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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


फिर भी।
फिर भी एक बार कोशिश करके देखने की इच्छा हुई अभिमन्यु की। इससे पहले नहीं हुई थी, अब हुई। मां को इतना विचलित देखकर मन के किसी कोने में अपराधबोध में झांककर अगाह किया। सच में, क्या मां के प्रति उसका कोई कर्त्तव्य नहीं? उन्हें संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी नहीं है? धड़धड़ाता हुआ नीचे उतर आया।
बिना किसी भूमिका के बोला, "मंजू! लगता है तुम्हारा शौक पूरा नहीं हो सकेगा। मां को भंयकर आपत्ति है, बहुत ज्यादा नाराज हो रही हैं।"
मंजरी सुबह से घर के छोटे बड़े सारे कामों से निपटकर अब नहाने जाने की तैयारी कर रही थी। चोटी खोलकर बालों को पीठ पर बिखेरकर, शीशे के सामने खड़ी होकर कंघी करते हुए अपने आपको नए सिरे से देख रही थी।
सिर्फ देख रही थी कहना ठीक न होगा, देख-देखकर मुग्ध हो रही थी। शीशे को रुपहला पर्दा मानकर अपने को दर्शक की दृष्टि से देखने की कोशिश करने में खोई हुई थी।
हां, चेहरा है 'सिनेमा स्टार' बनने योग्य।
हालांकि रंग गोरा नहीं है लेकिन सांवला रंग स्टार बनने में बाधक नहीं। आख नाक मुंह त्रुटिहीन है। और ये बाल? लहरदार इतने सारे बाल?
न जाने किस तरह का मेकअप करना पड़ेगा। मामूली सी भूमिका है उसकी...ग्राम्यवधू नायिका की आधुनिका सहेली। सिर्फ तीन दृश्यों में उसकी जरूरत हे। फिर भी कितना रोमांचक है।
बचपन से इसी बात का शौक था मंजरी को।
कम से कम एक बार, दूर से, दर्शकों के बीच बैठकर वह स्वयं को देखे। देखेगी कैसी लगती है पर्दे पर चलते फिरते हुए, बात करते हुए। बात करते समय चेहरे पर कैसे भाव उभरते हैं? लोग उसके हावभाव देखकर क्या कहते हैं।
छात्रावस्था में स्कूल कॉलेज में कई बार अभिनय कर चुकी लेकिन उसमें कोई मजा नहीं, रोमांच नहीं। उस अभिनय को अपनी आखों से देखकर जांचा परखा कहां जा सकता है? लेकिन स्कूल कॉलेज के उत्सवों में अभिनय करना एक बात है और पर्दे पर उतरना दूसरी बात। गृहस्थ घर की लड़की, गृहस्थघर की बहू शादी से पहले माना कि प्रेम करने का अवसर मिला था पर शौक पूरा करने का अवसर मिलेगा यह तो वह सोच ही नहीं सकती थी। फिर भी मौका जुट ही गया।
भाग्य की उदारता के कारण।
मंजरी के बड़े जीजाजी विजयभूषण मल्लिक पैसे वाले धनी व्यक्ति हैं। अचानक उन्हें धुन सवार हुई है कि तिजोरी में जमाकर रखे धन को हजारों गुणा बढ़ा डालें। अतएव...
सिनेमा के प्रयोजक।
अगर प्रयोजक ठान ले कि एक छोटे से 'रोल' के लिए एक नया चेहरा लिया जाए तो परिचालक उस जिद की उपेक्षा तो कर नहीं सकता है। और छोटी साली अगर जीजाजी के पास एक जिद कर बैठे, जिसे पूरा कर सकना उनके हाथ में है तो जीजाजी की हिम्मत है कि इंकार करें?
यद्यपि वे इसी शर्त पर राजी हुए हैं कि मंजरी ससुराल वालों और ससुर-पुत्र की खुशी से दी गयी अनुमति-पत्र पेश करेगी...तभी जाकर...
मंजरी ने कहा था, वह जिम्मा उसका।
मंजरी की दीदी सुनीति ने कहा था, "वे लोग कभी भी राजी न होंगे, देख लेना।"
विजयभूषण ने कहा, "अरे भाई, वह क्या तुम लोगों की तरह है? 'लव' करके शादी की है...उसकी बात ही अलग है। उनकी हामी होगी इस बात का उसे भरोसा है।"
उम्र में बहुत बड़े हैं जीजाजी, मंजरी को उन्होंने घुटनों चलते देखा था। दीदी के बच्चे ही उसके साथ खेले हैं, इसीलिए साली को उसी नजर से देखते भी हैं। मंजरी भी उनसे बच्चों जैसी जिद कर लेती है।
विजय बाबू ने कहा था, आज शाम को आयेंगे-मंजरी को एक बार स्टूडियो ले जायेंगे, वहां अभिनेता अभिनेत्री के सामने बैठकर निर्वाचित पुस्तक पढ़ी जायेगी।
हंसकर कहा था, "इसके अलावा साढ़ू साहब से हस्ताक्षर ले लूंगा। बाद में वह यह न कहे कि 'बुढ्ढा मेरी बीवी को फुसलाकर घर से निकाल ले गया' मैं इसमें नहीं हूं बाबा। अभिमन्यु खुशी-खुशी साइन कर देगा कि इस मामले का मैं दिल से समर्थन कर रहा हूं" तभी मैं तुम्हें अपनी गाड़ी पर बैठाऊंगा।"
मंजरी ने अभिमन्यु से यह बात बता रखी थी।
अभिमन्यु ने हालांकि कहा था, "तुम खुद बालिग हो।"
फिर भी मंजरी जानती थी कि मजाक-मजाक में कही जीजाजी की यह बात कुछ तो मतलब रखती ही है। इसीलिए मुस्कराकर बोली थी, "लड़कियां कहीं भला बालिग हो पाती हैं? वह तो चिरबालिका रहती है।"

