नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
अभिमन्यु का चेहरा थोड़ा लाल दिखाई दिया पर कंठस्वर सहज ही था, "खुद को ही नही
पहचान सका तो माता, भगिनी, जाया।"
"समझी! अपने को ही 'ऐसा लग रहा है' इसलिए उसी अनिच्छा को मां के एतराज का
छद्यवेश पहनाकर...''
सहसा अभिमड हंसने लगा।
काफी जोर-जोर से, आवाज के साथ।
"अचानक इतनी बड़ी-बड़ी बातें क्यों कह रही हो? स्ट्रड़ियो जाने के नाम भर से
स्टेज की हवा लग गई क्या? मां पुराने जमाने की हैं, घर की बहू बेटियां सिनेमा
देखने जा रही हैं सुनकर ही अप्रसन्न हो जाती हैं, वही काम कोई करने जा रहा है
सुनकर गुस्सा होना तो स्वाभाविक ही है न?"
'ठीक है मान लेती हूं कि वह बड़ी स्वाभाविक हैं। हमेशा ही स्वाभाविक काम किया
करती हैं। लेकिन अब क्या किया जा सकता है?"
अपमान से आहत अभिमन्यु फिर भी कोशिश करता है। यह प्रकट नहीं होने देता है कि
आहत हुआ है, अवेहलना दिखाते हुए कहता है, "करने को सभी कुछ हाथ ही में है।
विजय बाबू के आने पर कह दिया जाएगा मां को भीषण आपत्ति है।"
दोबारा शरीर की रगों में खौलता खून दौड़ गया। आग लग गयी तनबदन में।
अभिमन्यु अगर बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं कहकर सलाह मांगता, "जरा बताओ तो,
विजय बाबू को क्या कहा जाए?" तब शायद धक् से ऐसे आग नहीं लग जाती। पर उसकी यह
अवेहलना वाली भंगिमा असहनीय लगती है। जैसे मंजरी इंसान नहीं? उसकी 'जुवान' की
कोई मर्यादा नहीं?
बचपन का शौक जाए जहत्रुम में। अब तो मान मर्यादा का प्रश्न ही मुख्य है।
इसीलिए फिर से शीशे की तरफ पलटकर कंघी हाथ में लेते हुए मंजरी ने स्थिर
स्वरों में कहा, "नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। मैंने वचन दिया है।"
"आश्चर्य है! अरे इसमें वचन देने दिलाने वाली क्या बात है?"
"बात है!"
"होगी, हालत क्या है वह समझ जाएंगे। बंगाली घर के लड़के हैं न हो, मैं ही कह
दूंगा।"
"नहीं।"
इस एकाक्षरी संक्षिप्त प्रतिवाद के बाद बात आगे बढ़ नहीं सकती थी कम से कम
अभिमन्यु जैसे अभिमानी पति की तरफ से।
पलटकर तौलिया लेकर वह भी नहाने चल दिया। थोड़ी देर पहले सोचा था आज कॉलेज नहीं
जाएगा, प्रस्तुत होकर घर से निकलने का मन नहीं था। अब झट से मन बदल लिया
उसने।
सुडौल सुंदर स्वच्छ कांच का बर्तन भीतर ही भीतर चटख गया।
विजय बाबू खुली आवाज में बोला, "कहां, जो साला अनुमति-पत्र पर साइन करेगा वह
कहां है?''
"ओहो! आप अब तंग मत कीजिए। जैसे मैं नाबालिग हूं।"
साथ में सुनीति आई थी।
उसने कहा, "मान लिया कि तू बड़ी बालिग है। लेकिन गया कहां वह? हमारे आने की
बात उसे मालूम नहीं थी?''
"मालूम क्यों नहीं होगा! असल में आज ही के दिन कॉलेज लाइब्रेरी की मीटिंग
है।"
"पूछता हूं उसे एतराज तो नहीं है?"
"रहे भी तो सुनता कौन है?''
सुनीति का मन इस बात का समर्थन न कर सका। सारे रास्ते वह अपने पति को डांटती
रही थी, बहन के पति को भला बुरा कहती रही थी। उसका कहना था, इतना शौक पालना
अच्छा नहीं है। उम्मीद थी कि यहां आकर सुनेगी कि अभिमन्यु ने मना कर दिया है।
लेकिन वह आशा भंग हो गयी। न जाने इस शौक का नतीजा क्या होगा? अंतिम परिणाम
क्या होगा? रिश्तेदार परिवार वाले निंदा करेंगे और सभी इसके लिए उसी के पति
को जिम्मेदार ठहरायेंगे। ये कैसा झंझट जान-बूझकर मत्थे लद गया?
