा ने अनायास ही कहा, "खाना और कपड़ा ही सबकुछ है क्या? और उस समस्या को सुलझाने के लायक नौकरी तो यह है भी नहीं।"
"समस्या आजादी की है, यह मैं समझता हूँ। मगर किसी से एक बार पूछने की भी जरूरत नहीं समझी? मुझसे न सही, मझले भैया से एक बार पूछना चाहिए था कि नहीं?"
"जाते समय तो बताकर ही जाऊँगी।"
"वह पूछना तो नहीं हुआ न!"
"पूछने पर अगर मना कर दें तो? फिर तो सारा प्लान ही चौपट हो जाएगा।"
भक्तिनाथ समझ गया कि बात में तर्क है। मझले भैया मना करते तो मनीषा टाल नहीं सकती।.... परंतु क्या वह मना करते?
एक अंतिम चेष्टा करने के लिए भक्तिनाथ बोला, "अभी परसों ही देबू इतनी बड़ी बीमारी से उठा और आज उसे अकेले छोड़ कर...''
मनीषा हल्के स्वर में बोली, "ओ माँ! अकेले क्या? मेरे सिवा और कोई नहीं है क्या इस घर में?"

मनीषा की राय में घर में ढेर लोग हैं परन्तु दलान की चौकी पर बैठकर व्रतीनाथ बोला, "घर में किसी की आहट क्यों नहीं मिल रही हैं मझले चाचा?"
ऐसा कह सकता है वह।
व्रतीनाथ के शैशव, बाल्य तथा यौवनकाल के दिनों की याद आज भी स्पंदित होती है अनेक कलकंठों के समारोह से। कितने सारे लोग तब इस घर में रहते थे। बीमार ही सही, पर माँ थीं, अनब्याही तीन-चार बहनें थीं।...बीच-बीच में दूर के रिश्ते की एक बूआ आती थीं, उनके ही तो कितने बच्चे थे। भैया, छोटे चाचा, व्रतीनाथ स्वयं भी तो कम जोशीले नहीं थे।
एक बूढ़ी महरी होती थी, खेत का मजदूर होता था और भी कितने सब थे। उन दिनों तो खटाल में गायें भी थीं। भरा-पूरा परिवार था, लक्ष्मी की कृपा थी। बाहर चले जाने के बाद से जब भी घर आता है, विशेषकर पूजा की छुट्टी के दिनों में, तो पुराने जमाने के उस समारोह का थोड़ा आभास मिल पाता है। सभी की छुट्टी रहती है। बहनें भी आती हैं।
इस बार जैसा सामान्य दिनों में कभी आया नहीं व्रती। घर-भर के काम-काजी लोग निकल जाने पर घर कैसा लगता है, यह उसने देखा नहीं।
इसीलिए एक असहाय स्वर में उसने पूछा, "घर में किसी की आहट क्यों नहीं रही है, मझले चाचा?"

शक्तिनाथ बात को टालते हुए हँसकर बोले, "तेरी बूआ की तबीयत शायद ठीक नहीं है।"
उसी समय कहीं से क्षेत्रबाला का स्वर गूँज उठा, "बूआ की तबीयत ठीक ही है। पर धीरे-धीरे घर की बहुएँ भी सुबह-सुबह दाल-भात खाकर लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ रही हैं व्रती। अकेले बुआ कितना शोर कर सकेगी?"
"बूआ अकेले ही सौ के बराबर है।" शक्तिनाथ बोले।
फिर बहुओं के दफ्तर जाने के समाचार से लेकर बहुत सारी बातें जान गया व्रतीनाथ। रमोला के अचानक पत्र लिखने का कारण भी पता चल गया।
अवाक् होकर बोला, "यही कारण है?''
शक्तिनाथ भी अवाक् हो गये थे।
उस अपमान-भरी रात की घटना के अगले दिन ही क्षेत्रबाला ने कहा था, "आज ही तुम व्रती को एक चिट्ठी लिख दो भैया, चिट्ठी मिलते ही आ जाए-''
शक्तिनाथ ने अवाक् होकर कहा था, "चिट्ठी लिखकर बुला भेजूँ? क्यों?'' 
"कहोगे नहीं? उसकी बेटी, उसकी जिम्मेदारी है।"
शक्तिनाथ ने सचमुच बड़े हैरान होकर पूछा था "मगर लिखूँगा क्या? घर की दो लड़कियाँ एक दिन ट्रेन लेट होने के कारण देर रात से घर लौटी थीं, यही तो बात थी। इसके लिए चिट्ठी मिलते ही चले आने को कहूँ?"
शक्तिनाथ ने नहीं लिखा था, पर उनकी कार्यकुशल बहू रमोला ने शक्तिनाथ का यह कर्तव्य पूरा कर दिया था। जिस कारण व्रतीनाथ ने हैरान होकर पूछा था, "यही कारण है?"
व्रतीनाथ के साथ बात करते-करते ही किसी ने बाहर से पुकार लगाई "बाबू साहब, बाबूसाहब?"
शक्तिनाथ बोले, "कौन है रे? राजन मिस्त्री की आवाज लग रही है!''
व्रतीनाथ आज हर बात पर ही हैरान हो रहा है।
हैरान होकर वह बोला, "अभी तक वह राजेन मिस्त्री है?''
"हाँ, देख तो रहा हूँ!" कहकर शक्तिनाथ बाहर निकल आये।
व्रतीनाथ भी साथ निकल आया। उसने देखा एक आदमी हड्डी का ढाँचा, लकड़ी जैसे सूखे हाथ-पाँव, दलान पर बैठा है।
शक्तिनाथ को देखते ही भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया और टूटी कर्कश आवाज़ में बोला, "मझले बाबू हम राजन मिस्तिरी हैं।"
व्रतीनाथ अविश्वास-भरे स्वर में बोला, "तुम राजन मिस्त्री हो? क्या बकते हो?" 

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