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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


अब भरोसा करने को बचा क्या? कल अगर बारिश कम भी हो तो परिस्थिति में कितना परिवर्तन हो सकता है? इधर स्त्री-चरित्र में अभिनय करने के कांता बोस और सोनाली सेन के साथ कॉन्द्रेक्ट हो चुका है, एडवांस भी दिया जा चुका है। अगर अब नाटक रह भी कर दिया जाय तो वे एक पैसा भी छोड़ देंगी क्या? और अगली तारीख भी कब दे सकेंगी, इसका भी क्या ठिकाना?
अभी हाल ही में तो बारिश हुई थी परन्तु उसमें ऐसे महाप्रलय की सूचना तो नहीं थी। केवल भक्तिनाथ को थोड़ी देर के लिए ठहर जाना पड़ा था। पर उससे क्या? उसके बाद ही तो सब ठीक हो गया। बल्कि भक्तिनाथ को ऐसा लगा कि "चलो अच्छा हुआ, पहले ही बरस गया, बात खत्म हो गई। अब निश्चिंत हो गया।"
उस निश्चिंतता पर मूसल का ऐसा प्रहार!
बेचैनी की अवस्था में ही एक बार फिर भक्तिनाथ कागज-कलम लेकर परिचालक के 'दो शब्द' लिखने बैठा। अचानक दरवाजे पर किसी ने जोर से धक्का दिया।
पहले तो भक्तिनाथ को लगा आँधी-पानी का शोर होगा। मगर फिर लगा कोई 'बाबूजी' कहकर पुकार रहा है शायद। वीरकुमार की आवाज ही लगी उसे।
ऐसे ही कमजोर दरवाजा है क्लब का, ऊपर से आँधी-बौछार की चोट, इस पर अगर धक्के पड़ने लगे तो टूट ही जाएगा। दरवाजा खोलते ही पानी के भरपूर छींटों के साथ छाता लेकर जो अन्दर आ गया, वह भक्तिनाथ का बड़ा बेटा वीरकुमार ही था।
भक्तिनाथ ने अनुमान लगाया शायद रात हो रही है इसीलिए उसे खाने के
लिए घर से बुला भेजा है। देखकर क्रोध आ गया उसे।
किसी को होश नहीं है क्या? ऐसे मौसम में लड़के को भेज दिया? बीमार पड़ जाएगा, इसका डर नहीं है?
किसका काम हो सकता है यह? दीदी का? मझले भैया का? मनीषा का? क्रोधित होकर वही सवाल पूछा उसने, "बुला भेजा है? किसने भेजा है तुझे?"
समेटे हुए छाते को फिर से एक बार खोलकर नीचे रख दिया वीरकुमार ने, फिर बोला, "माँ ने भेजा है।"
"माँ! माँ ने भेजा है? उफ्! दिमाग खराब हो गया है उसका भी! जैसे कि एक रात नहीं खाने से आदमी मर जाता है। इतनी बारिश में तुझे भेज दिया?'' इस सवाल का जवाब न देकर कुछ यांत्रिक ढंग से वीरकुमार बोला, "देबू का बुखार कुछ ज्यादा ही हो गया है।"
"देबू का बुखार ज्यादा बढ़ गया है!"
बात को समझने में भक्तिनाथ को थोड़ी देर लगी। थोड़ी देर रुककर बोल पड़ा, "ज्यादा बढ़ने का मतलब? बुखार हुआ कब?''
उसी ढंग से वीरकुमार बोला, "कल से ही तो है। आप तो देखकर आये सुबह!"
"मैं देखकर आया?" हतबुद्धि-सा होकर भक्तिनाथ बोला। और तभी याद आ गया, सुबह देखा तो जरूर था चादर तानकर सोया था लड़का। मगर ध्यान नहीं दिया था उसने।
सोया था तो था! थोड़ा-बहुत बुखार सर्दी होता नहीं है क्या? मगर उस बुखार को बढ़ने की क्या जरूरत थी?
निराश स्वर में वही कहा भक्तिनाथ ने, "बुखार को भी बढ़ने के लिए और समय नहीं मिला क्या ?"
