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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


पति-पत्नी देर तक सलाह परामर्श करते रहे। क्या कहना उचित होगा और किस तरह कहना ठीक होगा इसका प्लॉन बनाकर रमला जब इस कमरे में वापस आई तब देखा न है मंजरी न उसकी टैक्सी। सिर्फ मेज पर एक कागज पर दो लाइनें लिखी थीं
"रमला, मजाक कर गयी, बुरा मत मानना। सचमुच मैं पागल थोड़े ही हो गयी हूं कि तेरे तुख के मोतियों में पिरोए घर के मोतियों को नोंच डालूं।
मंजरी।
पति-पत्नी ने एक-दूसरे की तरफ देखा। रमला ने धीरे-धीरे एक सांस छोड़ी। स्वस्ति की नहीं शर्म की। अभी तक दोनों ने मंजरी के सोच की जो आलोचना की थी, वह सारी हास्यकर हो गयी। मंजरी से छुटकारा पाने के लिए इन्होंने जो सब बड़े-बड़े प्लॉन बनाए थे वह मच्छर मारने के लिए तोप दागने जैसी घटना हो गयी। थोड़ी देर बाद रमला ने कहा, "जानती थी ऐसा ही कुछ होगा। बड़ी झक्की लड़की है वह।"
रमलापति मुस्कराकर बोली, "तभी न तुम्हारी सहेली, है।"

नहीं, कहीं जगह नहीं मिलेगी।
अब खुला है दूर फैला हुआ रास्ता।।
खुला रह गया सारा वाह्यजगत।
खुला रह गया आत्मध्वंस का द्वार।।

इस ध्वंस की मूर्ति को लोग देखेंगे। देखेगा समाज और सारी दुनिया। लोगों को और कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। अवज्ञा और उदासीनता, घृणा और अवहेलना, संदेह और सहानुभूतिहीनता के पाषाण भार से धकेलते हुए जो लोग एक जिंदगी को आत्मध्वंस की भयानक खाई के पास ले आए, जो उसे उस खाई में कूदते देखकर भी हाथ में हाथ धरे बैठे रहे, उनके नाम की महिमा गाई जाएगी उनका नाम महिमा अंक में चढ़ गया। वे सतर्क हैं, सावधानी बरतते हैं, उनके पांव नहीं फिसलते है।

जो लड़कियां रास्ते पर उतर आती हैं, उनके इस उतरने का इतिहास कब किसने जानने का प्रयास किया है? वे नीचे उतरती चली गई, समा गईं, ध्वस्त हो गईं और यही उनका परिचय बन गया।

"आमी बंधूर लागिया शेज बिछाइनू
गांथिनू फूलेर माला।
तांबूल साजिनू दीप जालाइनू
मोंदिर होइल आला।
आमी बंश लागिया...''

अर्थात् मैं प्रिय के लिए सेज सजाकर, फूलों की माला पिरोए, पान लगाए, द्वीप जलाकर मंदिर जगमगाए बैठी हूं।
'चौधरी मैंसन' के तिमंजिले पर स्थित एक सुसज्जित कमरे में साटिन की कोमल गद्दीदार बिस्तर पर शरीर को ढीला छोड़, रेशमी कुशन से टेक लगाए वनलता ये पदावली गुनगुना रही थी।
वनलता ने दूध के फेने जैसी मुलायम रेशमी बिना किनारे की साड़ी पहन रखी थी। एक गहरे लाल रंग का साटन का ब्लाउज, हाथों में बिजली से झिलमिलाते दो मोटे कंगन, मांग के बीच एक छोटी सी टिकुली-बस और कहीं कोई गहना नहीं।
पोशाक में नयेपन का शौक है वनलता को। नित्य नये-नये फैशनों का आविष्कार करती है और बेझिझक जो जी में आया पहनकर निकल पड़ती है।
देहसज्जा चाहे जैसी करे, वनलता की गृहसज्जा त्रुटिहीन है। तीन कमरे और बालकनी वाले इस फ्लैट का हर कमरा सीलिंग से लेकर फर्श तक सर्वत्र ऐश्वर और विलासिता का चिह्न स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
यद्यपि पुरुष मित्रों का अभाव नहीं है पर रहती यहां वह अकेली ही है। पालतू लोगों में एक नेपाली चौकीदार है जो सर्वदा सीढ़ी के पास बैठा रहता है और घर के भीतर देवनारायण चर्खी की तरह चक्कर काटा करता है। जरा सी भी कहीं धूल दिखाई दी या कुछ इधर से उधर हुआ तो देवनारायण की नौकरी जाने को होती है। और एक चीज है वनलता के पास-वह है सुहागी और शौकीन नौकरानी मालती। वनलता उसका परिचय नौकरानी कहकर करती है लेकिन मालती उसके पीठ पीछे कहती फिरती है कि वह वनलता की दूरदराज की बहन है। खैर पीठ पीछे कही गयी बात कोई बात ही नहीं। मालती का काम है सिर्फ मालकिन का काम करना और उनकी परितक्त कपड़ों को पहनकर इठलाते फिरना। देवनारायण उसे फूटी आंख नहीं पसंद करता था। नेपाली और मालती दोनों से उसे ईर्ष्या थी।

