नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
उसने सोचा, शुरू से ही मैं उसे कह सकता था, शिकायत करनी हो तो अपने माँ-बाप
के पास जाकर करो! मेरे पास क्यों करती हो? मैं तो तुम्हें लूटकर भी नहीं
लाया, पाँव पकड़ कर खुशामद करके भी नहीं लाया। तुम्हारे बाप-भाई मेरे पाँव
पड़कर तुम्हें थमा गये थे। किसने कहा था उन्हें कि अपनी दुलारी बेटी का ऐसे
गाँव में रिश्ता करें?
दफ्तर के यादव बाबू ठीक ही कहते हैं, "गर्म-दिमाग पत्नी को ठंडा करने की
एकमात्र दवा है मैके के ताने।" समझे भैया, एकदम चढ़ कर बोलती है।...मैं तो भाई
पत्नी को जरा भी अकड़ते देखता हूँ तो कह देता हूँ 'तुम्हारे जैसे हीरे को
तुम्हारे बाबूजी ने एक अभागे दामाद के हाथों सौंपा ही क्यों था? किसी
राजकुमार के हाथों नहीं सौंप सके?' और कड़ा डोज देना हो तो कहता हूँ 'यह घर
नहीं सुहाता तो चली जाओ अपने उस सुखद मैके में। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा।'
खैर, वह तो होने से रहा। आजकल के बाप-भाई इतने मूरख नहीं हैं कि कच्चे-बच्चे
समेत बेटी को ले जाकर चार-छ: महीने रख लेंगे।...हाँ! जब तुम गोत्र बदल कर
दूसरे परिवार में आ बसी हो, तब तुम्हीं को अपनी आदतों को घिस-पीटकर यहाँ के
उपयुक्त बना लेना पड़ेगा। साला मैं क्यों अपने-आपको बदलने लगूँ? मेरी कोई
इज्जत नहीं है क्या? सगे-सम्बन्धियों के सामने मुँह दिखाने का प्रश्न है कि
नहीं!...तू बदलेगी तो मैके वाले तुझे देखकर हँसेंगे क्या? कभी नहीं। मगर जो
साला शादी करते ही बीबी के हाथों का पुतला बन जायगा उसे क्या सगे-रिश्तेदार
छोड़ देंगे? क्या हँसेंगे नहीं उस पर? 'नामर्द' कहेंगे कि नहीं?
हालाँकि यादव बाबू के जीवन-दर्शन को सभी हँसकर टाल देते हैं, अब तक मुक्तिनाथ
भी वही करता आया। मगर आज जब अचानक चोट पड़ी तो लग रहा है हँसकर टाल देने वाली
बात नहीं है यह। यह जीवन के लम्बे अनुभव की फसल है।
क्यों मैं इतना डरता हूँ रमोला से? रात की घटना के बाद उससे मेरी बात नहीं
हुई, सुबह भी नहीं। यह तो अच्छा हुआ कि छोटी चाची चौका सम्हालने के लिए आ गईं
तभी तो थोड़ा-बहुत खाकर चोरों की तरह घर से निकल पड़ा! मझले चाचा के साथ सर
उठाकर बात नहीं कर सका, बूआ की तरफ तो नजर ही नहीं उठी।...
...आज कई दफ्तरों में छुट्टी है पता नहीं किस कारण। गनीमत है कि हमारा दफ्तर
खुला है नहीं तो मुसीबत हो जाती। दिन-भर कहाँ बिताता, कैसे बिताता पता नहीं।
रमोला का यह कहना कि "तुमलोगों का क्या? घर में आँधी-तूफान आए, बिजली गिर
पड़े, आराम से खिसक कर दफ्तर जा बैठे रहोगे," कुछ गलत तो नहीं है। सुनकर क्रोध
तो आता है पर यह भी सच है कि जितनी भी मेहनत करनी पड़े, दफ्तर में शांति है।
एक तरह से एक आश्रय कहा जा सकता है इसे।
अपना अधूरा काम छोड़कर फाइल बन्द कर दिया मुक्तिनाथ ने। उसने निश्चय कर लिया
कि घर जाकर आज 'इस पार या उस पार' करके रहेगा। रमोला से माफी मँगवा कर छोड़ेगा
वह।
जिस मझले चाचा ने पितृहीन मुक्तिनाथ को पिता से बढ़कर प्यार देकर पाला, जीवन
में प्रतिष्ठित कर दिया, जिस बूआ ने मुक्तिनाथ की बीमार माँ की सेवा की, ऊपर
से मुक्तिनाथ और उसके भाइयों को पाल-पोस कर बड़ा किया, आज भी माँ से बढ़कर
प्यार दे रही हैं, उनकी भलाई ही सोचती रहती हैं, ऐसे लोगों का असम्मान
मुक्तिनाथ सहन नहीं करेगा।
और फिर यह अपमान किया किसने?
