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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


मंजरी हंसने लगी, ''सब क्षेत्र में नहीं...तारतम्य भी है। जैसे आप।''
''हुं।''
''अच्छा जीजाजी, एक सवाल पूछूंगी-खूब सोच समझकर जवाब दीजिएगा।''
''आज्ञा कीजिए।''
''मान लीजिए बड़ी दीदी कोई बहुत बड़ा गलत काम करतीं...खू...ब गलत, माने मान लीजिए बहुत ही निंदनीय, बड़ी दीदी के लिए आपका मनोभाव क्या होता?''
''हुं। क्या मनोभाव होता? अवश्य ही रसगुल्ला खाने वाली बात न होती...मारपीट जैसी कोई घटना घट जाती।''
''अरे मारपीट जैसे हल्के दोष की बात मैं नहीं कर रही हूं जीजाजी...''
''समझ गया...सिनेमा में काम करने जैसा भारी भरकम दोष की बात कर रही है तू...''
''ओहो जीजाजी...आप कभी सीरियस नहीं हो सकते हैं। मान लीजिए दीदी ने किसी का खून ही कर डाला हो...,'' चुन-चुनकर मंजरी ने जोरदार बात ही कही।
विजयभूषण तुरंत बोल उठे, ''तब? तब तो देशभर के सारे वकील बैरिस्टरों को इकट्ठा करके मुकदमा लड़ता जिससे कि फांसी रद्द हो जाये।''
''न:! आपसे उत्तर पाने की उम्मीद करना व्यर्थ है। लेकिन आपने क्या सचमुच कभी सोचकर देखा है जीजाजी-आप दोनों का प्यार अटूट है या नहीं, धक्का लगते ही टूटकर ढह तो नहीं जायेगा।''
''अगर सच पूछती है तो बहन, यह सब कभी सोचकर देखा नहीं है। तेरी बड़ी दीदी के साथ मेरा प्यार का रिश्ता है यह बात मैंने कभी सोची ही नहीं। जैसे यह कभी नहीं सोचा कि मेरा यह सिर धड़ पर ठीक से बैठा है या नहीं, अचानक धक्का लग गया तो स्क्रू खुलकर गिर तो नहीं जायेगा।''