अभिमन्यु भी अजीब है।
इस युग की बात ही अलग है।
आधुनिक बनने की होड़ में लोग अपना भला बुरा भुला बैठे हैं।
सुनीति लोगों का बचपन कितनी सख्ती में बीता था जबकि कोई ज्यादा पुरानी बात
नहीं। बेचारी सुनीति, पढ़ने लिखने की कितनी इच्छा थी लेकिन क्लास नाइन में
पहुंचते ही उसे स्कूल छोड़ना पड़ा-अपराध था बड़ा हो जाना। जिस वक्त स्कूल से
निकाला गया, एक बार प्रस्ताव रखा गया कि किसी बूढ़े से मास्टर को रखकर आगे की
पढ़ाई जारी रखा जाए लेकिन अन्य सभी प्रस्तावों की तरह ये प्रस्ताव भी लोगों ने
भुला दिया।
इसके बाद दो एक साल जाने कैसे बीत गये मां की तबीयत खराब होने के नाम पर घर
का सारा काम कंधे पर आ टिका। इसके बाद पैदा हुई मंजरी।
किशोरी सुनीति ने ही मां का जच्चा बच्चा संभाला। तब तो अस्पताल जाने का रिवाज
था नहीं। पर्दा वाले घरों की बहू बेटियां यह बात सोच ही नहीं सकती थीं।
मंजरी ने घुटनों के बल चलना सीखा ही था कि सुनीति की शादी हो गयी। याद है,
विदाई के वक्त बहन को गोद में लेकर फूट-फूटकर रोई थी। सच तो ये है कि दीदी और
जीजाजी के लाड़ प्यार के कारण ही मंजरी इतनी दुःसाहसी हो रही थी।
सुनीति ने ही मां-बाप से कह सुनकर उसे कॉलेज में भर्ती करवा दिया था। कहा था,
हम तो न पढ़ सके, ये तो पढ़ ले।" हां इसी तरह की अनेकों छूटें मिलीं हुई हैं
मंजरी को।
लेकिन यह तो अति है। बहन का फिल्मों में काम करने वाली बात सुनीति से
बर्दाश्त नहीं हो रही है। और इसीलिए अभिमन्यु पर भी बहुत गुस्सा आ रहा था।
मंजरी ने साज-श्रृंगार करना शुरू कर दिया। सुनीति ने इधर-उधर देखकर दबी जुवान
में पूछा, "तेरी बुढ़िया सास नजर नहीं आई? कहां हैं?"
मंजरी गंभीर भाव से बोली, "मेरे ऊपर नाराज होकर लड़की के यहां चली गयी हैं।"
"सर्वनाश! जो सोचा था वही। मैं तो सोच ही रही थी बुढ़िया यह सब होने कैसे दे
रही है। अब उपाय?
मंजरी ने गले का हार उतारकर दूसरा पहनते हुए कहा, "बुढ्डे बुढ़िया तो हमेशा ही
रहेंगे बड़ी दीदी। उनके मरने के बाद अगला जेनेरेशन बूढ़ा होगा। लेकिन इसके ये
मतलब तो नहीं कि समाज में नया कुछ नहीं होगा।"
"तुझसे तर्क कर सकूं इतनी विद्या मुझमें नहीं है।" विजय बाबू बोले, "ये लो!
लड़की एक शुभ काम के लिए जा रही है और तुमने घिनघिनाना शुरू कर दिया? ऐसा भी
क्या पाप कार्य करने जा रही है? इसमें दोष क्या है?"
"नहीं दोष कहां है-खूब सारे गुण हैं।" कहकर सुनीति मुंह फुलाकर बैठ गयी।
विजयभूषण से तर्क में जीतने का सामर्थ्य उसमें नहीं है। उनसे तर्क ही नहीं कर
पाती है। जिंदगी भर कोशिश करती आई सुनीति लेकिन पति को 'सीरियस' न बना सकी।
दुनिया का वह हिस्सा उन्हें दिखाई ही नहीं देता है जो अंधेरा है। जोर
जबर्दस्ती आंखों में अंगुली डालकर दिखाने से हंसकर टाल देते।
अभिमन्यु फुर्तीबाज तो ये भोलेनाथ।
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