मुक्तिनाथ की पत्नी ने ही किया न?
छी: छी:! कितने शर्म की बात है? डूब मरने वाली बात है!
पत्नी के ऊपर मुक्तिनाथ नामक नालायक व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं है, यह बात
भी तो खुल गई।
आज मुक्तिनाथ अपने जीवन के सारे कलंक धो डालेगा।
मुक्तिनाथ आज से एक नये 'चरित्र' पर अभिनय करेगा।
यह सोचकर मुक्तिनाथ को थोड़ा चैन मिला और तब याद आया कि बड़ी भूख लगी है उसे
क्योंकि आज उसने टिफिन नहीं खाया। स्टेशन जाने से पहले चाय पी लेना आवश्यक
है। एक छोटी-सी चाय की दुकान पर जाकर टिन वाली कुर्सी खींच कर बैठा वह।
अगर उसके बीबी-बच्चे यह देख लें कि मुक्तिनाथ ऐसी रद्दी चाय की दुकान पर
बैठकर चाय पी रहा है तो ज़रूर दुत्कारेंगे उसे। पर उसे तो ऐसी साधारण श्रेणी
की दुकान ही पसन्द है।
पैसे कम लगते हैं, यही मुख्य कारण नहीं है, ऐसी जगहों में आकर उसे चैन मिलता
है। और अपनी पसन्द के पकौड़े-प्याजी और झाल-चने खा सकता है। शायद यही मुख्य
कारण है। हमेशा से ही इन चीजों को खाने का शौक बना रहा। कारण भी शायद एक ही
है। उम्र नहीं बढ़ी मुक्तिनाथ की, बालक ही रह गया वह।
पिछली रात को मंडल विष्णुपुर के राय-परिवार में नींव हिलाकर रख देने वाली एक
आँधी आई थी, अगले दिन देखकर ऐसा लग नहीं रहा था।
बस, थोड़ी-सी खामोशी, थोड़ी-सी घुटन थी। केवल सबके चेहरों पर एक उदासी, एक थकान
की झलक थी। किसी शोकग्रस्त परिवार के लोगों का चेहरा जैसा होता है, कुछ-कुछ
वैसा ही था।
काम का सिलसिला जारी था, केवल उमंग की कमी थी।
इस निरुत्साह कर्म-प्रवाह में शाम होते-होते सारे घर में और भी सुस्ती छा गई
थी।
हालाँकि दूर से ही मुक्तिनाथ ने देखा, शक्तिनाथ और दिनों की तरह बाहर दलान की
चौकी पर वैसे ही बैठे हैं परन्तु जाड़े की शाम का धुआँ-धुआँ अन्धेरा सर्द हवा
में लिपट कर आज कुछ ज्यादा ही घिर गया है। मुक्तिनाथ का दिल धड़क उठा, उसे लगा
घर में शायद कुछ हादसा हो गया है।
धीरे-से साइकिल को दलान पर उठाकर थोड़ी देर ठहरा वह। उसे डर था कि मझले चाचा
शायद बात नहीं करेंगे, मगर यह डर झूठ निकला।
उसके आते ही जैसे शक्तिनाथ हमेशा बोल पड़ते हैं, तन के चादर को अच्छी तरह लपेट
कर वैसे ही बोले, "ठंड तो काफी पड़ने लगी है, एक मफलर साथ रख लेना चाहिए।
लौटते समय-"
मफलर लेने की इच्छा मुक्तिनाथ को नहीं होती, ऐसी बात नहीं। जोशीली जवानी के
दिनों में भी जाड़े के प्रारम्भ में मफलर साथ में रखता था वह, जैसा पड़ोस के और
लोग रखते थे। लौटते समय गले में लपेट लेता था। साइकिल से लौटते समय हवा तो लग
ही जाती है।.....मगर रमोला ने पीछे पड़कर यह आदत छुड़ा दी है। उसके अनुसार
बरसात में छाते और जाड़ों में गर्म कपड़े का इस्तेमाल करना बिल्कुल गँवारपन है!
