लोगों की राय

नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

375 पाठक हैं

इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


मुक्तिनाथ के कलेजे को धक्का लगा, उसी चोट से मुँह से शब्द निकल पड़े, "भूती चली गई क्या?"

"चली गई?" मधुमिता आश्चर्य के साथ बोली, "कहाँ चली जायगी?"
मधुमिता को आश्चर्यचकित होते देखकर मुक्तिनाथ सकपका गया। समझ गया कुछ अटपटी बात कर दी उसने। इन चंद घंटों के भीतर जाना संभव नहीं है।
अब उस संकोच को छिपाने के लिए बोला, "जा ही सकती है। आजकल की आज़ाद नारी हैं ये लोग!"
"लड़कियाँ जहाँ चाहे वहीं नहीं जा सकती हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं बाबूजी!" रुँधे हुए स्वर में अनिन्दिता बोलीं।
थोड़ी देर पहले ही मुक्तिनाथ ने जो हिम्मत जुटाई थी वह अचानक मानो बुझ गई। यहाँ से खिसक जाना ही उचित समझा उसने।
अकेले में तो बड़ी हिम्मत आ जाती है, इनके सामने आते ही पता नहीं क्या हो जाता है उसे। फिर भी हिम्मत करके बोला, "लड़कियाँ आजकल सबकुछ कर सकती हैं। भैया लोग लौट आये?''
"भैया लोग? भैया लोग भला शाम होते ही कभी घर लौटते हैं, बाबूजी?"
"वही तो कहता हूँ। सबके सब मस्तान हो चले हैं-" कहकर वहाँ से निकल गया मुक्तिनाथ।
रमोला का कमरा अँधेरा था।
कमरे से किसी परफ्यूम की हल्की खुशबू आ रही थी। इसका अर्थ है रमोला के सर में दर्द हुआ होगा। अर्थात् इसी कारण मच्छरों के बहाने मच्छरदानी भी टँग गई होगी।
बची-खुची हिम्मत दरवाज़े के बाहर छोड़कर भीतर गया मुक्तिनाथ। अँधेरे में ही उसने अंदाजा लगाने की कोशिश की कमरे में और कोई है कि नहीं।
नहीं। निश्चिंत होकर मच्छरदानी के भीतर हाथ घुसाकर रमोला के ललाट को टोहते हुए दबी आवाज़ में बोला, "बहुत सर-दर्द हो रहा है क्या?''

देवकुमार को आज अचानक बुखार आ गया है। और आज ही मनीषा को नीचे उतरना पड़ा। शायद इसे ही भाग्य का परिहास कहते हैं।

खैर, शाश्वती अपने-आप आकर उसके पास बैठी। हँसकर बोली, "आप लोगों के चौके में हाथ बँटाने की क्षमता मुझमें तो नहीं है, छोटीदादी! उससे अच्छा है मैं यहाँ बैठकर पंखा झलती हूँ।"
माथे पर पट्टी लगे हुए देवकुमार को पंखा ही झल रही थी शाश्वती। और मानो उसी की हवा के साथ मन उड़ता चला जा रहा था दूर कहीं, जहाँ आलोक नाम का एक लड़का खूब हँस रहा था। ढेर सारी बातें कर रहा था। चौंका देने वाली टिप्पणियाँ कर रहा था और रह-रह कर चश्मे के भीतर से सामने वाली की ओर ऐसी अन्तर्भेदी दृष्टि डाल रहा था कि सामने वाली को अपने अन्तर्लोक पर कोई आवरण रख पाना कठिन हो रहा था।
"क्या मैं इतनी सस्ती लड़की हूँ कि 'दर्शन मात्र से ही प्रेम संचार' जैसे एक तमाशे की नायिका बन रही हूँ?" ऐसा सोचने की कोशिश कर रही है शाश्वती पर यह भावना टिक नहीं पाती है। बार-बार ही उस आत्म-अनुसंधान के रास्ते से फिसल जाती है और गिर पड़ती है उसी प्रेम की खाई में।
क्या कल मुलाकात होगी फिर?
मेरे बस में तो कुछ नहीं, अगर वह कोशिश करे तभी कुछ हो सकता है।

