नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
अब हल्के स्वर में शक्तिनाथ बोले, ''ओ अच्छा! ठीक है तब बैठो, मैं कपड़े बदल
कर आता हूँ। मैं सोच रहा था शायद परसों रात वाली बात कहने के लिए!''
गगन घोष की गंजी पसीने से तर हो गई। वह एकदम भोला बनकर बोला ''परसो रात की
बात का मतलब?''
''मतलब? यही मेरी दो पोतियाँ रात के बारह बजे बिना अभिभावक के अकेले-अकेले
ट्रेन में लौट रही थीं, वही कहने के लिए ही!''
ऐसी अनोखी लड़ाई के लिए गगन घोष बिल्कुल तैयार नहीं था। एक सूक्ष्म अपमान के
दाह से क्रोधित होकर बोला, ''आपकी पोतियाँ क्या कर रही हैं, क्या नहीं, इससे
मुझे क्या लेना-देना है चाचाजी?''
शक्तिनाथ बोले, ''क्या कह रहे हो गगन? कुछ लेना-देना नहीं? मुक्ति की बेटियाँ
तुम्हारी भतीजी नहीं हैं क्या? तुम-तुमलोग उनके हितैषी हो कि नहीं?...अँधेरे
में बीच-मैदान में ट्रेन रुक गई थी, ये लोग तो मारे डर के मरी जा रही थीं।
तुम गाड़ी में हो, जानकर थोड़ा भरोसा मिला उन्हें।.....कह रही थीं, ''स्टेशन पर
कोई न भी होता तो कोई दिक्कत नहीं होती, घोष चाचा के साथ चले आते।''
नहीं, ऐसी लड़ाई तो सचमुच गगन घोष ने नहीं लड़ी। इसीलिए अब अपने पैंतरे भूलकर
बोल पड़ा, ''उसमें क्या शक है! मुझे कहने की जरूरत पड़ती क्या? खुद आकर घर तक
पहुँचा कर जिम्मेदारी पूरी कर जाता। मगर इतनी रात कैसे हो गई, समझ मैं नहीं
आया।''
शक्तिनाथ थोड़ा हँसकर बोले, ''कारण और क्या होगा। वही, जिसके पीछे बच्चे-बूढ़े
सब दीवाने हैं। सिनेमा!''
गगन घोष एकदम ढीले पड़ गये थे। फिर भी सख्ती दिखाने की कोशिश करके बोले, ''तो
घर में बताकर जाना चाहिए न?''
शक्तिनाथ हैरान होकर बोले, ''क्यों? बताकर तो गई थी अपनी माँ को! मगर ट्रेन
लेट होने की बात तो बताकर नहीं जा सकता है न कोई?''
गगन घोष का एक साथी जो शक्तिनाथ का निकटतम पड़ोसी था, वह बोल उठा, ''कहकर गई
थीं? मगर डाँट तो खूब खा रही थीं, खेतूबूआ तो एकदम!''
शक्तिनाथ हँसकर बोले, ''खेतू की बात रहने दो। एक तो उसकी ऊँची आवाज़, ऊपर से
आधी रात का समय था। एकदम आसमान तक पहुँच गया था।....अच्छा, तुम लोग बैठो, मैं
कपड़े बदल कर आता हूँ.....''
अब किस खुशी में बैठते गगन घोष और उसके साथी? बैठकर और बेइज्जती करवाते उस
चालू बुड्ढे के पास?
पूजा के कमरे में कपड़े बदलने के लिए आ कर शक्तिनाथ ने ऊपर दीवार की ओर देखा,
जहाँ उनके पिता योगनाथ की तस्वीर टँगी थी।
मन-ही-मन बोले, ''बाबूजी, क्या मैंने मिथ्याचार किया? गगन घोष और उसके साथी
राय-परिवार की बातों में टाँग अड़ायें, यह मैं कैसे होने देता?''
परंतु केवल शक्तिनाथ ही क्यों?
राय परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए उन दो अपराधिन लड़कियों ने भी तो रात को
दिन बना डाला।
अगले दिन कॉलेज में उन्हें देखकर चित्रा ने आगे बढ़ कर पूछा, ''ए सुन! कल खूब
डाँट पड़ी होगी?''अनिन्दिता के कुछ बोलने से पहले ही शाश्वती बोल उठी, ''सिर्फ
डाँट? उतने बड़े अपराध के लिए सिर्फ डाँट ही मिलती? पिटाई। जबर्दस्त पिटाई
मिली, समझी?'' शाश्वती खिल-खिला कर हँस पड़ी और बोली, ''सारे बदन में दर्द ले
कर बिस्तर पर ही पड़े रहना उचित होता मगर कहीं तुमलोग यह सोचकर घबराओ कि ये
लड़कियाँ दादी के हाथ मारी गईं।''
''अच्छा! तुमलोगों की दादी भी हैं?''
