नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
''सेई जे आमार नाना रंगेर दिन गली''-वह जो मेरे नाना रंगों से रंग दिन...कहां
गए वे दिन? किसने डाका डाला मेरे उस सुख के घर में? विजय बाबू ने? गगन घोष
ने? या समाज की प्रगति ने?
मनुष्य चल रहा है, आगे बढ़ रहा है। चलने के मतलब ही क्या आगे बढ़ना है? यह
चलना, एक ही वृताकार पथ का चक्कर काटना है या नहीं इसका हिसाब कौन रखेगा?
शायद ऐसे ही हास्यकर चलने के गौरव को मनुष्य अग्रगति की संज्ञा देता है।
भूतकाल में मनुष्य दूसरे मनुष्य को पत्थर फेंककर मारता था-आज वही बम फेंककर
मार रहा है-यही क्या है अग्रगति? न:। अग्रगति उसे कहेंगे जिस दिन नारी के लिए
पुरुष की दुःचिंता समाप्त हो जायेगी।...अभिमन्यु सोचता चला जा रहा था...जिस
दिन जीवनसंगिनी निर्वाचित करने के बाद मनुष्य को उसके खो जाने का डर नहीं
रहेगा। नारी अपनी रक्षा आप करने लगेगी।
हर एक का दृष्टिकोण भिन्न है, विचारधारा भिन्न है। जब जिधर चिंता की रोशनी
पड़ती है वही जगह सच की तरह उद्भाषित हो उठता है लेकिन वास्तविक सत्य क्या आज
तक तय हुआ है? आज भी क्या इंसान समझ सका है कि सचमुच के कल्याण का रूप क्या
है?
सुनीति बोलीं, ''तब फिर यही तय रहा, क्यों जी? यहां से पहले मंजू एक बार अपने
घर जायेगी। एक कपड़े में बेहोशी की हालत में यहां चली आई थी, यहां से सीधे ले
जाने पर असुविधा होगी इसे। घर जाकर कपड़े वगैरह लेकर हमारे यहां चली आयेगी।
उसके बाद जब पूरी तरह से स्वस्थ नहीं होगी हमारे पास ही रहेगी। यही तय हो गया
अब इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा।''
सरल चित्त सुनीति हाथ से हाथी धकेलना चाहती है, चाहती है फूंक से पहाड़ उड़ाना।
सहज बातों और सहज हावभाव से चाहती है सब बातों का समाधान हो जाए।
मंजरी उसके बचपने से हंसी।
विजयभूषण बोले, ''तुमने तो एक तरफा राय दे डाली। साली की राय ले ली है क्या?
इसके तो बड़े-बड़े कंडीशन हैं। तुम्हारी सौत बनाकर उसे मेरे पास भेजने को तैयार
रही तो वह तुम्हारे घर में अपने चरण रखेगी, नहीं तो नहीं।''
''इसके लिए मैं तैयार नहीं हूं क्या? तीन दिन अगर तुम्हारे नखरे सह सकी तो
मान जाऊंगी।''
मंजरी हंसकर बोली, ''जितना बहाना बना सकती हो बना लो। जीजाजी तो ऐसे निर्झंझट
वाले इंसान हैं। दुनिया में और कोई होगा भला?''
