नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
|
7 पाठकों को प्रिय 375 पाठक हैं |
इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
"चिट्ठी मिलते ही जाने को लिखा है? किसने लिखा है?" व्रतीनाथ ने आश्चर्य से
पूछा।
पत्नी सविता बोली, "लिखा तो दीदी ने ही। कारण समझ में नहीं आ रहा है। कहीं
शती कोई तबीयत खराब तो नहीं हो गई?"
क्या व्रतीनाथ को भी यही डर नहीं था? माता-पिता के दिल में डर ही तो समाया
रहता है। फिर भी व्रतीनाथ उस डर को भगाने के लिए तर्क और बुद्धि का सहारा ले
रहा था। बोला, "अरे नहीं! वह क्यों बीमार होने लगी? ऐसा होता तो भैया या मझले
चाचा या छोटे चाचा ही लिखते।"
"बात तो सही है।"
जो रमोला जिन्दगी में कभी एक पोस्टकार्ड तक नहीं लिखती है, वह लिफाफे में
चिट्ठी लिख बैठी! मगर केवल दो लाइन। 'रहस्य' ही लगता है।
सविता का दिल काँप उठा।
शायद व्रतीनाथ का भी।
कहीं बेटी ने मुँह काला तो नहीं कर लिया? माँ-बाप की नजरों से ओझल है! यही
बात है! जरूर यही बात है। तभी रमोला ने डोर सम्हाली है। शायद घर के पुरुषों
को अभी तक पता नहीं चलने दिया है।
दोनों की नौकरी अच्छी है, जिम्मेदारी भी है। झट से निकल पाना मुश्किल
है। फिर भी एमर्जेसी की बात अलग है। धड़कते दिल लेकर दोनों छुट्टी की अर्जी
देकर ट्रेन में चढ़ बैठे।
जब अपने गाँव मंडल विस्तर पहुँचे, डेली पैसेंजरों की भीड़ तब भी जारी थी।
कुछ जाने-पहचाने लोग उन्हें देखकर हैरान हुए।
"व्रतीनाथ हो न? अरे! घर को तो-''
"व्रतीनाथ भैया? बड़े दिनों बाद!"
"राय चाचा आये क्या?"
"घर की खबर पाकर आये क्या?"
"बस, इतना ही।"
"अधिक देर तक ठहरने की फुर्सत नर्हों है किसी को। और पुराने ज़माने की तरह
दूसरों के बारे में जानने का उतना कौतुहल भी नहीं है अब लोगों में।"
"कौन किसकी परवाह करता है अब? अरे, अपने झंझटों से फुर्सत हो तब तो! जानकारी
तो बाद में आराम से भी ली जा सकती है।"
केवल एक गगन घोष ने ही खड़े होकर दो-चार बात की-"आ गये हो? बहुत अच्छा किया।
एक-आध बार आना जरूरी भी तो है। इसके अलावा तुम्हारी बेटी भी तो यहाँ है,
तुम्हारा तो... ''
...। खैर, घर के मामले में आये हो क्या? टेलीग्राम मिल गया था? चलो आ गये,
बहुत अच्छा किया। तुम तो अपने भैया से होनहार हो, वैह तो साधारण आदमी है!
तुम्हीं को तो...''
रिक्शे पर चढ़कर दोनों ने एक-दूसरे से पूछा, "कुछ समझे क्या?"
दोनों ने सर हिलाया।
"घर का मामला कहने का अर्थ क्या हुआ? घर को क्या हो गया?" हालाँकि क्या हुआ
यह घर जाते ही पता चल गया।
उस दिन के भीषण आँधी-पानी से छत की कोठरी का एक भाग ढहकर नीचे बाँस-बगान पर
जा गिरा।
इतनी-सी बात पर धमाका इतने जोर का हुआ, यही आश्चर्य की बात थी। अगले दिन सुबह
होते ही तो सारी प्राकृतिक विपदा गायब होकर धूप निकल आई, और भक्तिनाथ का सारा
कलंक धोकर सवेरा होते ही देबू का बुखार उतर आया।...