अब इस प्रश्न का क्या जवाब हो सकता था?
वीरकुमार इतना ही बोला, ''एक और छाता लाया हूँ साथ में।''
"छाता तो लाये हो!" गरज कर भक्तिनाथ बोला, "मगर जायगा कौन? मुझे तो आज मरने की भी फुर्सत नहीं है। यहीं तो मैं दफ्तर छोड़ कर-''
"ठीक है, तो यही बात कह दूँ जाकर?"
वैसे ही यांत्रिक ढंग से बोला वीरकुमार।
इस भंगिमा से बड़ा डर है भक्तिनाथ को। निराश होकर बोला, "अरे! वैसे ही कह देगा क्या? थोड़ा सम्हाल कर नहीं कह सकता है?"
"सम्हालना अब क्या?''
भक्तिनाथ क्षुब्ध स्वर में बोले, "मैं समझा न दूँ तो तू समझेगा नहीं?... उफ्! कहते हो बुखार ज्यादा है, रजनी डाँक्टर आया था कि नहीं?''
"जी हाँ! दवा दे गये हैं।"
भक्तिनाथ को जैसे राहत मिली।
होमियोपैथ डाँक्टर ही सही, पर मुहल्ले वाले रजनी डाँक्टर को धन्वन्तरि मानते हैं।
चैन की साँस लेकर भक्तिनाथ बोला, "डॉक्टर देख गया, दवा चलने लगी, अब और किसलिए सोचना बेटा? ठीक हो जाएगा। अब तुम जल्दी से घर जाओ।"
"तो आप नहीं जा रहे हैं ?"
भक्तिनाथ असहाय-सा होकर बोला, "अरे, नहीं जाऊँगा! ऐसा मैंने कब कहा? मैं तो कहता हूँ कब लौटूँगा कह नहीं सकता। कितना बुखार है?''
"एक सौ चार।"
नाराज होकर भक्तिनाथ बोला, "बीरू, तेरे बात करने का तरीका ऐसा हो गया है, जैसे ढेले मार रहा है। बिल्कुल अपनी माँ की तरह! मैं जाकर बुखार तो नहीं कम कर सकूँगा न? जरूरत पड़ी तो फिर एक बार डाँक्टर बुलाना पड़ेगा।"
वीरकुमार अपने बाप की आक्षेप-भरी शिकायत को अनसुनी करके उसी तरह अपनी माँ की तरह बोल उठा, "जरूरत को समझेगा कौन?"
अब भक्तिनाथ को क्रोध आ गया!
बोला, "कोई भी समझ लेगा! क्यों, मेरे सिवा घर में और कोई नहीं है क्या?"
गंभीर कठोर स्वर में वीरकुमार बोला, "आदमी की कमी है इस कारण माँ ने आपको बुला नहीं भेजा है। उन्होंने कहा अगर मर गया तो बाद में "अंतिम बार देख नहीं सका," यह कहकर आप माँ को कोसेंगे, इसीलिए।"
"क्या कहा तूने? ऐसा कहा छै तेरी माँ ने?"
अचानक फूट-फूट कर रो पड़ा भक्तिनाथ और तैश मेँ आकर हाथ के सामने पड़े बड़ी मेहनत से लिखे उस लेख को फाड़कर चिथड़े कर डाला और कहने लगा,  "भाड़ में जाय सबकुछ! यह दुनिया जब इतनी कठोर है तो मुझे कुछ नहीं लेना है यहाँ से!" इतनी देर की अवरुद्ध निराशा राह पाकर फूट निकली।
यह बात वीरकुमार की समझ से परे थी कि इस रूदन का एकमात्र कारण मनीषा का कठोर बर्ताव ही नहीं था।
इसीलिए वह हैरान होकर सोचता रहा-कौन अधिक कठोर है, माँ या बाबूजी! परन्तु वीरकुमार ने भी तो अपने मुख से ही वे कठोर बातें कहीं थीं!

बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। साथ ही तूफान की गरज बढ़ती चली जा रही थी!
