नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
यद्यपि तर्क की विषय-वस्तु काफी उत्तेजक थी, प्रकाश करने का ढंग बिल्कुल सरल
था।
डिब्बे से सौंफ-सुपारी खाते-खाते और हँसी-ठिठोली करते-करते ये लड़कियाँ
नारी-जीवन की विडंबना की सविस्तार व्याख्या करने में व्यस्त हैं।
परंतु मूल कथा वहीं रह जाती है, अपनी शान की रक्षा। सबके सामने अपनी शान को
बचाये रखना।
अगर सचमुच दुःखी और उदास चेहरा बनाकर नारी जीवन की व्यथा-वेदना,
लाँछना-अवहेलना की बात कही जाय तब तो अपनी स्थिति भी स्पष्ट हो जायगी।
अत: यहाँ भी फटी-पुरानी किताब पर रंगीन जिल्द की सजावट हो रही है।
ये लड़कियाँ बात कर रही थीं कि चित्रा को लेने आलोक आ गया, और उसे देखते ही
मानो सब उफन पड़े।
सभी के कथन की विषय-वस्तु थी कल की घटना का क्या दुष्परिणाम उन्हें भोगना
पड़ा, यही बताना। मगर उनके हाव-भाव को देखकर तो यह विश्वास नहीं आता था।
अत: परिस्थिति बदल गई, लड़कियाँ एक-दूसरे को ईर्ष्या की दृष्टि से देखने लगीं।
हर एक ने सोचा, बाकी सभी कितने उदार हैं, कितने स्वच्छंद हैं!
अगर दुखी होतीं तो क्या इस प्रकार हँसी-ठिठोली कर सकतीं? इतनी चपलता कर पाती?
मगर वे तो अकारण ही चंचल हैं।
वे आनंद के प्रतीक हैं।
क्योंकि उनके पास अगर काफी कुछ नहीं भी हो, एक चीज़ तो है? वह चीज जो दुनिया
की सबसे बड़ी सम्पदा है। दुनिया उनकी मुठ्ठी में है क्योंकि 'समय' उनके साथ
है।
समय का साथ होने का अर्थ ही है बहुत-कुछ होना। समय गया तो मानो सबकुछ चला
गया।
मगर इस शोरगुल के बीच शाश्वती ने अचानक निर्लिप्त की भूमिका ले ली। हाथ में
ली हुई किताब के किसी एक पन्ने पर पूरा ध्यान केंद्रित कर दिया उसने,
खड़े-खड़े ही पढ़ने लगी वह।
शाश्वती के इस बदलते रुख को और किसी ने देखा या नहीं, अनिन्दिता ने देख लिया।
उसने सोचा-ओह! अकड़ रही है। मुझे तो यह सब पसंद नहीं है।
अत: चेहरे पर दुनिया-भर की खुशी झलका कर प्रमीला-राज्य में आविर्भूत अर्जुन
की तरह वहाँ उपस्थित एकमात्र पुरुष आलोक से बातें करने लगी।
परंतु उस लड़के की नज़र क्यों उस अकड़बाज लड़की पर ही टिकी थी?
अर्थात् अनजाने ही एक नये नाटक की बुनियाद पड़ रही है। हालाँकि नया होते हुए
भी यह नाटक बड़ा पुराना है।
आज दफ़्तर में मुक्तिनाथ दिल लगाकर काम नहीं कर सका! उसने सपने में भी नहीं
सोचा था कि उसकी उपस्थिति में रमोला मझले चाचा के सामने घूँघट उतार कर और
आवाज़ चढ़ाकर इस तरह बकवास करेगी। मुक्तिनाथ को लग रहा है जैसे रात वाली घटना
वास्तव में कोई दुस्वप्न थी।
जब से शादी हुई है तभी से रमोला के मन में असंतोष है। असंतोष का वह पौधा
बढ़ते-बढ़ते वृक्ष का रूप धारण कर चुका है, इस बात से मुक्तिनाथ अनजान
नहीं है। उस प्रबल असंतोष के भार से मुक्तिनाथ का जीवन भी घुटन-भरा हो गया
है। रमोला के डर से मुक्तिनाथ दिल खोलकर हँसना भूल गया, सहज भाव से बातचीत
करना भूल गया। उसकी निजी पसन्द-नापसन्द क्या हुआ करती थी, कैसा स्वभाव था, वह
