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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


मंजरी हंस दी। बोली, "हुं, खूब जानते हैं। कितना सोच-समझकर चलना पड़ता है कुछ पता है? अब यह चिंता हो रही है, "सास महारानी तो गुस्से से लाल हुई बैठी हैं, अब..."
कहना न होगा, यह बात अभी-अभी मंजरी के दिमाग में आई है। पर चिंता के तौर पर नहीं, बात करने के उद्देश्य से।"
विजयभूषण इस मानसतत्त्व को नहीं जानते हैं। चलती कार पर अट्टहास करके बोले, "अब उन्हें कैसे 'काला' करना संभव होगा, यही सोच रही हो क्या?"

कार आकर घर के दरवाजे पर रुकी।

नीचे के किराएदार का लड़का सीढ़ी पर बैठा था, उसी के पास नौकर भी था। दूसरा कोई दिन होता तो सवाल पूछती, आज बिना बोले उनकी बगल से झटपट मंजरी ऊपर चली गयी।

ऊपर जाकर देखा, यथानियम मेज पर खाना ढका रखा है। यथारीति खाट के सिरहाने स्टूल खींचकर, उस पर टेबिललैंप रखकर, एक किताब हाथ में पकड़े अभिमन्यु बिस्तर पर पसरा पड़ा है।

चिड़चिड़ी मानसिक अवस्था पर न जाने क्यों इस दृश्य ने मलहम का काम किया। पर इज्जत का सवाल भी था। इसीलिए अभिमन्यु से बात न करके सिर्फ गंभीर चेहरा बनाए बिस्तर के एक तरफ बैठ गयी। किताब के नीचे से एक बार अभिमन्यु ने कनखियों से देखकर मुंह फेर लिया।
मंजरी बोली, "मां नहीं लौटी हैं?"
"लौटी हैं।"
चलो बाबा! कम से कम मंजरी के अपराध का बोझ जरा सा तो कम हुआ। थोड़ा सा हिल-डुलकर बैठते हुए संधि करने के स्वर में बोली, "तुम जाकर ले आए क्या?''
"तो क्या खुद आई हैं ऐसी आशा करती हो?''
आशा?
सहसा अभिमानवश आँखों की पोरें गीली हो उठीं। मंजरी के हिस्से में नितांत ही अप्रधान चरित्र की भूमिका मिलने के कारण जो अभिमान भरे बादल इकट्ठा हो गए थे, वह असर्तकता की हवा के झोंके से गिरने को मुखरित हो उठे। 
"मेरी भला कोई आशा है? किसी से मुझे कोई आशा नहीं है। हमेशा से एक शौक था...''
किताब बंद करके अभिमन्यु ने बगल में रख दी। हाथ बढ़ाकर अभिमानिनी को पास खींच लिया।
फिलहाल देखकर लगा वही सुंदर कांख का बर्तन चटका नहीं है, उस पर काला निशान था।

और सुबह दोनों को देखकर लगा दोनों को नए सिरे से प्रेम हो गया है। चिढ़कर पूर्णिमादेवी ने सोचा, लड़का कितना बड़ा निकम्मा, नालायक है। दो दिन तो कम से कम कठोर बना रह...सो नहीं-पानी-पानी हुआ जा रहा है। छि:।"
पिछले दिन अभिमन्यु बड़ी बहन के यहां जाकर नाराज मां को वापस ले आया था। यद्यपि पत्नी की तरफ से कुछ काल्पनिक झूठ का सहारा लेना पड़ा था उसे।
मजाक की मजाक में मंजरी ने जीजाजी से सिनेमा में काम करने की बात कह दी थी। जीजाजी हैं पूरे भोलेनाथ मजाक को सच समझकर एक जगह बातचीत पक्की कर बैठे। अब अगर मंजरी 'न' करती है तो उन महाशय का मुंह दिखा सकना मुश्किल हो जाएगा। इसीलिए मजबूरन मंजरी को... वगैरह-वगैरह।
भोलानाथ विजयभूषण मजाक को सच मानना चाहें तो मान सकते हैं लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि पूर्णिमादेवी झूठ को सच समझने की गलती नहीं करने वाली। फिर भी गलती की है यही जताती हैं। सच को उद्घाटित करने का प्रयास नहीं करती हैं। ये तब भी अच्छा है। इस तरह से झूठ बोलकर लड़के ने उनकी मर्यादा अटूट रखी है। अतएव अनिच्छा के भाव लिए हुए वापस लौट आई।
लेकिन इतनी सी आशा तो वह कर ही सकती हैं कि कम-से-कम दो-चार दिन लड़का बहू की अवहेलना करे। गुस्सा रहे, बात-बात खीजे। सो नहीं-दोनों को देखकर लग रहा है कल उनकी सुहागरात थी। छि:-छि:।