अनिन्दिता अकेली नहीं है, पास ही मधुमिता बैठी है। उम्र में कम हुई तो क्या, सयानी कम नहीं है किसी से। उससे डरती है अनिन्दिता। मगर मन के भीतर कोई टॉर्च की रोशनी डालकर देख नहीं सकता है, यही गनीमत है।
तभी तो अनिन्दिता सोचने लगी, माँ ने शुरू से ही ठीक कहा शा। उस शाश्वती के साथ इतना घुल-मिल कर मैंने ठीक नहीं किया। उसी के कारण तो यह सब हुआ।
इधर असली मामले में तो वही आगे निकल गई। दुख मेरे पल्ले और सुख सारा उसका!
शुरू में तो चित्रा के भैया मेरी ओर ही ज्यादा ध्यान दे रहे थे, उसी ने रंग-ढंग दिखाकर अपनी ओर खींच लिया।
मगर मैं चुप नहीं रहूँगी, घर में सबको बता दूँगी। माँ को तो पहले ही बताऊँगी। क्यों न कहूँ? अपनी बदनामी का डर नहीं है मुझे? प्रेम करेगी ये और बदनामी की भागीदार मैं बनूँ? वह सब नहीं चलेगा।
उसकी चिंतन-क्रिया विभिन्न गलियों में घुमाती रही उसे।
पता नहीं कब मामी के भाई का वह फ्लैट हासिल हो पाएगा। सुना है, जनवरी की पहली-दूसरी तारीख से पहले नहीं होगा। इधर उस समय तो पूस का महीना चलेगा। इसका अर्थ हुआ और कुछ दिन रुकना पड़ेगा। उफ! ये पूस और भादो ने गड़बड़ कर रखा है। हर बात में अड़चन डालने के लिए बैठे हैं जैसे!
एक बार इस घर की चौहद्दी से निकल जाएँ तो फिर कौन पूस और भादो, इतू पूजा, जय मंगलचंडी की परवाह करेगा?
उठते-बैठते यहाँ केवल नियम और कानून समझो। उफ्, अजीब जगह है। फिर पुरानी सोच वापस आ गई। माँ से किस तरह यह बात कहेगी, सोचने लगी अनिन्दिता। क्या सीधे कह देगी, 'माँ, तुम्हारे देवर की कन्या प्रेम कर रही है,' या किसी और तरीके से?
मधुमिता कहानी की किताब से आँख उठाकर बीच-बीच में दीदी की ओर देख लेती थी। खूब पता चलता था दीदी एक प्रेम कहानी की नायिका बनी बैठी है। कलकत्ते की ही कहानी होगी अवश्य ही। लड़का भी कॉलेज का ही होगा।
अर्थात् दीदी के तो सोलहों आने सुख के दिन हैं। कलकत्ता ही तो जा रहे हैं हमलोग।
और मधुमिता? कैसी करुण अवस्था है उसकी।
बुद्धू मोहन कहता है, "तुमलोग कलकत्ते चले जाओगे तो मेरी लाश उठेगी घोष-पोखर के पानी से। देख लेना!"
पता नहीं आगे क्या होगा!
अचानक कलकत्ते जाकर दो कमरों के फ्लैट में गृहस्थी बसाने की क्या ज़रूरत पड़ गई माँ को? यह घर मानो काट खा रहा है उन्हें। कलकत्ते में ऐसा बड़ा घर मिलेगा क्या? इतनी ज़मीन, ऐसे पेड़-पौधे, फल-फूल?
यहाँ की हवा में क्या नशा है, आकाश में क्या चमक है!
यह बात सच है कि कुछ दिन पहले तक मधुमिता भी कलकत्ता जाने के लिए बड़ी उत्सुक थी। माँ के गुप-चुप सलाह-परामर्श में साथ भी देती थी, परंतु अब परिस्थिति भिन्न है। उसके मन का परिवर्तन हो गया है। मधुमिता भी अब बदल चुकी है।
भीतर-ही-भीतर मोहन इतना सयाना था, किसे पता था? उसका वह अमरूद तोड़कर ला देना, कमल के फूल तोड़कर लाना, पानी में उतर कर पानीफल तोड़ लाना और घर से छुपाकर अचार लाकर देना उसके प्रेम की ही पराकाष्ठा है, यह अब तक मधुमिता नहीं समझती थी। बुद्ध लड़के को ज़रा चढ़ाकर फायदा उठा लेती थी और मजे लेती थी।
मगर अब पता चल रहा है बात बड़ी गंभीर है। जैसा वह कह रहा है, अगर कहीं सचमुच कर बैठा तो? तब क्या होगा? हे माँ काली! मामी के भाई का वह
फ्लैट नहीं मिले तो बड़ा अच्छा हो!
वैसे तो इस सड़े-पुराने गाँव में दिनभर दादी की खिट-पिट और नाना की गंभीर बातों के बीच दिल लगता नहीं है, मगर बीच से मोहन ने ही फँसा दिया। इतना समझाती हूँ कि तुम भी कोशिश लगाकर कलकत्ता चले आओ, मगर कहता है, 'मेरे नसीब में कलकत्ता नहीं है।' अच्छी मुसीबत है!
दीदी है मजे में।