''देख लो...सुनीतिवाला...गुणग्राही किसे कहते हैं देख लो।''
''तो आज चलते हैं मंजू। फिर कल आऊंगी। अरे आज तो अभिमन्यु नहीं आया। शाम हो
गयी।''
विजयभूषण गंभीर होकर बोले, ''इसके पीछे कलह संबंधी किसी बात का हाथ लग रहा
है।''
''आप बेकार वाली बात सोच रहे हैं, ऐसा कुछ नहीं हुआ है।''
''अगर कलह नहीं तो मामला और भी ज्यादा संगीन बना लिया है तुमने मंजरीदेवी।
तुमने तो मुझे चिंता में डाल दिया।''
''आप लोगों को चिंता में डालना ही तो मेरा काम है। डर रहता है कहीं भूला न
दें।''
विजयभूषण मंजरी के पास जाकर उसके सिर पर प्यार से एक हल्की चपत जमाते हैं।
फिर स्नेहभरी आवाज में बोले, ''कमजोर दिमाग से कुछ बेकार की बातें सोच-सोचकर
अपनी तबीयत मत खराब कर लेना बहन। इंसान का इंसान के हृदय का सहज संबंध जटिल
हो जाता है अकारण के संदेह से। दूसरों की नजरों से अपने आपको देखना सीखो,
दूसरे की जगह पर खड़े होकर अपने को परखो। जहां किसी के प्रति अभिमान से अंधी
हुईं, वहीं उसकी जगह पर अपने को खड़ा करो। सोचो तुम उसकी जगह पर होतीं तो क्या
करतीं। मान और अभिमान अपमान शब्दों के रचयिता इंसान खुद है। देश, समाज और
व्यक्ति-जहां जैसे हैं वहीं इसका रूप भी अलग-अलग है। तब फिर ऐसे कमजोर शब्दों
के कारण जीवन की जटिलता को क्यों बढ़ाओ? कोई किसी का सम्मान छीन सकता है? किसी
का क्या कोई अपमान कर सकता है? तुम्हारा सम्मान तुम्हारे पास है जिसे कहते
हैं आत्म-सम्मान।''
सहसा मंजरी की दोनों आंखें भर आईं। बोली, ''उसी को बचाने के लिए तो भाग आना
चाहती हूं जीजाजी। प्रतिष्ठा के पीछे के खोखलेपन का भेद जो खुल गया है।''
विजयभूषण कुछ कहने जा रहे थे कि सुनीति की हर्ष मिश्रित हंसी के कारण चुप हो
गए।
सुनीति किसी को उद्देश्य कर कह रही थीं, ''ये रहे। इतनी देर में हजरत का आना
हुआ। हम लोग कब से आकर बैठे थे-अब जा रहे हैं। इतनी देर क्यों हो गयी? ठीक हो
न ?''
देखा विजयभूषण ने। देखा मंजरी ने।
अभिमन्यु ने कमरे में प्रवेश किया।
एक हाथ में संदेश का डिब्बा और दूसरे हाथ के लिफाफे में संतरा और सेव।
''न:! अभी तक हास्पिटल से रिमूव नहीं किया है। ओफ! कैसा झमेला है जरा बताइए
तो। मैंने तो कहा ही था ऐसी नई-फई से काम नहीं चलने वाला...'' सहकारी नलिनी
बाबू ने मुंह बिगाड़कर कहा, ''अब मुसीबत संभालिये।
प्रयोजक गगन घोष सिगरेट की राख झाड़ते-झाड़ते स्थिर स्वरों में बोले, ''सभी कुछ
एक्सीडेंटल है। नई है तभी बीमार पड़ी है, पुरानी होती तो नहीं पड़ती ऐसा तो कह
नहीं सकते हो।''
''चलिए मान लेते हैं लेकिन आज दो हफ्ते से काम बंद पड़ा है...''
''नुकसान तो हो ही रहा है लेकिन क्या करें? अब तो उसे निकालकर नए सिरे से कुछ
करना संभव नहीं।''
''इधर वनलता ने नखरा शुरू कर दिया है। कह रही है अगले महीने चेंज में
जायेगी।''
''अच्छा? यह बात कब कही?''
''आज ही फोन करके पूछ रही थी कि शूटिंग कब शुरू होगी। मुझसे ये सुनकर कि 'अभी
भी कोई उम्मीद नहीं है,' बोली तब आप लोग समुद्र में गोते खाइए मैं अगले महीने
चेंज के लिए जा रही हूं।''
''कहां जा रही है?''
''कौन जाने। मुंगेर या ऐसा ही कुछ कह रही थी।''
''जाएगी कहीं नहीं। ये सब है भाव बढाना। जाओ जाकर कुछ तेल वेल लगाओ। नया
चेहरा क्या यूं ही लिया है? इन लड़कियों की चालबाजी देख-देखकर लगता है कि गांव
से 'रॉ' लड़कियां पकड़ लाऊं और काम कराऊं। इसके अलावा-ये मंजू या जो भी है
इसमें अभिनय क्षमता है। एक हफ्ता इंतजारी करके देखता हूं।''
''देंगे नहीं-''नलिनी बाबू ने फिर मुंह बनाया, ''इतनी जल्दी घर से आने नहीं
देंगे। मुसीबत में पड़कर पैसे कमाने तो निकली नहीं है-निकली है शौक के कारण।
सुना है पति प्रोफेसर हैं। पति के भाई लोग भी बड़े पैसे वाले हैं। घरवालों ने
आपत्ति की थी लेकिन आधुनिका है किसी की बात सुनी नहीं।''
''इतनी बातें तुमने कहां से जुटाईं?''
''बातें? बातें तो हवा के साथ चलती हैं।''
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