किताब पढ़कर भूमिका समझा देने के बाद लगभग एक महीना बीत गया। दूसरी तरफ से कोई चूं चपड़ नहीं। अपने आप खोज खबर लेने में मंजरी को शर्म महसूस हुई।
अभिमन्यु कहता, "तुम्हारे जीजाजी का करोड़पति होना नहीं हो सकेगा मंजू कंपनी ने शायद अंकुर काल में ही निर्वाण प्राप्त कर लिया।''
मंजरी होंठ बिचकाकर कहती, "मरने दो।"
"अहा, तुम्हारा जिंदगी भर का शौक..
"हुं, जैसा पार्ट दे रहे थे, बलिहारी है। फिल्म का न बनना ही अच्छा है।"
फुर्तीबाज अभिमन्यु का कठोर चेहरा अब दिखाई नहीं पड़ता है। वह अपने स्वभावानुसार हंसकर कहता, "सच कह रही हो अगर नायिका ही न बन सकी तो जात गंवाकर फायदा?"
इधर पूर्णिमा भी क्रमश: 'बहूमां' को बुलाकर बात करने लगीं।
सहसा इसी स्थिर गंगा में लहरें उठीं।
अप्रत्याशित नहीं, अवांछित जरूर था।
इसीलिए अभिमन्यु के मुखाकाश पर बादल मंडराने लगे, पूर्णिमा के चेहरे पर अमावस्या।
कोई एक छुट्टी का दिन था, विजयभूषण कार लेकर आ पहुंचे।
"एक घंटे में तैयार हो ले, फिल्म का मुहूर्त है।"
"मुहूर्त है?"
"हां हां! शुभ दिन देखकर, माने जितने भी साहब क्यों न हों, पत्रा वगैरह देखकर शुभलग्न वगैरह विचारकर, यह सब करना पड़ता है। माने सभी करते हें। तुझे पहले से खबर करने के लिए कहा था लेकिन मैं ही भूल गया। खैर, अभी भी वक्त है, तू तैयार हो ले, मैं बैठता हूं।"
अभिमन्यु खामोश।
मंजरी ने विमूढ़भाव से पलक झपकते भर में पति के भावशून्य चेहरे को देखकर द्विविधाग्रस्त भाव से कहा, "घंटे भर में तैयार हो लूं यह कैसे संभव है?
विजयभूषण 'भाव' या 'भावशून्यता' की ओर दृष्टिपात किए वगैर बोले, 'घंटे भर में तैयार होना संभव नहीं? कितनी साड़ियां पहनेगी? कहने पर तो तुम लोग गुस्सा हो जाते हो। इसीलिए तो कहा जाता है 'औरतजात'। अच्छा ले, सवा घंटे का समय ले ले। जब मेरा दोष है तो बैठा रहूंगा। बल्कि मुझे एक तकिया ला दे एक नींद ले लूं। और उससे पहले एक गिलास पानी दे।...ओ ये रहे अभिमन्यु लाहिड़ी, अपना कार्ड लीजिए। उठकर अपनी पोशाक बदल आइए।'' 
"मैं? मैं कहां जाऊंगा?'' गंभीर हंसी हंसकर पूछा अभिमन्यु ने।
"और कहां? छायाचित्र का जच्चागृह कह सकते हो।"
"पगाल हुए हैं।"
"पागल तो हम हुए बैठे ही हैं भाई जब इन लोगों के हाथ लगे हैं।" 
"मेरे जाने की जरूरत नहीं है। आप ही लोग जाइए।"
विजयभूषण हंसकर बोले, "क्यों? जाएंगे तो क्या अध्यापक महाशय की मानहानि होगी? इतने आधुनिक होकर भी प्यूरिटन बने रह गए? जमाना बदल गया है, वक्त बदल गया है। जहां यह पूछने पर कि सिनेमा का रास्ता पूछने पर यह जवाब मिलता था कि 'जानता हूं पर बताऊंगा नहीं' वहीं अब विश्वविद्यालय के अध्यापक लोग ही हो गए हैं सिनेमा थियेटर के कर्णधार। इसके अलावा पत्नी को जब सिनेमा का पर्दा चमकाने के लिए छोड़ दिया है तब इतना छुआछूत करना कहां तक उचित है?"
अभिमन्यु इतना निर्बोध नहीं कि पकड़ा जाये अतएव हंसकर बोला, 'काम है बड़े भाईसाहब वरना जाता।"
"काम! हुं! तुम कब से काम के आदमी बन गये? मैं समझ रहा हूं यह है शर्म।! अच्छा रहने दो। ये शर्म भी चली जायेगी। छोटी साली, एक तकिया दे जाओ।"

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