नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
उसकी आँखों के सामने एक हट्ठे-कट्ठे, घुँघराले लम्बे बालों वाले नौजवान की
छवि उभर आई।
राजन ने कुछ देर निरीक्षण करके पूछा, "छोटे भैया आये हैं क्या?"
"अरे। तुम तो मुझे खूब पहचान गये। मैं तुम्हें बिल्कुल नहीं पहचान पा रहा
हूँ। तुम सचमुच राजन मिस्त्री हो?"
"राजन के तन पर एक चिथड़े जैसी चादर थी। उसी को बदन पर लपेटकर बोला, "ठीक ही
बोले हैं, छोटे भैया! राजन नहीं, उसका प्रेत है। हालत के फेर-बदल से जिन्दा
आदमी ही भूत-प्रेत बन जाता है।''
शक्तिनाथ बोले, "तेरे मुँह से तो हमेशा बड़ी-बड़ी बातों की फुलझड़ी छूटती है। आज
ऐसा हाल हुआ क्यों? बीमार पड़ गया था क्या?''
राजन ने एक लम्बी साँस ली। चादर के नीचे से दिखाई पड़ा, उसका पेट दुबक कर
गड्ढे में समा गया और फिर तन गया। साँस छोड़कर राजन बोला, "और कोई
बीमारी उमारी नहीं है बाबू, बीमारी है गरीबी।"
"तो इतनी गरीबी भी कैसे हो गई?" सहानुभूति के स्वर में व्रतीनाथ ने पूछा,
"कैसा चेहरा था तुम्हारा!"
निराश स्वर में राजन बोला, "अब चेहरा का होगा! जमराज उठा ले तो बच जाएँ। मगर
मउत भी कहाँ? दुखियारे को मउत भी नहीं आता है। हाँ, मगर दो दिन भर-पेट खाने
को मिल जाय तो अब भी चेहरा पलट जायगा।''
दबी आवाज में व्रतीनाथ बोला, "बूआ से बोलकर आऊँ मझले चाचा?'' इशारे से
शक्तिनाथ ने कहा, बाद में।
शक्तिनाथ के मन के भीतर से एक अवरुद्ध आवेग उभरने लगा। इस घर के दरवाजे पर
आकर कोई भूखा वापस नहीं जाता था, यह बात व्रती को आज भी याद है!
हो सकता है व्रती अपने बचपन के सुनहरे दिनों को यहीं छोड़कर गया था, उन्हें
आज फिर अपने हाथों में लेना चाहता है।
लेकिन जो यहीं रहे उनलोगों ने तो उस अमूल्य वस्तु को कहीं सहेज कर नहीं रखा,
प्रतिदिन के उपयोग की वस्तु की तरह उदासीनता के साथ नष्ट कर दिया, खो दिया।
शक्तिनाथ बोले, "तब राजन! हाल-चाल बताओ। बीवी-बच्चे सब सलामत हैं न?''
राजन सामान्य स्वर में बोला "बुढ़िया तो दो साल हुआ मर गई, मझले बाबू! पेट में
पानी भर गया था। बहुत बीमारी भोगने के बाद गई।"
मरने की बात इतनी स्वाभाविक है कि किसी की मौत की खबर से चौंकने का कोई कारण
नहीं है। फिर भी अचानक किसी के मरने की खबर सुनकर आदमी चौंक भी उठता है।
उसी स्वाभाविक नियम के अनुसार शक्तिनाथ बोले, "अच्छा? आहा!''
उदास स्वर में राजन बोला, "आप 'अहा' बोलते हैं बाबू हम नहीं कहते। ऊ तो मरकर
बच गई। जइसा कुलांगार पैदा किया था।"
बात करते-करते राजन उत्तेजित हो उठा। बोला, "अइसा कभी सुने हैं बाबू न देखे
हैं? भाई-भाई झगड़ा करके अलग हो गया! अपना बीवी-बच्चा लेकर पकाता-खाता है और
बुड्ढा बाप भूखा मर रहा है, कोई पलट कर नहीं देखता है।"
शक्तिनाथ उदास हँसकर बोले, "इस दुनिया में बहुत पहले आया राजन बहुत-कुछ
देखा-सुना भी।... मगर तेरे सारे बेटे ही नालायक हैं क्या?"