भी भूल चुका है वह। यार-दोस्तों के अड्डों में शामिल होना भूल गया है
मुक्तिनाथ, कभी ताश का नशा था उसे, मछली पकड़ने का नशा था, भूल गया है यह सब।
रमोला ने ही भुलाकर छोड़ा है सब-कुछ।
रमोला हर पल उसे अहसास दिलाती रही कि मुक्तिनाथ में कोई खूबी नहीं है। अत: जो
कुछ उसे अच्छा लगता है या जो कुछ उसकी हॉबी है, सब निकृष्ट है। शिक्षित
सज्जनों की चिन्तन-धारा, चेतना और उच्च-कोटि की होनी चाहिए। उस कोटि की चेतना
अवश्य ही रमोला के भाइयों में दिखाई पड़ती है, जिनके उदाहरण रमोला हरदम देती
रहती है।
हालाँकि मुक्तिनाथ रमोला की चाहत के साँचे में ढलकर उसके भाइयों जैसा नहीं बन
सका, वह तो अपने निजी स्वभाव को भी खो बैठा।
एक बेतुकी, बेचैन मानसिकता को लेकर मुक्तिनाथ एक अति साधारण-सी जिन्दगी काटे
चला जा रहा है।
मुक्तिनाथ अति साधारण व्यक्ति है, इसीलिए उसकी बेचैनी के नमूने भी बड़े साधारण
हैं। इतनी तुच्छ बातों से एक सशक्त पुरुष घबरा उठता है यह जानते तो रमोला के
भाई जरूर सर पीट कर 'माइ गॉड!' कह पड़ते।...मगर मुक्तिनाथ का कारोबार तुच्छ
बातों से ही तो है।
उसकी अस्थिरता के कुछ नमूने इस प्रकार हैं-
जब मुक्तिनाथ अपने चाचा अथवा अपनी बुआ के पास बैठता है तो उसके दिल को शांति
मिलती है, स्वयं को बालक महसूस करता है, और इस सुखद अनुभूति का आनन्द वह देर
तक लेना चाहता है। मगर थोड़ी देर बैठने के बाद ही एक अपराध की भावना से
भीतर-ही-भीतर वह बेचैन हो उठता है। ऐसा लगता है, किसी की घूरती आँखें उसका
इंतजार कर रही हैं। ऐसी मनोदशा में वह वहाँ से उठ जाने का बहाना ढूँढ़ता है।
उधर जब वह रमोला के दरबार में प्रजा की तरह बैठता है तब उसके साथ होने के
तीव्र सुख को भी चैन से भोग नहीं सकता है! दो स्नेहाकांक्षी वृद्ध-हृदय की
प्रत्याशा को स्मरण कर कर्त्तव्य-बोध के दबाव से पीड़ित होता रहता है।
अत: उस हालत में भी वह बहाने ढूँढ़ता रहता है कि किसी तरह एक बार नीचे से हो
आए।
अर्थात् अभागे मुक्तिनाथ के भाग्य में सुख भी नहीं, चैन भी नहीं है।
मुक्तिनाथ के बच्चे अपनी माँ से जितना घुले-मिले हैं, उतना अपने पिता से
नहीं। क्योंकि उनके पिता इस परिवार के अभिभावक नहीं, घर के मालिक नहीं हैं।
उनकी भूमिका आज भी केवल घर के एक 'लड़के' की है। उनके लड़के भी तो वही हैं। अत:
एक ही स्तर के हुए!
तो फिर?
समान स्तर के व्यक्ति को कौन कितनी मर्यादा दिखाता है भला?
खैर, माँ भी तो इस परिवार की अभिभावक नहीं, घर की मालकिन भी नहीं है परंतु
अवस्था में अंतर है। बचपन से ही बच्चे सुनते आये हैं और समझते भी आए हैं कि
माँ को यथोचित मर्यादा मिली नहीं, माँ को यथोपयुक्त आसन मिला नहीं, योग्यता
रहते हुए भी वह 'अयोग्य की भूमिका निभा रही हैं।
फलत: सोलहों आने सहानुभूति माँ की ओर है।
मगर बाबूजी? वे तो वैसे नहीं हैं। वे तो स्वयं ही 'बबुआ' बनकर बैठे हैं ताकि
घर की जिम्मेदारियों की आँच उन तक न आए।
"बाबूजी किसी काम के नहीं," यही मनोभाव लेकर पिता से वे बात-चीत करते हैं।
ऐसी बात-चीत में खुशी कहाँ से होगी?
