नारी विमर्श >> अपने अपने दर्पण में अपने अपने दर्पण मेंआशापूर्णा देवी
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इस उपन्यास की पटभूमि एक बंगाली समाज है जो एक बदलाव के मोड़ से गुज़र रहा है। यहाँ प्राचीन धारणाओं, प्राचीन आदर्शों तथा मूल्यबोध पर आधारित मानव जीवन नवीन सभ्यता की चकाचौंध से कुछ विभ्रांत-सा हो गया है।...
"ऐसा ही महसूस करती होगी, तभी कह गई।" विकास भूषण बोले, "मानना पड़ेगा कि
हैसियत से बाहर निकल कर बच्चे पालने की पद्धति में कोई बड़ी भूल है।"
नहाने चले गये विकास भूषण। रात कितनी भी हो जाय, भोजन करने से पहले नहा लेना
उनकी बराबर की आदत है।
बहस के लिए कोई नहीं बचा तो शेफाली सोफे में दुबक कर बैठी रोने लगी और अदृश्य
विपक्षी को सामने खड़ा करके बोलने लगी, "भूल है! कैसी भूल? इस ज़माने में सभी
लोग जैसे बच्चे पालते हैं, मैंने भी वैसे ही किया है। सबसे आधुनिक बनकर, सारे
कुसंस्कारों से मुक्त होकर!.....हमारे ज़माने में लोगों के दृष्टिकोण संकीर्ण
थे। बाबूजी के पास पैसों की कमी नहीं थी, फिर भी मेरी कितनी कामनाएँ पूरी
नहीं हुईं। हमेशा यही सुनने को मिलता था, ''फैशन की ज़रूरत नहीं, विलासिता की
ज़रूरत नहीं।'' अपनी उन अपूर्ण कामनाओं को मैं अपनी बेटी के द्वारा पूरी कर
रही हूँ। हर पल यही सोचती रही, मेरी जॉली के मन में कोई आक्षेप न रहे, कोई
शिकायत न रहे।''
जब जो माँगा वही मैंने दिया उसे, जो कहा उसने, वही किया। उसे मैंने पूरी छूट
दी। कभी अपने लिए कोई शौकीन वस्तु खरीदनी हो तो पहले उसे देकर अपने लिए लिया
मैंने। लाख मुश्किल में पड़ने पर भी बेटी से कोई काम नहीं लिया मैंने। वह तो
केवल नाचती-फुदकती रही।
पढ़ाई करते-करते छोड़कर गाना सीखने का शौक हुआ, वही करने दिया मैंने उसे। फिर
दो महीने के बाद बोली ''गाना अच्छा नहीं लग रहा है, फिर पढ़ूँगी।'' वह भी मान
गई मैं। अब तो विदेशी भाषा सीख रही है। उसी बहाने जो दिल में आता है करती है।
मैं तो कुछ भी नहीं कहती और बेटी सुना गई-वह 'अभागी' है और उसके बाप सुना
गये, पालने की पद्धति में ही भूल है!
''अच्छा, अगर भूल ही है, तुम तो बाप हो, सुधार नहीं सके?''
नहाकर जैसे ही विकास भूषण खाने की मेज़ पर आए, शेफाली के होंठों पर वही
प्रश्न सोच्चार हो उठा, ''कह तो गये पद्धति में ही दोष है! ठीक है, अगर ऐसा
ही है, अगर तुम्हें दोष का पता था तो सुधारा क्यों नहीं तुमने? तुम उसके बाप
लगते हो कि नहीं? उसके भले-बुरे के जिम्मेदार हो कि नहीं?
''मैं?'' मुस्कुरा कर विकास भूषण बोले, ''मैं उसका बाप हूँ इस बात की
स्वीकृति तुमसे आज ही पहली बार मिली।''
''क्या मतलब?'' तीखे स्वर में चीख ही उठी शेफाली।
विकास भूषण बोले, ''नहीं, मेरे कहने का मतलब वैसा कुछ नहीं है, मगर उसके
भले-बुरे के बारे में कुछ कहने का अधिकार मुझे है-यह पता ही कब चला मुझे?
हमेशा तो यही सुनता आया, बेटी का मामला तुम ही समझती हो केवल।...जब एकदम
बच्ची थी, उसे जबरदस्ती क्षमता से अतिरिक्त खिलाने की कोशिश चलती थी और वह
उल्टी कर देती थी, तब मैं उसकी ओर से तुम्हारे पास दया की भीख माँगता था तो
उसके बदले में कुछ 'उपदेश' नसीब होते थे। उसके बारे में मेरे माथा-पच्ची करने
की सख्त मनाही थी, क्या याद है तुम्हें?''