शाम के समय ऐसा लग रहा था कि मानो तूफान आकर घर के बन्द दरवाज़ों और खिड़कियों पर दस्तक देकर करुण स्वर में आर्तनाद कर रहा है। क्रमश: उस करुण आवेदन की रागिणी बदल गई। अब तो ऐसे गरज रहा है कि मानो तोड़कर रख देगा दरवाज़े, दीवार, छत सबकुछ।
क्षेत्रबाला निरन्तर ही चीजों को यहाँ से वहाँ हटाकर सम्हालती जा रही हैं और रह-रह कर आक्षेप कर रही हैं, "यह कैसी विनाशकारी बरसात शुरू हो गई भैया! क्या यही 'महाप्रलय' का वर्षण है?"

दुमंजिले के एक कमरे में एक लड़के का बुखार भी बरसात के साथ-साथ बढ़ता जा रहा है, उसकी खबर लेने की फुर्सत अभी किसी को नहीं है।
इसी प्रलय-वर्षण के भीतर ही रजनी डॉक्टर आकर उसे देख भी गया है, दवा भी दे गया है। और किया ही क्या जा सकता है? अब अगर उसकी नब्ज़ छूटने लगे या खून सर पर चढ़ जाय तो भी उन्हें वापस अपनी जगह पर तो नहीं लाया जा सकेगा न?
शक्तिनाथ एक बार थोड़ी देर के लिए रोगी के पास जा बैठे थे परन्तु अधिक देर तक स्थिर होकर नहीं बैठ सके। ऐसे कठिन क्षणों में ही पता चलता है कौन कितना स्थितप्रज्ञ बन सका। स्वयं को ही पता चल जाता है। शक्तिनाथ को महसूस हुआ, नहीं बन सके वह।
शक्तिनाथ के बेचैन होने का कारण यह नहीं था कि ऐसे जबर्दस्त बुखार से कहीं भक्तिनाथ के बेटे को कुछ हो न जाय! बल्कि यह सोचकर वे बेचैन हो रहे थे कि इतनी पुरानी इमारत आँधी की इस चोट को सहन कर पाएगी या नहीं।
छत से जुड़ा छोटा-सा कमरा अपने सर पर सजी भारी-भरकम चारदीवार के मारे काँप रहा था। वही कमरा तो क्षेत्रबाला का खजाना था। रस्सी, हथौड़े, जंग लगी हुई कील, अचार, आँवले का चूर्ण, पुराना घी, पुरानी इमली, कविराजी तेल, होमियोपैथिक दवा, क्या नहीं था वहाँ? संग्रह का, संचय करने का नशा था क्षेत्रबाला को।
बटोरती है, जमा करती है और छिपाकर रख देती है। अत्यंत आवश्यकता न हो तो बाहर नहीं निकालती है।
बारिश तेज़ होते ही अपनी वह विपुल सम्पत्ति सम्हालने के लिए क्षेत्रबाला ऊपर गई थीं। काम-काज वाली नन्दा की माँ को गीला गमछा पहना कर अपने साथ ले गई थी। परंतु कमरे का ताला खोलते ही पता चला छत से ताबड़-तोड़ पानी झर रहा है, कोने का एक भाग ढह गया है।
अब कुछ करने को बचा नहीं, कुछ सम्हालने को बाकी नहीं रहा। जीवन भर की जमा-पूँजी पलभर में बेकार चली गई।
फिर भी उन्होंने कोशिश की कि कम-से-कम पुराने घी की शीशी और पुरानी इमली की हाँडी को निकाल सकें। नंदा की माँ चीख उठी, "अरे रे! बुढ़ापे में क्या अपघात से मरना है बूआजी? निकल आइए बाहर!"
सर पीटते-पीटते क्षेत्रबाला उजड़ा हुआ दिल लेकर नीचे उतर आई। मगर सबकुछ खोने के बाद भी वह फिर से देखती फिर रही हैं कि कहाँ क्या बर्बादी हो रही है। इस हलचल में रमोला भी अपने दो-तीन दिन का मौन व्रत तोड़कर नीचे उतर आई है। बारिश तो शाम से ही चल रही है। इसी बीच कुछ खाना-वाना पका कर बरामदे पर ले आना जरूरी है। इसी बहाने हो गई बात-चीत भी।
दुर्योग कभी-कभार सुयोग भी ला देता है। बिछुड़े हुए दिलों को एक सूत्र में बाँध देता है।
एक ही आशंका से सब परेशान हैं।
एक ही दुश्चिंता सबको काट खा रही है।
अगर कहीं छत ढह जाय तो?