मुक्तिनाथ भी तो बच्चों के सामने अपने कों प्रतिष्टित नहीं कर पाया। उसकी भी
तो यही समस्या है। अपने-आप को इस परिवार के एक 'लड़के' के सिवाय और कुछ नहीं
समझता है वह।
इसलिए अपने बच्चों के साथ समय बिताना या उनके मन में अपनी एक छवि प्रतिष्ठित
करना उससे हो न सका।...
समय ही कहाँ है उसके पास? वैसे तो डेली-पैसेंजरी के जीवन में अवकाश की जगह ही
कहाँ? फिर भी कभी-कभार छुट्टियाँ आती हैं तो थोड़ा-सा समय शाम के बाद मिल जाता
है।
रात के भोजन के बाद दलान की चौकी पर जाकर थोड़ा बैठना, बूआ के हाथ का बना
हाजमी चूरन चुटकी में लेकर चाट-चाट कर खाना और प्रतिदिन उसके स्वाद और गुणों
का बखान करना, मझले चाचा के पास बैठकर दो अच्छी बातें सुनना, इतना ही तो करता
है मुक्तिनाथ?
इसके लिए क्या कम दंड भरना पड़ता है मुक्तिनाथ को?
सच तो यह है कि मुक्तिनाथ की व्यक्तिगत कोई अभिरुचि हो, (जिसके साथ रमोला का
कोई सम्बन्ध नहीं), यह रमोला से सहन नहीं होता है।
कभी किसी दिन ज़रा-सी देर हो गई कि कमरे में आकर मुक्तिनाथ देखता
है, रमोला मच्छरदानी के भीतर समा गई है।
देखते ही उसका दिल काँप जाता है और समझ जाता है कि उसे अब अनेक पापड़ बेलने
पड़ेंगे।
मच्छरदानी के भीतर से टिप्पणी भी सुनाई देती है, "ओमा! चले आये? सोच रही थी
तुम्हारा तकिया वहीं भेज दूँ।"
या फिर सुनाई पड़ता है रमोला कह रही है, "दलान की चौकी पर एक बिस्तर लगा रहता
तो अच्छा होता। गपशप करते-करते अगर नींद आ जाए तो तकलीफ करके सीढ़ियाँ चढ़कर
ऊपर नहीं आना पड़ता!
मगर-
मुक्तिनाथ इन बातों को अनसुनी तो कर सकता है?
नहीं, उसके जैसा मेरुदंडहीन प्राणी ऐसा नहीं कर सकता है। अपना 'सुख' उसने
रमोला के हाथों में ही सौंप रखा है।
जबकि सच्चे अर्थ में सुख उस बेचारे को मिलता ही कब है? दाम्पत्य-जीवन की सारी
मिठास तो गिले-शिकवे और असंतोष के धुएँ में विलीन हो जाती है, मिलन के मधुर
पल रमोला के मन की कड़वाहट से घिर जाते हैं।
खैर, वह सब तो एक तरह से सहन करने की आदत ही पड़ गई थी, मुक्तिनाथ जान गया था
कि रमोला के दिन-भर के दुख-तकलीफ की कथा सुने बिना वह सो नहीं सकता। मगर उस
नींद में भी तो कभी ऐसे दुस्वप्न की उसने कल्पना नहीं की थी कि आवाज उठाकर
रमोला मझले चाचा के मुँह पर कह रही है, उसकी बेटियों को तिरस्कार करने का
अधिकार उसके माता-पिता के सिवा और किसी को नहीं है। कैसी नीचता है! कितनी
लज्जाजनक बात है।
दिनभर बड़े कष्ट में गुजारा है मुक्तिनाथ ने। क्योंकि रमोला की नीचता और
निर्लज्जता के अलावा एक और बात उसे पीड़ित कर रही थी। वह थी आत्मग्लानि।
मुक्तिनाथ रमोला को शुरू में ही क्यों नहीं रोक सका? रमोला जो मर्जी आये कहती
गई और मुक्तिनाथ सहता गया। और अंत में आकर मुक्तिनाथ को इतनी हिम्मत नहीं हुई
कि बुजुर्गों के सम्मान की पुन: प्रतिष्ठा करने के लिए रमोला से माफी मँगवा
सके!
दिनभर अपने-आपको कोसता गया मुक्तिनाथ, 'मैं एक कायर हूँ मैं एक स्त्रैण हूँ
मैं आदमी कहलाने के लायक नहीं हूँ।' और अपने दाम्पत्य-जीवन के प्रारंभ से अंत
तक तीक्ष्ण पर्यवेक्षण करने लगा कि शुरू से ही क्या-क्या गलती की है उसने।
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