"उही तो बात है बाबू। पहिले-पहिले हम भी सोचे थे कि तीनों का जनम एक ही
नच्छतर में तो नहीं हुआ, फिर एक ही जैसा अकल काहे होगा? बाद में पता चला इ सब
चलाकी है। थोड़ा हमदर्दी करने से अगर बाप उसके गले पड़ जाय इसी डर से कोई अब
झाँकता भी नहीं है।"
राजन खुले आसमान के सूनेपन की ओर देखकर बोला, "आँख पर से सरम का परदा ही हट
गया, यही बड़ा दुख लगता है बाबू। एक ही आँगन के इस पार और उस पार। बाँस के
बेड़ के उस पार चावल पक रहा है, अनाज पकने का खुशबू आ रहा है, सामने से मटकी
में भरकर चँदा, पूँटी, आड़...कितना मछली झील से पकड़ कर लाता है! कभी एक बार
पूछता नहीं, बापू आज तुम...।"
राजन चुप हो गया। रुँधे हुए स्वर को साफ करके बोला, "रहने दीजिए उ सब बात।
अभी काम का बात करते हैं, जिसके लिए आये थे।"
या तो पैसे माँगेगा या धान-चावल, यही सोचकर चुपचाप शक्तिनाथ उसकी ओर देख रहे
थे।
परन्तु नहीं। वह सब माँगने नहीं आया था राजन। उसे काम चाहिए था।
काफी इधर-उधर की बात करके जो बात उसने सामने रखी वह यह थी कि शक्तिनाथ के घर
का अभी जो हाल हुआ, उसकी मरम्मत होनी चाहिए। नहीं तो नींव तक पानी जमकर पूरा
ही ढह जाएगा। वही मरम्मत का काम राजन करना चाहता है।
शक्तिनाथ अवाक् होकर बोले, "तू करेगा? तुझसे हो पायेगा?"
"देकर ही देखिये बाबू! रोजगार बन्द है, इसीलिए सूखकर चमगादड़ जइसे हो गये हैं।
मगर हाथी मर जाय तब भी सवा लाख का होता है। बेटा लोग इतना बइमान है बाबू कि
हमारा काम सब हथिया रहा है और कहता है बापू का दिमाग खराब हो गया है।"
शक्तिनाथ बोला ''राजन, आज तू बूआजी के पास खाना खाकर जाना।" राजन अचानक जैसे
बुझ-सा गया। जल्दी से बोला, "नहीं मझले बाबू आज रहने दीजिए, जब काम करेंगे तब
खा लेंगे। आज-कल में शुरू कर देते हैं। अइसा टूटा हुआ दीवार पड़ा-पड़ा सीढ़ी को
भी खराब कर देगा।''
शक्तिनाथ धीरे-से बोले, "जो टूट रहा है उसे टूट जाने दे राजन, अब उसे मरम्मत
करने की जरूरत नहीं।"
व्रतीनाथ चौंककर बोला, "यह क्या कहते हैं मझले चाचा? जरूरत नहीं है?"
शक्तिनाथ उस तरह के आदमी नहीं थे कि राजन को टालने के लिए ऐसी बात कहेंगे,
इसीलिए व्रती चकित हुआ।
इस घर को मझले चाचा जान से अधिक समझते हैं, यह तो व्रती को पता है। फर्श पर
कहीं ज़रा-सी दरार पड़ जाए, दीवार से कहीं अगर पलस्तर गिर जाय, उसी समय
मिस्त्री को बुलवा भेजते हैं मझले चाचा।
शक्तिनाथ ब्रतीनाथ की ओर बिना देखे ही धीरे-धीरे बोले, "सभी चिड़ियाँ दीमक लगे
वटवृक्ष की डाली को छोड़कर नये घोंसले बनाने के लिए नये वृक्षों की खोज में
निकल रही हैं। अब पुराने वटवृक्ष को पड़े-पड़े मृत्यु का इंतजार करना है।"
राजन आवाज नीची करके बोला, "मझले बाबू को शायद नींद आ गया, उमर होने से भात
खाने के बाद ऐसा होता है। बाद में आकर बात करेंगे।"
शक्तिनाथ हँस पड़े। बोले, "अभी तक भात खाया कहीं राजन? व्रती आ गया, अब एकसाथ
खायेंगे। तू क्यों नहीं खाएगा रे? बूआ के हाथ का खाना खाकर जा।"
पहले राजन खाने के लिए मना कर रहा था, मगर जब खाया उसने तो इतना खाया कि
देखकर डर लग जाय।
परितृप्त होकर भोजन किया राजन ने और जाते समय फिर बोला, "घर के लोग सब घर
छोड़कर शहर चले जा रहे हैं, इसीलिए आप घर को गिरने के लिए छोड़ देंगे, इ ठीक
बात नहीं है मझले बाबू। एक बार फिर सोचकर देखिएगा। छोटे भैया तो बोल ही रहे
हैं पइसा के लिए नहीं रुकेगा।"
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