यह सब बातें पिछले रात की है।
सुबह मंजरी अपने आप में मगन थी, अभिमन्यु अपनी धुन में। चाय पीने के बाद से दोनों की भेंट भी नहीं हुई थी। सिर्फ मंजरी ने सोच रखा था कि शाम को जीजाजी के आने की बात फिर एक बार याद दिला देगी जीजाज्ञी को। मन तितली की तरह पंख फैलाये उड़ रहा था।
वैसा ही हल्का, वैसा ही थर-थर कंपन।
ठीक ऐसे ही वक्त पर अभिमन्यु की प्रतिवादपूर्ण हथौड़े की चोट।
अगर अभिमन्यु कहता, "मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है" तो मंजरी पिघलकर द्रव बन जाती, उसके इस अच्छे न लगने को अच्छा लगाकर ही छोड़ती। लेकिन यह तो असत्य है।
इतना आगे बढ़कर, इतनी आशाएं लिए फिर रही है जब, तब ऐसी एक खीज भरी बात सुनकर मंजरी के सिर से पांव तक आग लग गयी।
बालों में कंघी फंसाकर, भौंहें सिकोड़कर बोली, "तुम्हारी मां ने क्या पहली बार यह बात सुनी है?''
अभिमन्यु के लिए यह भावभंगिमायें नई नहीं थीं। इसके लिए वह तैयार होकर ही आया है। मुस्कराकर बोला, "बात ऐसी नहीं है। पर सुनकर पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ था।"
"क्यों? ऐसी कौन सी अविश्वसनीय बात है?''
"ये बात भी है।"
"तुमने जब उन्हें सूचना दी थी तभी क्यों नहीं बता दिया था?''
"उस वक्त सोचा नहीं था कि मां इतना ज्यादा अपसेट हो जाएंगी।"
"सोचा क्यों नहीं था? सोचना चाहिए था। अपनी मां का पहचानते नहीं हो ऐसी बात तो है नहीं।"

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