नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
अभिमन्यु ने जाकर मां की चादर का कोना पकड़ा।
"मां, ये क्या पागलपन है?''
मां बोलीं, "पागल हूं तभी तो तुम जैसे बुद्धिमानो के साथ रहना संभव नहीं हो
रहा है बेटा। छोड़ मुझे।"
अभिमन्यु दृढ़स्वर में बोला, "ठीक है, मुझे त्याग रही हो तो अपने दूसरे बेटों
के पास जाओ। दामाद के घर जाकर रहना ठीक नहीं है।"
छोटी दीदी फुफकार उठीं, "ओ:। इस बात के लिए बात को शर्म महसूस हो रही है-है
न?"
"सो तो हो रही है।"
"क्यों हम क्या मां की संतान नहीं?"
पूर्णिमा ने बाधा देते हुए कहा, 'तर्क करना बेकार है इंदू। मेरा किसी के घर
जाकर रहने का मंत्र नहीं है। तू घर जा। मैं खड़दा में जाकर रहूंगी।" खड़दा
पूर्णिमा के गुरू का घर है।
यूं तो खड़दा नहीं गईं पूर्णिमा, लेकिन घर में इस तरह रहने लगीं जैसे इनसे
उनका कोई संपर्क नहीं।
उधर शूटिंग शुरू हो गयी।
अभिमन्यु का अजीब हाल था।
मेरी पत्नी स्वेच्छाचारिणी है, उस पर मेरा कोई कंट्रोल नहीं, यह बात स्वीकार
कैसे करे? इसीलिए सबकी डांडफटकार, सबकी गालियां हजम करके नीलकंठ बन गया है
वह। लोगों को दिखाना पड़ रहा था कि उसके अपने शौक के कारण ही यह घटना घटी है।
और उस हंसी मजाक के बाद ही मंजरी पर अपनी खीज प्रकट करने में शर्म सी लगी।
बल्कि कभी-कभी कहना पड़ जाता, "बाप रे, लोग ऐसा कर रहे हें। इसी को कहते हैं
तिल का ताड़ करना।"
मंजरी चुप रहती।
क्योंकि उसकी मां उसके भाई घर आकर काफी डांट सुना गए थे। फिर भी फिल्म बन रही
थी।
लोकलाज सिर्फ एकतरफा नहीं होता है।
इतना आगे बढ़कर पीछे हटना मृत्युतुल्य है।
"मेरी पत्नी अबाध्य है" पति के लिए इसे स्वीकारना जितना अपमानजनक है, लड़कियों
के लिए भी उतना ही अपमान कर है। यह स्वीकारना ही पति ही मेरी गतिविधि का
मालिक है।
अतएव दांपत्य जीवन में मनोमालिन्य की मलिनता, गृहस्थी पर अशांति का जहरीली
हवा बहे...बाहरी दुनिया का सुख बना रहे।
बाहरी लोग समझें मैं उदार हूं।
बाहरी लोग जानें कि मैं स्वाधीन हूं।
मंजरी के मायके के दूर के रिश्तेदारों और परिचितों का इस मामले से कोई सीधा
संबंध नहीं। न उनकी मानहानि हो रही थी न उन्हें शर्म आ रही थी। इसीलिए वे लोग
कौतूहल भरे प्रश्न पूछकर स्टूडियो और शूटिंग संबंधी ज्ञान संचय कर रहे थे और
हंस-हंसकर कह रहे थे, "धन्य है लड़की! तूने सबको चौंका दिया।" हालांकि इधर के
पक्ष में भी दो चार समर्थक हैं। जैसे कि अभिमन्यु की दोनों भाभियां।
एक रहती हैं थियेटर रोड, दूसरी सेंट्रल एवेन्यू लेकिन अचानक दोनों का मिलन
हुआ। दोनों एक दिन एक की मोटर पर चढ़कर आई पुराने घर में। विजया दशमी के बाद
सुविधानुसार एक दिन आकर सास को प्रणाम कर जाने के बाद शायद ही कभी इस घर में
पर्दापण करतीं हैं। हालांकि जब आतीं हैं तब विनम्रता में कोई कमी नहीं करती
हैं।
आकर वे दोनों अभिमन्यु के कमरे में जमकर बैठीं।
बोलीं, "चलो, तुमने तो कुछ किया छोटे देवरजी। पांच लोगों से बात करो
तो मुखोज्जवल होता है। और हम? कैसे अद्भुत लोगों के पल्ले बंधे हैं। इस जमाने
का हालचाल नहीं जाना कभी। सिर्फ समझते हैं पैसा और व्यवसाय। छि:।' अभिमन्यु
धीरे से हंसा, "इसके लिए आपका भाग्य दोषी नहीं है, कैपेसिटी का दोष है। गधा
पीटकर घोड़ा बनाने की कैपेसिटी होती तो दुःखी होने या शिकायत करने की जरूरत
नहीं होती।"
"सच कहा है। छोटी बहू में वह गुण है।...खैर छोटी बहू सिनेमा का पास-वास देगी
न भाई? जिंदगी भर सिर्फ मुट्ठी-मुट्ठी पैसा खर्च करके फिल्में देखी हैं, अब
बिना पैसों के देखूंगी है न मझली बहू।"
मझली बहू हंसते-हंसते लुढ़क गयी।
अभिमन्यु के लिए अपने चेहरे को स्वाभाविक बनाये रखना कठिन हो गया। मंजरी
अतिथि जिठानियों की 'सेवा' के लिए इलेक्ट्रिक हीटर जलाने लगी। इस पर वे दोनों
हंसकर टिप्पणी करने बैठीं, "इसी को कहते हैं लक्ष्मीबहू। जरूरत पड़ने पर
सिनेमा थियेटर कर सकती है और जरूरत पड़े तो गृहस्थी का काम भी कर सकती है। और
हम लोग? हि हि हि! हम सिर्फ खा सकते हैं, सो सकते हैं और दिन-दिन मोटे हो रहे
हैं। छोटी बहू हमारे दल में नहीं है...अच्छी भली दुबली-पतली है। और न रहे तो
चलेगा कैसे? अच्छा री छोटी बहू नाचना-वाचना भी तो पड़ेगा न?"
इसी तरह से मंजरी के जीवन की दिली इच्छा पूरी हुई। मन-ही-मन सैकड़ों बार मंजरी
ने अपने कान उमेठे और सोचा, जो हो गया सो हो गया बाबा, ये आखिरी है। कौन
जानता था कि इतनी सी एक चीज के लिए इतने तूफान उठेंगे।
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