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नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में

अपने अपने दर्पण में

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6392
आईएसबीएन :9789380796178

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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...


धीरे-धीरे एक उच्च स्तर की जीवनधारा के विषय में सचेतन होने लगी रमोला और तभी से ऐसी ही एक तस्वीर जैसी गृहस्थी का सपना देखने लगी वह।
परन्तु क्या इसके लिए रमोला की निन्दा की जा सकती है? अपने इस पुराने ढाँचे की गृहस्थी में सब-कुछ भारी-भरकम है, दम घुटने लगता है।
जब साल-भर की दाल के लिए मूँग, ऊरद, चने-अरहर सब एकसाथ ढेर किये जाते हैं उन्हें छुड़ाकर समेटने के लिए, जब बड़ी तैयार करने के लिए बड़े-बड़े गमलों में दाल भिगोये जाते हैं, बोरियों में भर-भर कर बेर के दिनों में बेर, इमली के मौसम में इमली के ढेर लगते हैं तब रमोला का दिल थक जाता है। उसी थकावट में वह सोचती है, क्या आवश्यकता है इतने परिश्रम की, इतने आयोजन की, जबकि एक दुकान से एक छोटा-सा पैकेट मँगवा कर ही काम चल सकता है?
मगर इस थकान के बोझ को ढोना पड़ेगा रमोला को। यहाँ से निकल न सकी तो कभी वह गैस के चूल्हे पर खाना नहीं पका सकेगी, काँच के प्लेट में खाना नहीं खिला सकेगी, कुर्सी-मेज़ लगाकर नहीं खा सकेगी। सर्दी या बरसात के दिनों में चप्पल पहन कर घूम नहीं सकेगी, जब दिल चाहे शॉपिंग के लिए नहीं निकल सकेगी, मर्जी से एक सिनेमा नहीं देख सकेगी, गुनगुनाने की जिस आदत को इस विशाल घर के बाहर भी दफना कर आई थी, उसे कभी भी बाहर नहीं निकाल सकेगी, पाकशास्त्र पुस्तिका देखकर (मझली भाभी के जैसे) शौकीन पकवान नहीं बना सकेगी और भी कितने ही छोटे-मोटे सपने अधूरे ही रह जायेंगे।
ये छोटे-छोटे सुख, छोटी-छोटी कामनाएँ, छोटी-छोटी वासनाओं के फूल, यही लेकर तो नारी-जीवन का सपना होता है। इस विशाल विश्व के निर्माण, राष्ट्र के उत्थान-पतन, राजनीति के कुटिल दाँवपेंच-आखिर कितनी लड़कियाँ इनकी परवाह करती हैं?
इस ज़माने की जिन लड़कियों को देखकर लगता है वे इनकी परवाह करती हैं, पास जाकर देखने से पता चल जाता है कि वह धारणा गलत थी। अभी उनके जीवन का कुछ विस्तार हुआ है इसीलिए उनकी वासनाओं के फूल रंग-रूप में कुछ भिन्न हैं, उनके सपनों का चेहरा कुछ भिन्न है, फिर भी मूल ढाँचा एक ही है।
हर लड़की अपने प्रियजनों को लेकर एक घर बसाना चाहती है जिस घर में उसी का राज हो। प्रकृति ने ही उसे ऐसा बनाया है।
अगर एक बार रमोला इस पुरानी गली हुई गृहस्थी से निकल सके तो वे सारे सपने जो उसकी पहुँच के बाहर हैं, पूरे हो सकते हैं, जबकि रमोला का पति एक मामूली भावावेश के वशीभूत होकर रमोला को इस प्राप्ति से वंचित कर रहा है।
सबसे अधिक पीड़ा शायद सबसे अधिक प्रियजनों से ही मिलती है।
खैर.....
रमोला की बेटी ने एक मुसीबत में फँसकर रमोला के बन्द दरवाजे को खोल दिया है। उस दिन की घटना से मुक्तिनाथ भी समझ गया है कि यहाँ से अब उसकी पत्ती कटने वाली है।
रमोला के भैया के फुफेरे साले ने एक फ्लैट दिलाने का आश्वासन दिया है मगर वह जनवरी से पहले नहीं होगा।....मुश्किल तो वहीं पर है-वह तो पूस का महीना होगा।
इस अंधविश्वास वाले परिवार से इतनी आशा नहीं की जा सकती है। इस घर के नौकर-दाई को भी चैत, भादो और पूस के महीने में घर जाने की अनुमति नहीं मिलती है। कहीं वह यात्रा 'अगस्त यात्रा' न हो जाय, इसी डर से।....और ये लोग? परिवार का सबसे बड़ा बेटा और उसके बीबी-बच्चे!
पिछले दो दिनों से क्षेत्रबाला मुरझाई पड़ी हैं, पहले जैसा भैया के पास बैठकर सुख-दुख की बात नहीं करतीं, बात-बात पर पहले की तरह उल्लसित नहीं हो उठती है। आदत के अनुसार अपने काम करती चली जाती है, बस।
आश्चर्य तो इस बात का है कि उनके पिछले रोबदार चेहरे को भुलाकर बच्चे भी सोचने लगे हैं, माँ इतना नाराज़ भी क्यों होती थी! बुढ़िया ऐसे क्या रोड़े अटका रही थी उनके रास्ते पर?
हाँ, मगर....
यह भी सच है कि बच्चों का झुकाव तो कलकत्ते की ओर है ही। माँ उधर जाने का रास्ता साफ कर रही है, यह तो खुशी की बात है।.....