विश्वास न हो, फिर भी यह सच है कि सुबह होते ही क्षेत्रबाला ने सम्हाल कर रखी
हुई लकड़ी और गोयठे से चूल्हा जलाकर टाइम पर भोजन भी पका दिया और वह भोजन खाकर
जिसे जिधर जाना था, चले भी गये।
क्षेत्रबाला को तो इस घर का पता था ही। पड़ोसियों को वह कहती ही रहती है, "हर
घर में दफ्तर या स्कूल से लोग छुट्टी लेते हैं! नहीं है छुट्टी तो सिर्फ इस
'रायमंजिल' में-दुनिया उलट जाय तो भी समय होते ही ये लोग स्टेशन दौड़ेंगे।"
सबको इसका सबूत मिल भी गया।
परन्तु उस प्रलय काण्ड के अगले दिन से ही 'टाइम' पर खाने वालों में एक और
थाली बढ़ेगी इसका पता क्षेत्रबाला को नहीं था।
क्षेत्रबाला को लगा उस दिन आँधी से जो नहीं हुआ था, आज वही हो गया। सर पर
मानो छत गिर पड़ी।
किसे पता था भीतर-ही-भीतर मनीषा यह चक्कर चला रही थी?
शक्तिनाथ पूजा-गृह से निकल रहे थे, अचानक छोटीबहू को आकर प्रणाम करते देख कर
हड़बड़ा गये। बोले, "ठीक है रहने दो! कल्याण हो! क्या छोटीबहू के मैके जाने की
बात थी खेतू?" क्षेत्रबाला पास ही खड़ी थी। गंभीर और बेज़ार स्वर में बोली,
"नहीं! उससे भी अच्छी जगह। ऑफिस जा रही है तुम्हारी छोटीबहू! एक और डेली
पैसेंजर बढ़ा।"
इस बात पर कोई टिप्पणी नहीं की उन्होंने! केवल बोले, "सम्हल कर जाने को
कहना।''
"अकेले नहीं जा रही है भैया, बेटा साथ है! माँ का साथ देने के लिए
सवेरे-सवेरे उसने भी खाना खा लिया। नहीं तो उसका कॉलेज तो देर से शुरू होता
है।"
बेटा साथ में है, पति का भी समर्थन अवश्य ही होगा, फिर इसमें शक्तिनाथ की राय
के लिए जगह ही कहाँ? और राय दें भी क्यों?
अगर यह जानने का कौतूहल हो भी कि केवल इंटरमिडियट की डिग्री के बल पर डस उम्र
में छोटी बहू को कहीं नौकरी मिल गई तो उसे कौतूहल पर रोक लगाना ही अच्छा
होगा।
अत: शक्तिनाथ ने केवल बुदबुदा कर धीरे-से आशीर्वाद दिया। उसके बाद देखते रह
गये, मंडल विष्णुपुर के इस राय-परिवार से योगनाथ राय की पुत्रवधू कंधे पर बैग
लटका कर मुहल्ले भर के लोगों के साथ लोकल ट्रेन पकड़ने के लिए भागी डेली
पैसेंजरी करने के लिए।
बेटा साथ में तो है जरूर, पर क्या माँ को बेटे का समर्थन मिल सका है? माँ के
निर्देशानुसार उसने किया तो बहुत-कुछ, उन्नीस वर्ष के उस लड़के ने माँ के लिए
एक नौकरी तक का इंतजाम कर दिया। माँ का आवेदन-पत्र लेकर
स्वयं जाकर मिला सम्पर्कित व्यक्ति से।
नौकरी कुछ खास नहीं, तुच्छ ही है।
पश्चिम बेग रेशम भंडार की एक शाखा में 'सेल्स' का काम देखना है। फिर भी वह
मुक्ति का द्वार तो है! उसी द्वार से होकर तो मनीषा अपनी घुटन-भरी जिन्दगी के
बाहर खुली हवा में साँस ले सकेंगी!
|