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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


लेकिन फुर्तीबाज अभिमन्यु के भीतर आज एक कठोर मूर्ति दिखाई दी है और इसीलिए मंजरी को इतना गुस्सा है, इतना अभिमान। वह तो जिंदगी भर देखती आ रही है दीदी जो जी में आ रहा है कर रही है, लेकिन जीजाजी तो कठोर नहीं होते हैं।
उस दफा तो दो साल के छोटे से बेटे को छोड़कर सुनीति जब पड़ोसियों के साथ केदार बदरीनाथ चली गईं, घर-बाहर सभी ने खूब निंदा की थी। लेकिन विजयभूषण जरा भी गर्म नहीं हुए।
मंजरी ही जब दीदी की गलती की बात लेकर जीजाजी से कहने गयी तो विजयभूषण हंसकर बोले थे, "जाने दे भाई, जाने दे। तेरी दीदी की स्वर्ग की सीढ़ी बनेगी तो मुझे भी फायदा होगा। आचल में बांधकर घसीटती हुई नहीं ले जाएगी क्या? ट्वेंटी फोर आवर्स का सर्वेंट एक नहीं रहेगा तो स्वर्गसुख आधा नहीं हो जाएगा क्या?"
"चुप रहिए आप।" मंजरी ने डांट लगाई, "और इस खोका का हाल? नौकर-चाकर हैं तो क्या कोई बच्चा छोड़कर चला जाएगा? इसकी दुर्दशा नहीं हो रही है?''
"हाय-हाय, मुझ पर इतना अन्याय न कर भाई।" कहा था विजयभूषण ने, "मैं बाप होकर उसकी दुर्दशा कर रहा हूं यह मुंह पर कहना क्या ठीक है? कहना ही है तो चोरी छिपे पीठ पीछे कह।"
"पीठ पीछे क्यों कहूं? जो कुछ कहूंगी मुंह पर ही कहूंगी।"
"सो तो ठीक है। तुम लोग हो आधुनिका-कोई बात ढाक तोपकर, मिठास भरकर करना तुम्हारा कानून नहीं है खैर एक बात अच्छी हुई कि इन दो महीनों में शिशुपालन पद्धति सीख लूंगा।"
यह हैं विजयभूषण।
इसी को कहते है पति हो तो ऐसा। वरना जब तक पत्नी पति और उसके पति और उसके परिवार वालों के मतानुसार चल सकी तभी तक प्यार मोहब्बत की दरिया बहती रही, अन्यथा दरिया सूख गयी। इसे क्या प्रेम कहते हैं?
उपरोक्त बातें सोचते हुए मंजरी जोर-जोर से मुंह पर स्नो घिसने लगी। इसके बाद नौकर को यथाकर्त्तव्य निर्देश देकर दीदी जीजाजी से पहले जाकर कार पर बैठ गयी।

प्रयोजक नए थे लेकिन परिचालन अभिज्ञ।
किताब पढ़कर वे अभिनेता अभिनेत्री को विस्तार से, स्पष्ट रूप से उन्हें उनकी भूमिका समझा दे रहे थे। लेकिन मंजरी का ध्यान बार-बार हट रहा था। जिन अभिनेता अभिनेत्रियों को पर्दे पर देखकर पागल हो उठती थी, मंत्रमुग्ध हो जाती थी आज उन्हीं में से कुछ को बिल्कुल पास देखकर उत्साह ठंडा पड़ गया था।
ये ही मनीष चौधरी, कुछ दिन पहले एक फिल्म में भावपूर्ण अभिनय करने के कारण रातों रात प्रसिद्ध हो गये थे। तीन-तीन बार मंजरी ने उस फिल्म को मनीष चौधरी के लिए ही देखी थी। देखती और सोचती, ये कोई साधारण जगत का आदमी नहीं, किसी दूसरी दुनिया से आया है। और ये मनीष चौधरी लगातार सिगरेट पीए जा रहा है और बीच-बीच में डिब्बा खोलकर पान खा रहा है, मुठ्ठी भर-भरकर तंबाकू फांक रहा है।
छि:।
और ये काकोलीदेवी?
आंखों को ढेर सारा काजल, गालों में बड़े-बड़े मुंहासे, अजीब तरह की रंग बिरंगी साड़ी ब्लाउज-देखकर विश्वास नहीं हो रहा था कि यह बनेगी पतिपरायणा, विलासवर्जिता एक सरल ग्राम्यवधू?
आश्चर्य!
क्या हर जगह ऐसा ही होता है? बिल्कुल पास आने से क्या मोहभंग हो जाता है? घर हो चाहे बाहर?