गुनगुनाते हुए अलसाई दृष्टि से वनलता ने कमरे पर नजर दौड़ाई। कितना अच्छा लगता अगर वह इसी तरह से घंटों पड़ी रह सकती। लेकिन घंटा तो दूर मिनट भर वह पड़ी नहीं रह सकती है। अभी उठना होगा। आज थियेटर का दिन है। पहले सिर्फ मंचों पर काम करती थी। तब खाली समय मिल जाता था। गगन घोष ने उसे फिल्मों में काम दिया। और अब फिल्मी जगत उसे हर फिल्म में देखना चाहता है। इधर तीन चार फिल्मों में उसने साइन भी कर डाला है।
यश, अर्थ अनुरोध, अपरध।
ये सारी चीजें उसे घोड़े की तरह भगा ले जाना चाहती हैं। रुकने ही नहीं देना चाहती है। शायद तभी छोड़ेंगे जब पुरानी हो जायेगी वनलता, बूढ़ी हो जायेगी। तब जगह पर कब्जा करने आयेंगी नई-नई लड़कियां। वनलता को मालूम है तब थककर चूर-चूर हुई वनलता के बीच रास्ते में छोड़कर चले जायेंगे यही यश अर्थ अनुरोध उपरोध। पलटकर तब कोई देखेगा तक नहीं। अतएव जितना हो सके अभी लूट लो, जितना चाहे अंहकार कर लो।
फिर भी आज जरा भी उठने की इच्छा नहीं हो रही थी। पर उठना तो पड़ेगा ही। स्टूडियो के काम में एक बार तबीयत खराब का बहाना किया भी जा सकता है पर थियेटर तो जाना ही पड़ेगा। अभी जाकर घुसना पड़ेगा 'रंगनाट्य' के उस सड़े से ग्रीनरूम में। यह साज श्रृंगार त्यागकर सिर पर झोंटा बांध, नाक पर तिलक लगाकर वैष्णवी संन्यासिनी बनकर हजारों हजारों दर्शकों के सामने जाना पड़ेगा। गाना पड़ेगा 'आमी बंधूर लागिया सेज बिछाइनू...''
इससे छुटकारा नहीं मिलने वाला वनलता को।
क्रिंग-क्रिंग-क्रिंग।
उठने वाली ही थी कि फोन बजा।
"ओहो।"
गाना बंद कर मुंह बिगाड़कर वनलता बड़बड़ाई, "न जाने अब किस बंधू का फोन आया।"
वह न उठी, न हिली। केवल क्रुद्धदृष्टि से उस मूक यंत्र को देखती रही।
क्रिंग-क्रिंग-क्रिंग-क्रिंग। टेलीफोन।
दौड़ी आई मालती, रिसीवर उठाकर झटपट 'हैलो' 'हैलो' करके जब यह जान गयी कि कौन बोल रहा है तब मुंह घुमाकर बोली, "गगन घोष।'
"ओफ! शैतान मरता भी नहीं है।"
कहकर वनलता ने उठकर फोन का रिसीवर लेते हुए महीन आवाज में बोली, "हां मैं वनलता बोल रही हूं "कहिए। एं! क्या कहा? मंजरी? वही नई लड़की? क्या कह रहे हैं? सर्वनाश! मेरे यहां? मेरे यहां कहां रहेगी? असंभव! क्या कहते हैं? सिर्फ दो वक्त के लिए? उसके बाद? क्या? आप इंतजाम कर देंगे? अभी वह इंतजाम कर दीजिए न। मुझे क्यों परेशानी में डाल रहे हैं? मुश्किल नहीं तो और क्या कहूं? मैं तो निकल रही हूं। हां, हां। आज थियेटर है। घर पर? घर पर मेरी नौकरानी रहती है। ओ हां, नौकर चौकीदार भी है। ठीक है, कहकर जाती हूं। लेकिन सुनिए, बुरा मत मानिएगा-सिर्फ दो ही वक्त के लिए...समझ तो रहे ही होंगे कितनी अस्वस्ति हो रही है मुझे। ओ, हा:-हा:-हा:। आपका भी कम झमेला नहीं। कहां कौन पति-पत्नी झगड़ेंगे और उसका झमेला आप संभालें। हि-हि-हि-हि...आप ठीक कह रहे हैं। अच्छा, ठीक है। लाइए उसे। लेकिन बीस मिनट में...वरना मुझसे भेंट नहीं होगी। हां-अच्छा, रखती हूं।"
रिसीवर धड़ से रखकर वनलता फिर बिस्तर पर बैठ गयी। बोली, "ओह, कैसा झमेला है।"
अब तक मालती आंखें निकाले वनलता की बातें सुन रही थी ओर उसने पूछा, "क्या बात है दीदी?"

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