नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
''शराफत की सीमा लांघ रही हो सुनीति,'' विजयभूषण असंतुष्ट होकर बोले,
''तुममें यही खराबी है-कड़ुवी बातों से युक्ति सिद्ध नहीं होती है।''
''मैं युक्ति वुक्ति से मतलब नहीं रखती हूं-मेरे जो जी में आयेगा, कहूंगी।''
सुनीति बेधड़क बोल बैठीं।
मंजरी को आश्चर्य सा लगा। अभिमन्यु अगर किसी दूसरे के सामने उसे अपमानित करता
तो मंजरी स्तब्ध रह जाती, काली पड़ जाती, अपमान से।
वातावरण को हल्का करने के लिए विजयभूषण ने बात बदलते हुए कहा, ''वह दिन दूर
नहीं-ये तो देख ही रहा हूं लेकिन उसका असली स्वरूप क्या है यह क्या निर्धारित
हुआ है? तुम लोग हो क्या यह तुम लोगों ने ठीक से कभी सोचा समझा है?''
''क्यों नहीं जीजाजी। जिस दिन पुरुष वर्ग ये स्वीकार कर लेगा कि दुनिया के
लीलाक्षेत्र में औरतों की भी जगह उतनी ही है। जितनी मर्दों की और इन्हें
बांधकर रखना हो तो समाज शासन या विधि विधान की चक्की नहीं बल्कि दूसरी एक चीज
है।''
''यह तो तुम्हारी ज्यादती है साली। पुरुष जात क्या सिर्फ शासन ही करता है?
प्यार करना नहीं जानता है?''
''प्यार करना? शायद जानता है। लेकिन मैं जो बात कह रही हूं वह चीज प्यार नहीं
है जीजीजी।''
''प्यार नहीं है? इससे बढ़कर और क्या चीज है?''
''है। वह है विश्वास। माया ममता स्नेह प्यार तो लोग अपने पालतू कुत्ते से भी
करते हैं।''
पराजय! पराजय! लगातार पराजित ही हो रहा है अभिमन्यु। रिश्तेदारों से, मंजरी
से, अपने आपसे।
अपने आपसे पराजय सबसे ज्यादा ग्लानिपूर्ण है।
जबकि अपने को मजबूत बनाये रखना बड़ा मुश्किल है। मंजरी का उदास उतरा चेहरा
देखते ही हृदय छटपटाने लगता है, अपने आपको सजा देने की इच्छा होती है-तब लगता
है कि अब जिंदगी में कभी भी कठिन बात नहीं कहूंगा। लेकिन कैसी अजीब परिस्थिति
है?
चेतना लौटने के बाद से मंजरी खुद ही कठिन हो गयी है। दोनों के बीच कितनी बड़ी
खाई हो गयी है। अपराधिनी की दृष्टि विचारकों जैसी हो गयी है।
दृष्टि सबकी बदल गयी है।
पूर्णिमा भौंहें तानकर पूछतीं, 'निकल रहा है?''
''हूं।''
''कहां?''
''और कहां?'' असहिष्णु उत्तर।
अभिमन्यु में यही एक अजीब बात है। जो सांप उसे कुरेद-कुरेदकर खा रहा है उसे
ही सबकी नजरों से छिपाता सीने में लिए फिरना चाहता है।
पूर्णिमा उसके असहिष्णु स्वर से आहत हुईं। क्रुद्ध होकर बोलीं, ''जानती हूं।
अस्पताल के अलावा और कहीं जाने की तेरे पास जगह नहीं है। लेकिन मैं तो कहूंगी
तेरी तरह निर्ल्लज मर्द सारी दुनिया में दूसरा कोई है क्या? बीवी के पीछे
रुपया खर्च करते-करते तो सर्वस्व खत्म हो गया अब क्या अपना स्वास्थ्य और शरीर
भी खत्म कर देगा?''
''मेरे शरीर को क्या हुआ है?''
''क्या हुआ है ये जाकर शीशे से पूछ। जलती लकड़ी जैसी शक्ल हो गयी है और पूछता
है शरीर को क्या हुआ है? केबिन किराए पर लेकर रखा है, दिन रात दो-दो नर्सें
रखी हैं-डाक्टर दवा किसी भी चीज की त्रुटि नहीं है अब दोनों वक्त हाजिरी
लगाना क्या जरूरी है?''
''जाने के लिए मना कर रही हो?''
''मना?'' मुंह तिरछा कर पूर्णिमा बोलीं, ''मेरे मना करने पर तो तुम मान ही
जाओगे न? अभी समझ में नहीं आ रहा है, बाद में समझोगे कि मां क्यों नाराज होती
थीं। इतना शह पाएगी तो औरत सिर पर नहीं चढ़ेगी क्या? चौदह बार भाग-भागकर जाएगा
तो क्या उसके मन में जरा भी डर होगा?''
अभिमन्यु हंसकर बोला, ''अच्छा मां, तुम तो खुद ही कहती हो कि पिताजी तुम्हारे
डर से थर-थर कांपते थे।''
''बक मत, चुप रह। वह डर और तुझ जैसों का मिनमिनापन! तू तो कापुरुष है। उस डर
का मतलब समझने की क्षमता नहीं है तुझमें। वह बहू ठीक होकर अगर कहे, 'मेरा जो
जी में आयेगा वही करूंगी' तो रोक सकेगा उसे?''
सकेगा या नहीं इस बारे में अभिमन्यु को खुद ही संदेह है इसीलिए वह चुप रहा।
परिहास द्वारा बात टाली भी नहीं जा सकती थी।
''मैं तेरी मां हूं अभी, मैं तुझे ये हुक्म देती हूं कि वहां से लाते वक्त
बहू से वचन ले लेना कि वापस आकर उधर की तरफ नजर तक उठाकर न देखेगी।''
पल भर स्तब्ध रहने के बाद अभिमन्यु धीरतापूर्वक बोला, ''और अगर वादा करने को
तैयार न हुई तो?''
''तब समझूंगी मैंने अपने गर्भ में इंसान नहीं एक पशु को धारण किया था।''
कुछ कहते-कहते अभिमन्यु चुप रह गया। उसके बाद बोला, ''शायद तुम्हें यही समझना
पड़े। लेकिन एक और हुक्म करो। अगर वह राजी नहीं हुई तो क्या इस घर के दरवाजे
उसके लिए बंद हो जायेंगे?''
पूर्णिमा ने शंकित भाव से बेटे की तरफ एक बार देखा फिर मुंह फुलाकर बोलीं,
''इतनी बड़ी-बड़ी बातें कहकर मुझे हिलाने की कोशिश मत करो अभी, साफ देख रही हूं
तुम्हारा दरवाजा मेरे सामने बंद हुआ जा रहा है।''
फिर भी अभिमन्यु को जाना पड़ेगा।
आज मंजरी को इंचार्ज डाक्टर घोषाल विशेष रूप से जांच करने आयेंगे। अभिमन्यु
ने ही एपॉयंटमेंट ले रखा है।
इंसान कितना लाचार है?
कितना बेचारा।
कदम कदम पर वह पराजित होता है।
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