"अरे क्या बात है? आप ध्यान से सुन नहीं रही हैं?" धुरंधर परिचालक तीव्र कटाक्ष करते हैं प्रयोजक की साली के प्रति।
"यहां आपको ध्यान से सुनना चाहिए। याद रखिए, फिल्म की हीरोइन शिवली आपकी बचपन की सहेली है। उसकी कम उम्र में गांव में शादी हो गयी है, ज्यादा पढ़ने लिखने का मौका उसे नहीं मिला था। ससुराल में वह आदर्श बहू है खाना बनाती है, सब्जी काटती है, मसाला पीसती है, तालाब से जाकर पानी भर लाती है-सभी की सेवा करती है, देखभाल करती है। आपसे उनकी बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई है। अचानक आप-माने आप हैं कॉलेज की युवती शिखा की भूमिका में, जाने क्या सूझा, सीधे शिवली के गांव में जा पहुंचती हैं। जाकर देखा शिवली पानी भरने तालाब तक गयी है। देखकर आप चिढ़ जाती हैं। बाल्यसखी को स्त्री पुरुष की समानता और नारी स्वाधीनता पर लंबा चौड़ा भाषण देती हैं। सब सुनकर हीरोइन हंसकर मधुर शब्दों में कुछ कहती है और वहां से प्रस्थान करती है। आपको ज्यादा मेहनत नहीं करना है...सिर्फ...
मंजरी क्षीण स्वरों में बोली, "बस, यही एक सीन?"
''नहीं-नहीं, और दो बार आपको पर्दे पर दिखाया जाएगा हीरोइन का वक्तव्य सुनाने के लिए। माने ये है...कि मूल उपन्यास में शिखा का चरित्र था ही नहीं, ये तो हीरोइन के चरित्र को उभारने के लिए नहीं...

सुनीति स्यूडियो नहीं आई थी। आते वक्त उसे घर पर उतार आये थे ये लोग। लौटते वक्त विजय बाबू के साथ अकेली थी।
विजय बाबू उत्साहित होकर बोले, "जैसा देखा, कुछ भी नहीं है। ये काम तो चुटकियों में कर लेगी। क्या कहती है?" फीकी हंसी हंसकर मंजरी बोली,  "क्या पता।"
'कुछ भी नहीं है' के कारण ही उसका सारा जोश ठंडा पड़ा जा रहा था। उसने चाहा था 'दिखा देना', ऐसा ही चाहती रही है हमेशा। छोटी सी भूमिका में ये भी वह यादगार छाप छोड़ सकती थी। लेकिन उसके भाग्यदेवता का परिहास देखो-उसे एक ऐसा रोल दिया गया जो ग्रंथकार की सृष्टि ही नहीं। वैसे उसके रोल का कोई मूल्य ही नहीं, सिर्फ हीरोइन के चरित्र को उभारने के लिए ही उसका प्रयोजन है।
अभी भी मूल्य समझ पाने की क्षमता उत्पन्न नहीं हुई है मंजरी में इसीलिए जिंदगी भर का शौक मिटाने के लिए उखड़ा मन लिए बैठी रही वह।

विभिन्न विषयों पर बातें करते-करते अचानक विजयभूषण बोले, 'बात क्या है बता तो? एकाएक मन की फुर्ती कहां चली गयी? देख सुनकर घबरा तो नहीं गयी? ऐसी बात है तो अभी बता दे।"
मंजरी संभलकर बैठी।
एक फूंक में मन की द्विविधा और विजयभूषण का संदेह नकारते हुए होंठ बिचकाकर बोली, "हां, घबराना न और कुछ...है क्या उसमे?"
"यही तो सोच रहा हूं। यह जैसा पार्ट है, तुम्हारे लिए तो यह अभिनय नहीं, बिल्कुल स्वाभाविक चीज है। वही शिखा या क्या है...उसकी तरह हर समय कमर कसे तैयार तो रहती ही है तू?"

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