नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
जिस दिन फिल्म रिलीज हुई विजयभूषण आए।
आज वह नहीं छोड़ेंगे, जाना ही पड़ेगा अभिमन्यु को।
न जाने अशोभनीय होगा।
इसके अलावा, न गया तो अभिमन्यु के मनोभाव का पर्दाफास हो जाएगा, विरोधी
मनोभाव का।
कौतूहल भी है। और...और?
हां, ममता भी है न।
अभिमन्यु सचमुच तो पाषाण नहीं हुआ है। उसे क्या मंजरी की छलछलाती आँखें,
अभिमान से थरथराते होंठ और विषादपूर्ण चेहरा नहीं दिखाई पड़ रहा था? या देखकर
मन को बुरा नहीं लग रहा था? लेकिन क्या करे? घर बाहर लोगों ने इस बात को इतना
तूल दे दिया है, अभिमन्यु को इतना धिक्कार रहे हैं कि अभिमन्यु के लिए सहज हो
पाना मुश्किल हो रहा है। बाहर जितना ही हंस-हंसकर लोगों की बातों को टाल रहा
था, भीतर से उतना ही अधिक गुम हुआ जा रहा था।
आज इसीलिए धुले कुर्ते पर एक कीमती शाल डालकर फिल्म देखने के लिए तैयार हुआ
और मंजरी के पास पहुंचकर अपनी भंगिमा में हंसते हुए कहा, "कैसा लग रहा हूं?
स्टार का पति लग रहा हूं न?"
बहुत दिनों से अभिमन्यु ने ऐसी अच्छी तरह से बात नहीं की थी। किस बात से क्या
हो जाता है। छलछलाई आँखें, सिर्फ छलछलाती ही नहीं रहीं बल्कि बरस पड़ीं।
"ये लो। ये क्या हो रहा है? अरे अरे?"
मंजरी ने साफ कुर्ते और कीमती शाल की परवाह नहीं की। ये सब आँसुओं से भीग
गईं।
अभिमन्यु धीरे-धीरे उसके सिर पर हाथ फेरने लगा।
अपने को धिक्कारते हुए, अफसोस करते हुए अभिमन्यु ने सोचा बेचारी मंजू बिना
सोचे समझे एक बच्चों जैसी हरकत कर ही बैठी है और उसके लिए कम लांछित भी नहीं
हो रही है। इधर अभिमन्यु भी नितांत ही निर्ममभाव से बाहरी लोगों जैसा व्यवहार
करता रहा है। व्यंग किया है, विदुप किया है। न:! बहुत बड़ा अन्याय हो गया है।
कुछ कहने जा रहा था, कह न सका।
विजयभूषण ने आवाज लगाई, "प्राइज-वाइज बाद में आकर दे देते भाई। उधर समय निकला
जा रहा है।"
समय निकला जा रहा है।
अरे हां।
समय तो भाग रहा है। इसीलिए इंसान भी सांस रोककर दौड़ रहा है। दो घड़ी बैठने का
वक्त नहीं। अवसर नहीं है शांत होकर बैठे और एक बार अपने हृदय की बात कहे।
सिर्फ भागो दौड़ो...समय के पीछे-पीछे।
अशांत उद्विग्नता।
दुःसह प्रतीक्षा।
सिर चकरा रहा था, फिल्म की कहानी साए की तरह आँखों के सामने से तैरती चली जा
रही थी। चेतना जगत तक पहुंच नहीं रही थी। कब आयेगा वह महामुहूर्त, जब पर्दे
पर झलक उठेगा एक शरीर...देह नहीं, देहातीत।
जब से होश संभाला था, बहुत रूपों में, बहुत साज-श्रृंगार करके शीशे के
बीचोंबीच जिसे देखकर मुग्ध होती रही थी, जिससे प्यार किया था, प्यार करने की
इच्छा पूरी नहीं हुई थी, उसे ही नए रूप में नई सज्जा में, चित्रपट के आइने
में देखने के लिए कितना संग्राम किया था मंजरी ने।
आज उसी साधना की सिद्धी, उसी सपने की सफलता का दिन।
मत्राविष्ट सी निथर बैठी थी मंजरी।
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सचमुच वह दिखाई पड़ेगी। समझ में नहीं आ रहा था,
देखकर पहचान सकोगी या नहीं।
अंत में आया वह क्षण।
मंजरी चित्रपट पर उभर आई। घूमी फिरी, बात की, चली गई। फिर आई, फिर बोली।
लेकिन क्या बोली? कैसा स्वर? किसका स्वर?
श्रवणेंद्रीय की शक्ति क्या खो बैठी है मंजरी? वरना कोई बात सुन क्यों नहीं
पा रही है? उसकी समस्त इंद्रियों की शक्ति क्या उसकी आँखों में आ गई
है?
"क्यों री, उठेगी या नहीं? बाह्मज्ञान शून्य हो गयी है जो?'' सुनीति के धक्का
मारने पर चौंककर उठ खड़ी हुई मंजरी।
"चल चल, वह लोग नीचे उतर गये हैं।" कहकर सुनीति आगे बढ़ने लगी। आगे सुनीति की
लड़कियां हंसती हुई सीढ़ियां उतर रही थीं।
विजय बाबू अभी नहीं जाएंगे, यहां अभी उनके दोस्त लोग थे घर की मोटर पर सुनीति
बच्चों को लेकर चली गईं, ये दोनों टैक्सी से लौटे।
दोनों में से कोई नहीं बोला।
टैक्सी में अखंड नीरवता।
बस रह-रहकर सांस की एक हल्की-सी आवाज हवा में फैल रही थी। न जाने किसके सीने
से वह सांस उठ रही थी।
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