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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


जीजाजी पर बड़ा गुस्सा आया। अभिमानवश रोना आ गया। होंठों को दांतों से दबाकर मोटर पर जा बैठी।

घर पहुंचकर और कोई बात न कर, सीधे टेलीफोन की तरफ बढ़ गयी मंजरी। लेकिन अभिमन्यु ने क्या सोचा है? वह क्या उसे नजरबंद रखना चाहता है? मंजरी के रिसीवर पकड़े हाथ को पकड़कर बोला, "फोन मत करो।"
"क्यों?" व्यंग हंसी हंसकर तीखी आवाज में मंजरी बोली, "इतनी स्वाधीनता भी नहीं रही?''
"तुम्हारे भले के लिए ही मना कर रहा हूं मंजरी।''
"मेरा भला? ऐसा करने की क्षमता तो अब भगवान की भी नहीं रही। हाथ छोड़ो, मैं जीजाजी को बुलाती हूं अभी ले जाने के लिए।"
"वह नहीं आयेंगे।"
"नहीं आयेंगे? मेरे बुलाने पर भी नहीं आयेंगे? तब तो जरूर तुमने उनके साथ भयंकर कुछ किया है। वरना मैं बुलाऊं और वह न...''
"तुम क्यों किसी और के बुलाने पर भी वह नहीं आयेंगे मंजरी। सहस्रबार बुलाने पर भी वह सुन न सकेंगे। कल शाम को अचानक गर्दन की नस फट जाने से उनकी मृत्यु हो गयी है।"
भगवान नाम का सचमुच कोई है क्या?
गलत-गलत, कोई नहीं है। मानव जीवन का नियंत्रणकर्ता अगर कोई है तो यही हिंसक शक्तिधर क्रूर एक आत्मा है। करोड़ों वर्षों से अत्याचारित मानव के अभिशाप से और भी हिंसक हो गयी है, उन्माद हो गयी है आत्मा।
अस्त-व्यस्त सुनीति चेहरा उठाकर मंजू को देखते ही हाहाकार कर उठीं, "अब क्या देखने आई रे? तेरे जीजाजी अब नहीं हैं रे। तुझे लाने की जगह खुद ही सबको छोड़कर चले गए।"
पत्थर की मूर्ति की तरह बैठी रही मंजू। न उसने दीदी को सांत्वना दी, न खुद रोई। सुनीति की तीन बेटियां हैं। छोटी मौसी के निमायिक भाव देखकर वे सब करवट बदलकर लेटी। ये लोग तीन दिन से न उठीं थीं न पानी पीया था।
सुनीति ही बोलती रहीं, "तू आकर यहां रहेगी इसलिए तेरे जीजाजी कितनी प्लानिंग कर रहे थे। तू बीमार है, कहीं तुझे कोई असुविधा न हो इसलिए सारी तैयारी कर रहे थे। और खुद किसी तरफ देखा नहीं सबको छोड़कर चले गए।"
उस समय निश्चल बैठी मंजरी सोच रही थी मनुष्य के भाग्य का निश्चय करने वाला कैसा होता है? दीदी चुप हो जाएं तो सोच रही थी, कहेगी, "मैं तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। यहां रहने के लिए ही आई हूं।"
लेकिन बोल न सकी। सुनीति की बातों से स्पष्ट हो गया कि वह इस घर में अब पलभर नहीं रुक सकेगी। श्राद्ध का काम निपटते ही वह बड़ी ननद के पास हजारीबाग चली जाएगी। वह सुनीति को अपनी बेटी मानती हैं।
अतएव सारे संकल्प पर धूल फिर गयी।
उसने संकल्प किया था अपनी कमाई से अपना व्यय भार वहन करेगी दीदी के यहां रहकर। संकल्प था उपार्जन करके अभिमन्यु का ऋण चुका देगी। नहीं, इन कुछ वर्षों के दांपत्य जीवन के अन्न वस्त्र का ऋण नहीं, बल्कि जिस क्षण अभिमन्यु ने उस भंयकर बात का उच्चारण किया था, उस क्षण उनका विवाह विच्छेद हो गया था। उसके बार से गैर-रिश्तेदार अभिमन्यु ने जो भी खर्च किया था मंजरी पर, वही ऋण उतार देगी मंजरी। कानून की मदद से विवाह विच्छेद? वह तो बाद की बात है। सचमुच का विच्छेद तो पहले ही हो जाता है।
मंजरी की बीमारी पर अभिमन्यु ने बहुत खर्च किया था, जिसे वह मानता है कि मंजरी ने खुद बुलाया है। इस ऋण को न उतारा तो मंजरी को चैन नहीं।