दिन रहते ही बारिश शुरू हो गई आज। शाम होते-होते और बढ़ चली है। कार्तिक के महीने में ऐसी वर्षा बरसों में हुई हो, ऐसा किसी को याद नहीं आता है। जिनके बाल पक गये उन्हें भी नहीं।
हाँ, एक बार हुई जरूर थी जाड़े के दिनों में बरसात, वही-जिस वर्ष भूकम्प आया था। मगर वह तो माघ का महीना था। माघ में बारिश फिर भी देखी है लोगों ने, मगर यह क्या हो रहा है?
होगा और क्या! अगहन के धान की बर्बादी होगी, और क्या? जिन्हें खेती-बारी से कुछ लेना-देना नहीं वे भी इस बरसात को देखकर आशंकित हो रहे हैं और जिनका लेना-देना है, उस धान-की खेती पर ही जो जीवन बसर करते हैं, उनकी आँखों के सामने तो धीरे-धीरे मौत का अँधेरा मँडरा रहा है।

अदृश्य लोक में बैठे उस विश्व-नियंता का यह एक खेल ही तो है। कितने परिश्रम से अपने खेतों को सीच कर जब किसानों ने अपने सपने साकार किये, ऐसे में उनकी पकी फसल को तहस-नहस कर दिया।
केवल खेत की फसल ही क्यों, जीवन की हर फसल के क्षेत्र में ही तो उनका यह कौतुक चलता है।

धान उगाने वाले मुकुंद, हरिहर, किसना, अब्दुल और अब्बास की तरह माथे पर हाथ रखकर बैठा है नाट्यकार भक्तिनाथ राय भी।
कल उसका नाटक मंच पर आने वाला है। काली मंदिर के आगे मैदान में पंडाल बन चुका है, घर-घर की दीवार पर, स्टेशन के खंभे पर, छत पर, खूँटों पर, दुकानों के आगे-पीछे, गोयठे ठोकने वाली चार-दीवार पर, हर जगह पोस्टर सीट दिये गये हैं-"मंडल विस्तर के तरुण संघ के वार्षिकोत्सव के उपलक्ष्य पर 'हमारा नाटक दल' प्रस्तुत कर रहा है 'खून में ज़हर'। स्थान : काली-थान का मैदान, समय : संध्या छ: बजे। परिचालक श्री भक्तिनाथ राय। आइये, देखिये! आज के समाज की नस-नस में फैले जहरीले जलन का ज्वलंत चित्र!"
भक्तिनाथ राय की नस-नस में ज्वलंत अग्निशिखा दहक रही है, और ऐसे 
में यह बरसात...रात जैसे-जैसे बढ़ रही है, बारिश भी और तेज होती जा रही है।
नाट्य-परिचालक का संदेश लिखना अभी तक पूरा नहीं हुआ था, उसी को लेकर नाक में दम हो रहा था वह। बारिश की हालत देखकर और लिख नहीं सका। तब से बेचैन हुआ जा रहा है।
भगवान्, यही था तुम्हारे मन में? मुकुंद, हरिहर, किसना और अब्दुल की तरह ही माथे पर हाथ रखकर भक्तिनाथ बोला, "भगवान्, यही था तुम्हारे मन में!"
अब तक तो शायद पंडाल पानी में गलकर लटक गया होगा। इतना खर्च करके छपवाये गये पोस्टर सारे धुल गये होंगे और वह मैदान अब मैदान क्या रहेगा, कीचड़ की नदी बन गई होगी वहाँ पर!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book