नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
लेकिन अभिमन्यु भी क्या करे? वह भी तो हाडमांस से बना इंसान है।
कल मंजरी को ले आने की बात है।
यद्यपि मंजरी से वह पूर्णिमादेवी की शर्तें बता नहीं सका था, सिर्फ कहा था कि
अब मां की मर्जी के मुताबिक चलना पड़ेगा। वरना पूर्णिमादेवी घर छोड़कर
तीर्थवास करने लगेंगी। लेकिन इस बीच सुनीतिदेवी जिद किए बैठी हैं कि वह मंजरी
को अपने पास ले जाकर रखेंगी। मंजरी भी यही ठाने हुए है।
ओफ! कैसे इस दुर्दिन से छुटकारा मिले? कब लौटेंगे अभिमन्यु के अच्छे दिन?
दूध के बाद कहानी की किताब। उसके बाद रात का खाना। उस वक्त तक मन-हीं-मन
प्रतीक्षा कर रही थी। केबिन के नियम थोड़े ढीले हैं। वेवक्त आया जा सकता है।
शाम को काम के कारण फंस गए तो ज्यादा रात होने पर भी आया जा सकता है।
लेकिन कितनी ज्यादा रात?
ग्यारह? बारह? इसके बाद क्या गेट खुला रहता है? खुला रहता है आने का रास्ता?
नर्स अचानक बोल उठी, "आज दीदी को नींद नहीं आ रही है?''
"नहीं। अजीब सी गर्मी लग रही है।"
"गर्मी नहीं खुशी।" नर्स हंसने लगी, "सभी पेशेंटों को देखती हूं जाने के पहले
दिन, रात को सोते नहीं हैं।"
खुशी!
मंजरी सोचने की कोशिश करती है कि अस्पताल से छूटने की बात सोचकर उसे खुशी हो
रही है। लेकिन नहीं तो। बल्कि आतंक सा हो रहा है। हां आतंक। बल्कि यहां अच्छी
थी। उत्तरदायित्वहीन, चिंतारहित हल्का जीवन। कल से फिर युद्ध।
कल दिन के दस बजे छुट्टी।
सुनीति से बात हो गयी है, विजय बाबू भी आएंगे दस बजे।
अस्पताल के कागजों पर हस्ताक्षर कर देगा तो अभिमन्यु अपने दायित्व से छुट्टी
पा जाएगा।
विजयभूषण के साथ ही चली जाएगी मंजरी।
अपने घर?
मंजरी का अपना घर कहां है? जिस अभिमन्यु ने स्पष्ट रूप से संदेह किया है कि
मंजरी ने अपने संतान की जान-बूझकर हत्या की है, उसी अभिमन्यु का घर न?
निर्लज्ज था वह संदेह-नग्न निरावरण था उसका उद्घाटन। उसी क्षण सब कुछ खत्म हो
गया था। जांच हो गयी प्रेम और विश्वास की। निर्णय हो गया संबंधों का सच्चा
रूप। फिर उसी घर में आश्रय लेने जाएगी मंजरी? फिर गर्भ में धारण करेगी
अभिमन्यु की संतान?
छि:-छि:-छि:।
समस्त अंतरात्मा धिक्कार उठी। फिर भी न यातना न ईर्ष्या सारा मन एक गहरे
सूनेपन से पीड़ित था। झिलमिलाते पत्तों की शाम, हताश प्रतीक्षा की शून्यता।
अभिमन्यु नहीं आया आश्चर्य है-इंसान का मन भी कैसा है?
आश्चर्य रहस्यमयी रात्रि की लीला।
सुबह का रूप अलग।
सूर्य स्पष्ट, रूढ़, सूर्य वास्तविक। सूर्य के प्रकाश के आगे मोहमयी दुर्बलता
की कोई जगह नहीं। सुबह के प्रकाश में मंजरी ने अपने मन को दृढ़ कर लिया था।
सुबह अभिमन्यु आया।
दस बजने ही वाले थे।
क्लिष्ट अंधकार छाए चेहरे पर रात्री जागरण के चिन्ह।
नहीं, मंजरी उस चेहरे की तरफ नहीं देखेगी। उसका यह थका उदास चेहरा मंजरी को
पराजित करना चाहता है। पुरुष इसी कारण जीतता है। यही उनका हथियार है, कौशल
है। मंजरी ने हृदय को कठोर बनाया।
"चलो।"
"जीजाजी नहीं आए?"
"नहीं।"
"उन्होंने मुझे कहा था, वह ही आयेंगे।"
"देख ही तो रही हो, वचन निभा नहीं सके हैं।"
"मैं विडन स्ट्रीट वाले घर में नहीं जाऊंगी।"
"पागलपन मत करो। चारों तरफ लोग कौतूहल से सुनने की कोशिश कर रहे हैं।"
"ठीक है। तब तुम मुझे दीदी के वहां पहुंचा दो।"
"वह नहीं होगा।"
"क्यों नहीं होगा? कह तो दिया कि तुम्हारे विडन स्ट्रीट वाले घर में मैं नहीं
जाऊंगी।"
"मैं तुमसे विनती करता हूं मंजरी, यहां और अधिक बचपना मत करो।"
फिर वही कौशल? फिर उदास वेदनामय चेहरे का जाल।
उपाय भी तो नहीं है...यहां सीन क्रीएट करना भी तो ठीक नहीं।
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