लेकिन फिलहाल ये सारे संकल्प ठहर न पाये।
इतनी बड़ी दुनिया में मंजरी के लिए कोई आश्रय नहीं। भाइयों का घर? वह तो और भी कड़ुआहट भरा।
जहां जितने रिश्तेदार हैं मंजरी के, आज तक जिन्हें मंजरी जानती है, सब को याद करने की कोशिश की लेकिन कहीं रौशन की किरण नजर न आई। उसे लगा सभी उसके मुंह पर दरवाजा बंद करके ऊपर खड़े होकर व्यंग भरी हंसी हंस रहे हैं।
अतएव वही विडन स्ट्रीट का पुरान तिमंजिला।
जहां केवल पूर्णिमा की क्रूर सर्पिल दृष्टि और अभिमन्यु का लाल गंभीर चेहरा।
उसी चेहरे के साथ अभिमन्यु मंजरी के सामने लाकर रखता दवा का गिलास, लाकर रखता अंगूर, अनार, छेना और संदेश की प्लेट।
देखकर रग-रग में धिक्कार की ग्लानि दौड़ जाती।
रग-रग विद्रोह कर उठता।
तब क्या मंजरी का अंतिम परिणाम होगा-आत्महत्या?

सहेली रमला अवाक् होकर बोली, "तेरा दिमाग फिर गया है क्या? दुनिया में अभिमन्यु बाबू जैसे भले आदमी कहां मिलेंगे? उनके साथ तेरी नहीं पट रही है?"
मंजरी हंसकर बोली, "मान ले मैं ही बुरी हूं। इसीलिए तकरार हो रही है। अभिमान करके चली आई हूं अब तो लौटकर जा नहीं सकती हूं। तू मुझे 'पेइंग गेस्ट' बनाकर रखती है तो बता।"
गला रुंध आया, प्राण होंठों तक आ गये, अपमान के कारण आंखें भर आईं फिर भी हंसी का पर्दा डाले रही मंजरी। पति के साथ झाड़कर सहेली के पास चली आई है। ताकि पति को शिक्षा मिले-इससे ज्यादा कुछ नहीं पति-पत्नी का कलह। जगत के समस्त विरोधों में सबसे हल्की चीज है जो।
लेकिन रमला ने बी.ए. पास किया है, इतने दिनों से घर संसार चला रही है। दो-तीन बच्चों की मां है, उस पर मंजरी की सहेली है। अतएव मूर्ख नहीं है। मूर्ख होती तो मंजरी तक पहुंच न पाती।

अतएव उसकी नजरों से मंजरी के रहस्य की सच्चाई ज्यादा देर तक छिपी न रह सकी। मन-ही-मन बोली, "हुं हुं, जब तुम फिल्मों में काम करने गयी थीं, तभी मुझे शक हो गया था, तुम्हारा सुखी संसार आग की चपेट में आ गया। समझ रही हूं मामला काफी पेचीदा हो गया है। लेकिन अपनी पूंछ में आग लगाकर मेरे घर में क्यों आई हो बाबा? मैं नहीं तुम्हारे जाल में फंसने वाली।"
लेकिन मुंह से शराफत और दोस्ती की ठाट बनाए रखना जरूरी था। इसीलिए बोल उठी, "क्या बोली? पेंइग गेस्ट? मेरे घर में तू दो दिन रहेगी पेंइग गेस्ट बनकर? जा जा, निकल यहां से। जिस मुंह से तूने यह पापकथा कही है, वह मुंह मैं देखना नहीं चाहती हूं। क्यों भई, मेरा क्या इतना ही बुरा हाल है कि तू दो दिन रहना चाहेगी तो मैं...''
मंजरी ने अभिनय करते हुए हंसकर कहा, "दो दिन कहा? कहा तो हमेशा के लिए...''
"ईश! उसके बाद अभिमन्यु बाबू आकर मेरे हाथों में हथकड़ी पहनवा दें और श्रीधर तक घसीट ले जाएं।"
"अहा, इतना आसान है क्या? मैं क्या नावालिग हूं?"
"अरे बाबा! औरत जात ही नावालिग होती है। नावालिग क्यों चिरबालिका। वरना बुढ़ापे में यह झमेला करती? आ, बैठ।...क्यों? क्या मोटर में बेडिंग सूटकेस है? तब तो अच्छा खासा एक उपन्यास है। तूने तो मुझे सोच में डाल दिया। इस घर में मेरा एक नावालिग पालतू प्राणी है...उसे लेकर मुझे एक पल शांति नहीं है। कहीं मौका पाकर, वह न परकीया रस का आस्वादन करने बैठ जाए।" हंसते हुए रमला वहां से चली गयी और मुंह बनाकर पति से जाकर बोली, "देखो तो जरा, बैठे बैठाये मुसीबत आ टपकी है।"

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