सुनीति को इस तरह की बातें कतई पसंद नहीं। वह जल्दी से बोली, ''फालतू बातें छोड़ो और काम की बात करो। मैं कहती हूं-अभिमन्यु से मैं कहती हूं कि मंजू को मैं ले जा रही हूं-तबीयत ठीक हो जाने पर चली जाएगी। और सच भी है तबीयत खराब होने पर लड़की मां बहन के पास ही तो जाती है। मैं अगर शुरू में ही ले गयी होती तो ये सब न हुआ होता।''
मंजरी निराशाभरी दृष्टि से देखती रह जाती। आश्चर्य! सभी क्या एक ही बात बोलेंगे? तब क्या मंजरी की ही गलती है? लेकिन सिर्फ यही? और अभिमन्यु की कही वह भयंकर बात? वह घिनौना गंदा संदेह?
फिर भी मंजरी को उसी घर में वापस जाना होगा?
इतनी बड़ी दुनिया में उसके लिए क्या कहीं जगह नहीं?
अनमनी मंजरी की तरफ देखकर सुनीति बोली, ''जाने दे जो हुआ सो हुआ...दुःखी न हो। पेड़ के सारे फल क्या रहते हैं? भगवान फिर देगा। लेकिन अब सावधानी बरतनी होगी। काफी शिक्षा मिल चुकी है...अब तय कर ले, कूदाफांदी बिल्कुल नहीं करेगी।''
मंजरी गंभीर होकर बोली, ''और नहीं कहना क्या संभव है? अच्छी हो जाते ही मुझे स्टूडियो जाना पड़ेगा।''
''क्या? फिर तू उधर का रुख करेगी?''
मंजरी तकिए से सिर उठाकर उत्तेजित स्वरों में बोली, ''क्यों भला? तुम सबने सोचा क्या है? उन लोगों ने मुझे जहर खिलाया था क्या?''
विजयभूषण उसके सिर पर हाथ रखकर बोले, ''नाराज क्यों होती है भाई। वहां से लौटते ही ऐसा हो गया इसीलिए सब चिढ़े हुए हैं। और क्या?''
''लेकिन आप ही बताइए जीजाजी, कन्ट्राक्ट साइन किया है, आधी फिल्म बन चुकी है अब मैं कह दूं कि ''मुझसे नहीं होगा?'' मर गयी होती तो वह और बात होती लेकिन जीते जी वादा खिलाफी करूं? पहली बार बीमार पड़ी थी तब नर्स ने बताया था स्टूडियो से हर दिन पता करने आते थे कि मैं कैसी हूं कब तक जा सकूंगी।''
विजयभूषण सांप भी मरे लाठी भी न टूटे वाली आवाज में बोले, ''लेकिन इतनी जल्दीबाजी करना भी तो ठीक नहीं। आदमी बीमार है यह तो वह भी समझेंगे।''
''समझेंगे क्यों नहीं? समझ ही रहे हैं। इतने दिनों से समझ रहे हैं। लेकिन इतना रुपया खर्च करने के बाद अगर मैं आपत्ति करूं तब अवश्य ही समझना नहीं चाहेंगे। अनुबंध तोड़ने के अपराध में मंजरीदेवी के खिलाफ कोर्ट में केस करेंगे और तब आप सबका मुखोज्ज्वल होगा-है न?''
''यही तो है झंझट वाली बात। इसीलिए तो...''
मुंह की बात पूरी न करने देकर सुनीति बोल उठीं, ''इसीलिए घर की लड़कियों का बाहर जाकर हाथ पांव मारना मुझे जरा भी पसंद नहीं। अगर मान सम्मान बनाये रखना है तो घर ही में रहो न।''
''जैसे कछुआ। है न बड़ी दीदी। हाथ पांव सिर बचाने के लिए अपनी खोली में घुसकर बैठे रहो।'' मुस्कराकर बोली मंजरी।
गंभीर भाव से सुनीति बोली, ''क्या पता बाबा, आजकल ही लड़कियों की बुद्धि और इरादे मेरी समझ के बाहर है। तुम लोगों की हिम्मत देखकर मैं तो अवाक् रह जाती हूं। मेरी ही लड़कियां एक-एक अवतार हो रही हैं। इनकी जल्दी से शादी कर दूंगी तभी रास्ते पर आ जाएंगी। विषदंत निकलने से पहले ही तोड़ देना चाहिए। पर अब कहां ऐसा होता है? पच्चीस-तीस साल तक कुंवारी बैठी रहेंगी तब...''
''औरत होकर औरतों के लिए तुम्हारे ऐसे पाशविक विचार क्यों हैं बड़ी दीदी? तुम क्या चाहती हो औरत जात हर समय दबाई ही जाए?''
''अरे बाबा हिंसा या जलन नहीं, ममता है। जितना भी पढ़ना लिखना क्यों न सीखो, अच्छी तरह से गहराई तक जाकर समझने की बुद्धि तो है नहीं। औरत जात को तो विधाता पुरुष ने ही ठीककर रखा है।''
''अतएव इंसान भी उनको सताता रहे-क्यों?''
''ऐसा न किया तो औरत कदम-कदम पर ठोकर खाएगी।''
''खाने दो। ठोकर खाते-खाते उसके भी कभी दिन फिर जाएंगे।''
''क्या दिन फिरेंगे सुनूं तो जरा?'' तेज आवाज में बोलीं सुनीति।
''क्या विधाता पुरुष हार मानकर नया नियम बनाएंगे और मर्दों से बच्चे पैदा करवायेंगे?''

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