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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


''खैर छोड़ो। तुम वनलता की खुशामद करके उसे ठीक रखो। कह देना फिल्म पूरी किए वगैर कहीं जाएगी नहीं।''
''अगली फिल्म में दया करके उसे अब मत लीजिएगा।''
''किसे? नई को?''
''नहीं-वनलता की बात कर रहा हूं। बहुत दिमाग है। मुंह दबाकर हंसे वगैर बात नहीं करती है। बात बात पर घमंड झलकता है।''
''अभी उसके दिन हैं ऐसा तो करेगी ही।'' गगन घोष एक और सिगरेट सुलगाते हुए क्षुब्ध हंसी हंसे, ''क्या-क्या नहीं देखा? सूई बनकर घुसती हैं और कुल्हाड़ी बनकर निकलती हैं।''
''और आप जीवन भर गधे पीट-पीटकर घोड़े बनाइए।''
गगन घोष हंसने लगे।
नलिनी बाबू गुस्सा होते हैं तो उन्हें मजा आता है।
मंजरी ने इन्हें परेशानी में डाल दिया है लेकिन नाराज होकर निकाला नहीं जा सकता है। ये कोई स्टेज पर खेला जाने वाला थियेटर नहीं कि एक की अनुपस्थिति से दूसरे से काम चला लिया गया। काफी धन लगाकर काफी सीन बन चुके हैं।...मुसीबत वनलता के कारण भी है। वह बड़ी घमंडी है। असल में वह है मंचाभिनेत्री। गगन घोष ने ही उसे एक के बाद दूसरी, दो फिल्मों में काम दिया है। लेकिन ढेर सारे रुपये लेने के बाद भी ऐसे हावभाव दिखाती है जैसे गगन घोष को पितृदाय से उद्धार कर रही है।
''निशीथ तो ठीक है न? या वह विलायत जाना चाहते हैं।''
''अभी तो नहीं चाहा है लेकिन कभी भी चाह सकते हैं।''

इसके बाद भी इधर-उधर की बातें होती रहीं। बाद में नलिनी बाबू मोटर लेकर वनलता की खुशामद करने और मंजरी का हालचाल लेने निकल लिए। वह कब तक काम शुरू कर सकेगी पता चल जाए तो कुछ काम पहले से करके रखा जा सकता है।
कार पर बैठकर नलिनी बाबू बड़बड़ाये, ''अब झक मारो। साले का 'सहकारी' बनकर ही जीवन कट गया, आज तक स्वाधीन होकर एक फिल्म बनाने का चांस नहीं मिला। इन नालायक लड़कियों को तेल लगाते जिंदगी बीती जा रही है।''