शक्तिनाथ कभी भी अहंकारी नहीं थे, फिर भी लोगों की ऐसी धारणा थी कि
वे अहंकारी हैं। जब दफ्तर में काम करते थे तब दफ्तर के लोग ऐसा सोचते थे, अब पड़ोस के लोग सोचते हैं। महीने में एक बार पेंशन उठाने के लिए कोलकाता जाते हैं, उस छोटी-सी यात्रा में लोकल-ट्रेन के परिचित यात्री भी ऐसा सोचते हैं। पता नहीं क्यों उनके बारे में लोगों की ऐसी गलत धारणा है!
परन्तु उस अहंकारी व्यक्ति के ऊँचे सिर को नीचा कर देने का एक जबरदस्त हथियार पाकर गगन घोष कम्पनी बहुत ही पुलकित है। प्रत्यक्षदर्शी गगन घोष ही है, अत: आगे बढ़ने की भूमिका उसी की है। मगर अकेले आने की हिम्मत नहीं हुई, इस कारण दो-एक आदमी को साथ पकड़ कर लाया है।
सुबह का समय है। पूजा समाप्त कर शक्तिनाथ बाहर के दलान के सामने तुलसी मंच के पास तुलसी के पौधे को पानी देने के लिए आ खड़े हुए हैं।
अभी तक वह रेशम की धोती पहने हैं, हाथ में तांबे का लोटा।
इस एक ही जीवन में जन्म-जन्मांतर हो जाता है।
जब शक्तिनाथ दफ्तर के बाबू थे तो धोती के ऊपर कमीज़ और कोट पहनते थे। साथ में डर्बी शू पहन कर, हाथ में पान की डिबिया और क्षेत्रबाला का थमाया हुआ पराँठे-आलू सब्जी का डब्बा लेकर बन-ठन कर ट्रेन छूटने से काफी पहले ही जाकर जगह घेरकर बैठ जाते थे। आज के इस शक्तिनाथ की तब कोई कल्पना भी कर सकता था क्या?
या फिर आज का ही कोई व्यक्ति क्या सोच भी सकेगा कि शक्तिनाथ दफ्तर पहुँचते ही चपरासी को बुलाकर चाय का ऑर्डर देते थे, घर लौटकर शाम को बार-बार चाय की माँग करते थे? क्या कोई सोच भी सकेगा कि मोहनबागान के खेल के दिन शक्तिनाथ कुर्सी की पीठ पर कोट लटका कर दफ्तर से खिसक जाते थे और विश्वस्त दोस्त अनन्त मित्रा दफ्तर से लौटते समय उसे साथ लाकर क्षेत्रबाला के पास जमाकर देते थे?
क्या कोई सोच भी सकेगा कि ये शक्तिनाथ, जो आजकल शाम को केवल पनीर और बेल खाकर रह जाते हैं, किसी ज़माने में वह टिफिन में ढेर सारे पराँठे खाकर भी शाम को किसी दुकान पर बैठकर चॉप-कटलेट खाने में झिझकते नहीं थे?
नहीं, आज के शक्तिनाथ को देखकर कोई उस शक्तिनाथ की कल्पना नहीं कर सकता है।

फिर भी पड़ोस के लोग आज भी शक्तिनाथ को देखकर थोड़ा सहम जाते हैं।.....मगर आज हिम्मत हो गई है। उसी हिम्मत के कारण आज गगन घोष और उसके साथी शक्तिनाथ के दलान पर आ खड़े हैं।
दफ्तर भी किसी कारण बन्द है आज, इसीलिए सुबह कोई जल्दबाजी नहीं है।
''चाचाजी की पूजा अभी तक समाप्त नहीं हुई क्या?'' गगन घोष चेहरे पर झिझक लाकर बोला, ''अच्छा, तो फिर अभी चलते हैं।''
शक्तिनाथ बोले, ''बात क्या है? सुबह-सुबह?''
''बात कुछ भी नहीं। रोज ही तो भाग-दौड़ रहती है। आज एक छुट्टी मिल गई तो सोचा आप लोग मुहल्ले के बड़े-बुजुर्ग हैं, कभी तो भेंट-मुलाकात हो ही नहीं पाती है। आज एक बार मिल लूँ।''
शक्तिनाथ शांत भाव से बोले, ''मेरी पूजा हो गई, बैठो तुमलोग।''
लोटे को नीचे उतार कर चौकी के एक किनारे शक्तिनाथ बैठ गये और इशारे से दूसरी ओर उन्हें बैठने को कहा।
गगन घोष फिर भी झिझकने का दिखावा करके बोला, ''नहीं, असल में अभी तक आपका जलपान तो हुआ नहीं!''
मृदु हँसकर शक्तिनाथ बोले, ''तुम भी तो कोई मेरे साथ ताश के अड्डे पर बैठने नहीं आये? आखिर कब तक बैठोगे? जो कहने आये हो, कह डालो!''
गगन घोष शायद ऐसी परिस्थिति के लिए प्रस्तुत नहीं था। इसलिए एकदम घबरा कर हड़बड़ा कर बोला, ''नहीं, कहना क्या है? मतलब ऐसे ही आपके पास एक बार....आना तो होता ही नहीं है।''

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