''हाँ, बाबूजी की एक जबर्दस्त बूआ है, वही उन नाबालिगों के परिवार की मालकिन
हैं।''
शाश्वती के इस स्वच्छंद वार्तालाप के ढंग से अचानक अनिन्दिता को ईर्ष्या का
अनुभव होने लगा। बात तो वह भी कम नहीं करती पर शाश्वती की तरह इतना सरस ढंग
उसे कहाँ आता था? शायद कह देती, ''बिल्कुल डाँट नहीं पड़ी'', जो किसी को
विश्वास ही नहीं आता।
चित्रा बोल उठी, ''अरे ज़रा रुक जा, बाबूजी की बूआ! ऐसे रिश्तेवाली दादी लगती
है क्या? बाबूजी की माँ को ही तो दादी कहते सुना है। ओ माँ! बाबूजी की बूआ
तेरे घर में रहती हैं?''
और भी कई लड़कियाँ इस रिश्ते के बारे में ऐसे पूछ-ताछ करने लगीं जैसे ऐसे
रिश्ते के बारे में कभी सुना ही नहीं और उनकी राय से इन्हें दादी मानने का
कोई कारण नहीं है।
चित्रा ठठाकर हँसने लगी और बोली, ''भैया से कहना पड़ेगा। कहूँगी, भैया।
तुम्हारे कारण दो भोली-भाली लड़कियों को बाबूजी की बूआ से डाँट खानी पड़ी!''
''ऐ चित्रा!'' शाश्वती बोल पड़ी-''सच मत छुपाना। मैंने कहा न-''पिटाई''! दोनों
बहनों का झोंटा पकड़ कर नारियल फोड़ने के ढंग से ठोक दिया दोनों के सर को!''
ऐसे हँसते-हँसते यह बात कही उसने कि किसी को विश्वास न हो कि बात सच है। अत:
सभी हँसकर लोट-पोट होने लगीं।
शाश्वती फिर बोली, ''स्टेशन पर ही तो लाठी लेकर खड़े थे सब।'' हालाँकि
हँसते-हँसते बोली, ''साथ में लालटेन और रथ भी हाजिर था।''
अर्थात् लड़कियों के घर लौटने के लिए घर वालों ने पूरी तैयारी कर रखी थी।
पिछले दिन सिनेमा जाने वाली लड़कियों के झुंड में से एक ने लम्बी आह भरकर कहा,
''उस छोटे-से गाँव में रहते हुए भी तुम्हारे गार्जेन कितने उदार-मन हैं! और
हमारे यहाँ? अग्रगति के प्रतीक हों जैसे। मुझे तो कल पापा ने दरवाज़ा दिखा
दिया। बोले, ''दुबारा ऐसे होने से दरवाज़े के उस पार ही जगह ढूँढ़ लेनी
पड़ेगी।''
कोई और बड़े दार्शनिक ढंग से बोली, ''पता है, बात दरअसल क्या है? नाम के लिए
आजादी है। नारी की हालत आज भी सौ वर्ष पहले जैसी ही है। आज़ादी के नाम पर जो
प्रचार होता है वह वास्तव में फटे-पुराने समाज-रूपी
पुस्तक के ऊपर लगाया गया एक रंगीन जिल्द है। लगाम जिनके हाथों में थी, आज भी
उन्हीं के हाथों में है और उन्हीं की इच्छा से सब-कुछ चल रहा है। उन्हीं के
नचाये डोर के अनुसार हम पुतलियों की तरह नाचते फिरते हैं और सोचते हैं, कितने
आज़ाद हैं हम! यही तो है हमारी आज़ादी। मेरा एक फुफेरा भाई ज़रा मस्तान हो
गया था। एक दिन फुफाजी ने क्रोध में आकर कहा-यह होटल नहीं, घर है। यहाँ के
कुछ कायदे हैं जिन्हें मानकर चलना पड़ता है। अगर तुम मान कर नहीं चल सको तो
तुम्हारे लिए यहाँ जगह नहीं होगी।....
जानती हो, यह सुनकर मेरा वह भाई क्या बोला? ''ठीक है, मैं दूसरी जगह ढूँढ़
लेता हूँ।''.....बस चला गया तो फिर आया नहीं।''
''नहीं आया?''
चौंक उठी कोई-कोई, ''सुइसाइड किया क्या?''
''अरे नहीं! तब तो लड़की वाली बात हो जाती। चला गया मतलब घर से चला गया।
कभी-कभी सुनने में आता है किसी बस्ती में रहने वाले दोस्त के घर पड़ा रहता है
और उसके साथ चनाचूर बेचने जाता है मुहल्लों में।''
सामने तो फूफा कहते हैं, ''उसकी सूरत भी देखना नहीं चाहता, मगर चुपके से
कोशिश में लगे हैं कि उसे वापस बुला लें। यही देखकर समझ ले! लड़कियाँ इस तरह
अकड़ दिखा सकेंगी कभी?''
चित्रा ठठाकर हँस पड़ी और बोली, ''लड़कियों को तो स्वयं सृष्टिकर्ता ने ही
कमज़ोर कर दिया है री। नारी-पुरुष इन दोनों की सृष्टि ही की है खाद्य और खादक
बनाकर। जैसे शेर का भोजन आदमी वैसे पुरुष का भोजन है ना....''
''ऐ चित्रा! डोन्ट बी सिली। बात को यहीं खत्म कर।'' कहकर कृष्णा गंभीर होने
की चेष्टा करने लगी।
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