''क्षतिपूर्ति?'' नलिनी बाबू ने अवज्ञापूर्ण हंसी हंसकर कहा, ''क्षतिपूर्ति के तौर पर आप कितना रुपया दे सकते हैं मिस्टर...मिस्टर...''
''लाहिड़ी।'' अभिमन्यु बोला।
''ओ ईयश। मिस्टर लाहिड़ी। तो मैं पूछता हूं कि अभी तक इस फिल्म पर कितना खर्च हो चुका है आपको कुछ आइडिया है?''
''ठीक से पता न होने पर अंदाज तो लगाया ही है।'' अभिमन्यु का चेहरा लाल पड़ गया।
नलिनी बाबू ने एक आंख सिकोड़कर खुले गले से कहा, ''बोलिए। बोल डालिए अपना अंदाज।''
अपमान की कालिख मुंह में पोतकर अभिमन्यु बोला, ''मैं वकील के आगे ही बताऊंगा।''
''ठीक है-वही कहिएगा। लेकिन अगर मेरी सलाह मानें तो मिस्टर लाहिड़ी मैं कहूंगा, जान-बूझकर झंझट बुला लाना उचित नहीं। हालांकि मुझे कहना नहीं चाहिए, आपकी आर्थिक हालत से आप खुद वाकिफ हैं फिर भी बिला वजह चालीस पचास हजार रुपया...इसके इलावा फजीहत भी बहुत है।'
अभिमन्यु ने भौंहें सिकोड़कर कहा, "चालीस पचास? सुना है फिल्म अभी आधी ही बनी है।"
"आधी नहीं, वन थर्ड। खर्च का पूरा हिसाब कोर्ट में दाखिल किया जायेगा। लेकिन सोचकर देखिए मिस्टर लाहिड़ी, मिसेज लाहिड़ी के बीमार पड़ने पर आपने इतना खर्च किया लेकिन क्या उन्हें आराम करने का मौका दे सकेंगे? कोर्ट में हाजिरी देने में भी तो कष्ट होगा...''
कुढ़कर अभिमन्यु बोला, "वह मैं समझूंगा।"
"ठीक है, ठीक है...वहीं समझियेगा। लेकिन यह काम आपने ठीक नहीं किया। कम-से-कम पांच मिनट के लिए मुझे मंजरीदेवी से मिल तो लेने देते। वह जब नाबालिग नहीं हैं तब...''
"देखिए, ये मेरे काम का वक्त है। अब आप जा सकते हैं आपको जो कुछ कहना है कोर्ट में ही कहिएगा।"
"अच्छा नमस्कार।"
नलिनी बाबू गाली गलौज करते हुए कार पर जा बैठे। किसे? किसे नहीं। अभिमन्यु को, मंजरी को, गगन घोष को, फिल्म लाइन को और अपनी किस्मत को।
नलिनी बाबू के चले जाने के बाद, काफी देर तक अभिमन्यु गुमसुम बैठा रहा।
सोचने की कोशिश करने लगा कि मामला क्या हो गया? काफी बहस हुई, काफी बातचीत हुई उस आदमी के साथ। अंत में उस बदमाश ने कोर्ट तक जाने की धमकी तक दी। शुरू में अभिमन्यु काफी शराफत से पेश आता रहा, हाथ जोड़कर बोला भी कि मंजरी अस्वस्थ है डाक्टर के कहने के मुताबिक उसे लंबे अर्से तक रेस्ट करना है...लेकिन वह आदमी था कि पीछे ही पड़ गया। हाथ रगड़-रगड़कर कहता ही जाए, "वादा करता हूं उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होने दूंगा। आउटडोर का काम नहीं, स्टूडियो के भीतर ही। मोटर से जाएगी, मोटर से ही लौटेंगी। कहें तो मैं खुद पहुंचा दूंगा। वरना हम बेमौत मारे जाएंगे सर...बिल्कुल मारे जाएंगे।" इत्यादि इत्यादि। उस धूर्त सियार जैसे मुंह से कब तक विनय वचन सुना जा सकता है?
फिर भी हाथ जोड़कर कहा था अभिमन्यु ने, "माफ कीजिए महाशय-डाक्टर ने मना किया है।" इस पर उस बदमाश ने कहा, "आप हम अपना डाक्टर लाने देंगे सर? शहर के मशहूर डाक्टर को कंपनी के खर्चे पर ले आऊंगा।"
इसके बाद तो शराफत बनाए रखना असंभव ही हो गया। झगड़ा हो गया और तब अभिमन्यु ने प्रस्ताव रखा कि अनुबंध भंग करने के अपराध में जो भी क्षतिपूर्ति देनी पड़ेगी, वह देगा।
गुस्सा आ गया था। नलिनी बाबू के जाने के बाद अभिमन्यु सोचने लगा कि गुस्से में आकर कह तो दिया लेकिन इतनी बड़ी रकम वह लाएगा कहां से? उधार ले? रिश्तेदारों से, भाइयों से मांगे? कारण क्या बताएगा? इससे क्या सम्मान बचा सकेगा?
ओफ! मंजरी उसकी इतनी बड़ी दुश्मन थी?
मन में बातों की नदी तेज बहती रही, उसके साथ चिंता की धारा। सहसा अभिमन्यु चौंककर स्तब्ध रह गया। अपनी असतर्क चिंताधारा की गति पर वह अकेले कमरे में बैठे-बैठे लज्जा और ग्लानि से गड़ सा गया।
हां, अभी तक वह मरने की बात ही सोच रहा था। अपनी नहीं, मंजरी की। सोच रहा था, इससे अच्छा होगा मंजरी ठीक ही न हो, अगर मर जाए तो और भी अच्छा हो। सारी बदनामी के हाथ से छुटकारा पाकर निष्कलंक पवित्र शोक को गले लगाकर अभिमन्यु जिंदगी काटता। उसे अपनी चिंताधारा पर दुःख हुआ।
कल मंजरी को अस्पताल से घर लाने की बात है। अभी तक वह घर नहीं आई है और उसके काम पर जाने की तारीख तय करने फिल्म वाले आ धमके तो क्या गुस्सा नहीं आएगा? बार-बार सोचने की कोशिश की अभिमन्यु ने कि गुस्से में आकर वह ऐसी एक निष्करुण चिंता को प्रश्रय दे रहा था लेकिन उसे छापकर एक कष्ट पीड़ित, उदास चेहरा नहीं उभर रहा था?
दीर्घ पलकों के बीच काली दोनों आंखों में अभिमान भरकर नहीं कहती रहीं, "तुम ऐसे हो?''

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