रमोला के भैया लोग ऐसी बात सोच ही नहीं सकते हैं।
धीरे-धीरे रमोला के बच्चों ने भी यही राग अलापना शुरू कर दिया है। अत:
मुक्तिनाथ को बुजुर्ग के सामने झूठ बोलना पड़ता है। कहना पड़ता है, आजकल उसे
बड़ी गर्मी लगती है इसलिए गले में कुछ लपेट कर नहीं रख सकता है।
मगर आज उसने ऐसा कहा नहीं।
बोला, "जी हाँ, वही सोच रहा था। काफी ठंड लग रही थी, कल से ले लूँगा।"
कहकर चैन की साँस ली उसने। थोड़ा झिझक कर साइकिल लेकर भीतर चला गया मुक्तिनाथ।
दलान की दीवार से लगे काठ के स्टैण्ड पर टिका दिया उसे, फिर साबुन-तौलिया
लेकर हाथ धोने गया। यह सब काम नीचे ही निपटा लेना पड़ता है।
पूजा के कमरे में बैठी क्षेत्रबाला माला जप रही थीं, उसे हाथ में लेकर ही
बाहर आ गई। धीरे-से बोलीं, "आ गया मुक्ति? दिन कितना छोटा होने लगा है, लगता
है, कितनी रात हो गई!"
'कोई प्रश्न नहीं, कोई खबर नहीं, कोई विशेष वार्ता भी नहीं,' ऐसे ही
मामूली-सी एक बात कही उन्होंने। अर्थात् सौजन्य निभा दिया। दिनभर के बाद जो
घर लौटा, उसके बारे में उदासीन कैसे रहा जाय? किस तरह उससे मुँह फेर कर बैठा
जाय?
केवल सौजन्य ही तो नहीं, स्नेह का स्पर्श भी तो था।
एक आदमी बाहर से 'घर' लौटा, उसे इसका अहसास तो हो!
प्रश्न नहीं था, अत: जवाब देने का भी सवाल नहीं था।
मुक्तिनाथ ने हवा में बात छेड़ी, "लगता है, इस बार ठंड जल्द ही पड़ जायगी।"
कॉरोगेट से घिरे हुए नहाने के कमरे की ओर जाते-जाते तिरछी नजर से मुक्तिनाथ
ने एक बार चौके के भीतर झाँक लिया। उसे लगा भीतर कोई काम कर रहा है। रमोला
जैसी तो नहीं लगी।
कौन है वह? क्या शाम को भी मझली चाची काम कर रही हैं?
मुक्तिनाथ का सीना जोर से धड़क उठा। खैर, चाय-नाश्ता करते समय पता लग जाएगा।
मुँह धोकर लौटा तब पता चला। हाँ, छोटीचाची ही हैं।
इसका मतलब रमोला ने उन्हें आड़े हाथों लिया। वैसे तो अक्सर वह सोचता है कि
छोटीचाची का किसी काम में हाथ न बँटाना बहुत गलत बात है।
पर आज ऐसा लगा कि उन्हीं के साथ अन्याय किया गया है। जो काम उनसे होता नहीं,
वही जबरदस्ती कराया जा रहा है उनसे।
चुपचाप चाय-नाश्ता कर लिया उसने। हाँ, और दिनों की तरह क्षेत्रबाला का प्रसाद
भी कुछ मिला। मन के आभार से मुक्तिनाथ झुक गया।
ऐसा स्नेह, ऐसी सहानुभूति, यह सब छोड़कर मुक्तिनाथ को रमोला नामक एक
स्वार्थी, अहंकारी तथा हृदयहीन नारी के आगे हार मानकर चले जाना पड़ेगा।
अचानक ही मुक्तिनाथ एक कठिन संकल्प कर बैठा, वह अपने बाप-दादा के इस घर को
छोड़कर कभी नहीं जायगा। कभी नहीं। रमोला की मर्ज़ी हो तो वह अपने भैया के
साले के फ्लैट में किराएदार बनकर रह जाय। मुक्तिनाथ कहेगा, "मैं क्यों जाऊँ?
मुझे तो यहाँ कोई तकलीफ नहीं है?''
ऐसा सोचकर उसके मन में एक जोश जागा। दृढ़ कदमों से सीढ़ियों से ऊपर चला आया।
नहीं, यहाँ स्नेह, सहानुभूति या सौजन्य की छाया तक नहीं थी।
सीढ़ी के किनारे वाले कमरे में दोनों लड़कियाँ हाथों में किताब लेकर बैठी हैं।
पिता की आहट पाकर आँख उठाकर भी नहीं देखा किसी ने।
यह लड़कियों का कमरा है। और दिन यहाँ तीनों लड़कियाँ रहती हैं, आज एक अनुपस्थित
क्यों है?
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