केवल दुमंजिले के कोने वाले एक कमरे में एक अद्मुत निर्मम नारी जी-जान से यही प्रार्थना किये जा रही है, "हे भगवान् ऐसा ही हो, ढह जाय यह सड़ा-गला मकान, जहाँ के वाशिंदों को 'राय मंजिल' का बड़ा अहंकार है। ढह जाय इस घर की छत, दब जायँ सब लोग उसके नीचे, एक 'हृदयहीन उन्माद' रात बिताकर जब लौटे तो वह मलबों का ढेर उसे देखने को मिले!"
रह-रह कर बेटे के बुखार से जलते बदन को छू कर देखती है और उसकी प्रार्थना और भी सशब्द हो उठती है, "जाने दो! सब जाने दो एकसाथ!"
परन्तु इसी घर की रक्षा के लिए शक्तिनाथ के मन में प्रार्थना जारी है।
रात के बारह बज चुके हैं। इस प्रलयकारी संभावना के बावजूद मनीषा और क्षेत्रबाला को छोड़कर बाकी सभी लोगों ने कुछ-न-कुछ खा लिया है। शक्तिनाथ को भी क्षेत्रबाला ने जबर्दस्ती थोड़ा-सा दूध पिला दिया है। एक गिलास गरम दूध लेकर मनीषा की भी खुशामद कर चुकी है पर पिला नहीं सकी।
देबू के माथे पर पूजा के फूल रखकर, होंठों पर चरणामृत छुआकर और मनौती के रुपये माथे से लगाकर चली आई हैं क्षेत्रबाला।

सुबह जब रमोला ने देखा था मनीषा चौके में नहीं आई, उसे ही लाचार होकर जाना पड़ेगा, तब दीवार को तथा दीवार के प्रतीक अपने पति को सुना-सुना कर उसने कहा था, "हो गयी छोटी मालकिन की गृहसेवा। इसी को कहते हैं, भाग्यवान का बोझा भगवान् ढोते हैं।......नहीं तो जिस लड़के को सात जनम में बीमारी नहीं होती आज ही उसे बुखार आ गया! अब तो बेटे की निगरानी करने के लिए माँ को बैठे रहना ही है।"
परन्तु अभी रमोला का भी चेहरा उतरा हुआ है। सुबह की टिप्पणी के लिए स्वयं ही पति के सामने लज्जित है। कहती है, "देबू का बुखार तो बढ़ता ही जा रहा है!"
कौन जाने पति यह न कह बैठे, "तुम्हारी नजर ही तो लग गई है।"
इसलिए बार-बार रमोला स्वयं ही उसके कमरे के दरवाजे पर जाकर पूछ रही है, "बुखार फिर से देखा आपने छोटीचाची?"
शक्तिनाथ ने अपने पिता की तस्वीर के सामने स्थिर भाव से खड़े होकर समर्पण के मंत्र-पाठ करने की कोशिश की, "बाबूजी, आपका घर, आपका ही परिवार है, इसकी रक्षा कीजिएगा।"
परन्तु मन स्थिर न हो सका, भीतर से जो बात उभर कर आने लगी, वह थी- "बाबूजी, आपके परिवार की रक्षा नहीं कर सका! नहीं बचा सका आपके घर को!"
एक बार उन्हें ऐसा लगा कि आँधी की चपेट थोड़ी हल्की हुई है। पेड़-पत्तों की उन्माद गर्जना कुछ-कुछ शांत होने लगी है। पूजा के कमरे से निकल कर उन्होंने मुक्ति को पुकारा।
यह तांडव तभी शुरू हो गया था जब डेली पैसेंजर लोग घर लौट रहे थे, फिर भी वे लौट आये।

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