''बचपन की बात क्यों खींचकर ला रहे हो अभी? बात अभी की हो रही है!''
''कोई बात अभी अचानक पैदा नहीं होती है शेफाली, हर 'अभी' की नींव किसी 'तब'
में पड़ी होती है। जिस दिन पहली बार दोस्तों के साथ गंगा-किनारे से सैर करके
देर से घर लौटी, तुम्हें याद है? जॉली का पिता उसे डाँट लगाने चला था, उसकी
माँ लपक कर बीच में आ गई थीं। कहा था उसने, ''अच्छा किया है उसने जो घूमकर
आई। तुम कभी ले जाते हो? बेटी को तुम हमारे ज़माने की तरह पिंजरे का पंछी
बनाकर नहीं रख सकोगे, यह मेरी अंतिम राय है।''.....अतिम राय के बाद कहने को
और क्या रह जाता है शेफाली?''
विकास भूषण ने भोजन पर ध्यान दिया।
शेफाली उनका यह तरीका जानती है। अब कुछ नहीं कहेंगे विकास भूषण, शेफाली हज़ार
बात कर ले तो भी नहीं।
परन्तु घर की सजावट तस्वीर जैसी है। चौके में रोज ही उत्सव की तैयारी लगी
रहती है और घर की गृहिणी (अतिथियों के सामने) सदा-प्रफुल्लित रहती हैं।
अत: जो आता है वही प्यासी नज़र से निहार कर एक आह भरकर सोच ही सकता है, कितने
सुखी हैं ये लोग!
अपने मझले भैया के घर की इस मनोहारी छवि को देखते-देखते ही तो रमोला को अपने
नसीब के खोटेपन का अधिक अहसास हो गया है। जब रमोला की माँ जीवित थीं, तीन
भाइयों का एक परिवार था तब की बात और थी। उन दिनों रमोला जब मैके आती थी,
क्षेत्रबाला उसके साथ विविध उपहार भेजती थीं सजाकर।
बगीचे से फूल, तालाब की मछली, घर की गाय के दूध से बनी पनीर की मिठाई, यहाँ
तक कि बड़ी, अचार, अमावट....देखकर उसके मैकेवाले मोहित हो जाते थे। रमोला भी
आत्म-तुष्टि से पुलकित हो जाती थी।
माँ के स्वर्गवास के बाद भाइयों का परिवार बँट गया। रमोला का मैके में आकर
दिन बिताना समाप्त हो गया। तब से तो केवल मिलने के लिए आना होता है। बड़े भैया
के यहाँ तो पैसों की तंगी है, वहाँ जाने में सुख नहीं है। स्कूल के काम के
अलावा भी बड़े भैया को तीन ट्यूशन लेने पड़ते हैं, बड़ी भाभी को दिन-रात मेहनत
करनी पड़ती है, क्योंकि संयुक्त परिवार में नौकर-चाकर का जो सुख था, वह तो अब
रहा नहीं।
दिन-रात काम में जुटे भाई-भाभी के पास जाकर बैठने में भला क्या सुख मिल सकता
है? बातें करने की फुर्सत ही कहाँ है उनके पास?.....छोटा भाई तो अपनी साली के
घर के एक हिस्से में किराया देकर रहता है, वहाँ जाने का तो सवाल ही नहीं है।
आने को बचा यह मझले भैया का घर।....कितना सुंदर, सजीला है।
इस घर में रमोला की लाई हुई चीज़ों की कोई कद्र नहीं। शेफाली कहती है, ''कौन
यह सब आलतू-फालतू चीज़ खाएगा रमोला? ये सब तुम बड़े भैया के घर ले जाना, मिलने
तो जाओगी न? जाना है तो आज ही ले जाओ। यहाँ कहाँ पर ढेर लगाओगी? यह सब कोई
ट्रेन में ढोकर लाता है भला?''
सुनकर रमोला शर्मिन्दा महसूस करती है। उसे भी ये चीज़ें 'आलतू-फालतू' लगने
लगती हैं। सच ही तो है। इस तरह टोकरी में भरकर लौकी, कोंहड़ा, कच्चे पपीते और
केले, खीरा, कटहल, देशी आम, मर्तमान केला, डाब और नारियल क्या समझ कर लाती है
रमोला? शेफाली की बैठक के कमरे के सामने वाले पैसेज में पड़े उस ढेर को देखकर
अपने को और भी तुच्छ समझने लगती है रमोला।
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