नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
पूर्णिमा उठकर पीछे आकर खड़ी हुईं।
कुछ मिनट तक खड़ी रहीं।
देखा, अभिमन्यु को पता नहीं चल रहा है। एक ही ढंग से खड़ा होकर सड़क की तरफ
देखते हुए सीटी बजाए जा रहा है। देखकर पूर्णिमा का जी जल उठा।
तीखे स्वरों में बोली, "खड़ा-खड़ा सीटी बजाते हुए शर्म नहीं आ रही है?" लगभग
चौंककर पीछे मुड़ा अभिमन्यु।
मुड़कर खड़े होते ही पूरी तरह से दिखाई दिया अभिमन्यु। उसका ग्रीशियन डीलडौल
वाला चेहरा पॉलिशदार ढंग से काढ़े गए बाल, सांवले रंग का उज्ज्वल मुख, लंबा
दोहरा कद और जरा सी अप्रतिभ हंसी।
मां के धिक्कारने पर अप्रतिभ हंसी हंसकर अभिमन्यु बोला, "शर्म? क्यों नहीं
तो?''
"शर्म, नहीं आ रही है? वह क्यों आएगी? शर्म तेरे शरीर में हो तब न।"
"चलो। तब तो मालूम हो ही गया है।"
"चुप रह। नखरे छोड़। पूछती हूं तूने इसमें राय दी है?' अभिमन्यु मुस्कराया।
"मेरी राय देने की बात उठती कहां है मां? आज भी तुम उसी जमाने जैसी बात करती
हो। नाक पर चश्मा चढ़ाकर बहुत सारे अखबार, पत्र-पत्रिकायें पढ़ा तो करती हो,
क्या यह नहीं जानती हो कि हवा का रुख किधर है?"
"बहुत हो गया, मुझे तू नए सिरे से हवा का रुख मत दिखा। जिस दिन सिर पर पांच
गार्जेन के होते हुए बेझिझक अपनी पसंद की लड़की से शादी करने की बात कह सका था
उसी दिन समझा चुका था कि दुनिया की हवा का रुख किधर है।"
स्पष्ट था पूर्णिमादेवी बेहद खफा हैं।
फिर भी अबोध बने रहने में ही भलाई है। इसलिए अभिमन्यु हंसा। बोला, "अरे, वह
तो पिछली बातें हैं। इन तीन सालों में हवा और आगे नहीं बढ़ी है क्या? ठहर थोड़े
ही गयी है।"
"हां बढ़ी है।" गुस्से से हांफने लगीं पूर्णिमादेवी, "देश भर की घर की बहुयें
थियेटर करने जा रही हैं। यह सब बातें पागलखाने के पागलों को समझा जाकर अभि,
मुझे समझने की कोशिश मत कर।''
"थियेटर नहीं है मां।"
"अच्छा-अच्छा, तेरा सिनेमा ही सही। फर्क क्या है? जिसे भुने चावल कहते हैं
वही लाई है। मैं कह रही हूं यह सब नहीं होगा। मैं तेरे किसी बात में बोलती
नहीं हूं तो क्या मनमानी करेगा?"
"मनमानी? कहां याद तो नहीं आ रहा है।"
"चुप! चुप रह। बिल्कुल ही नालायक हो गया है। लेकिन मैं कहे दे रही हूं कि यह
सब मैं होने नहीं दूंगी। मेरे जीते भी मेरे घर में बैठकर छोटी बहू सिनेमा में
काम नहीं करेगी।"
अभिमन्यु दोनों हाथ उलटकर हताश भाव से बोला, "ये लो। क्या सुनना था और क्या
सुन बैठी हो। घर में बैठकर कैसे करेगी? स्टूडियो में जाकर करेगी। स्टूडियो
जानती हो न किसे कहते हैं? या वह भी नहीं जानती हो? चश्मा नाकपर चढ़ाकर सिर्फ
पुराने रामायण महाभारत ही पढ़ती रहीं। ''
खीज उठीं पूर्णिमादेवी, "ओ, ऐसा कह। तो तेरे साथ मिलकर यह सब हो रहा है। समझ
गयी, तुझे शायद पैसों की लालच हुई है इसीलिए बीवी को बॉयस्कोप में उतार रहा
है। नीच, निकम्मा।"
"आ:! मां! क्या पागलों जैसी बातें कर रही हो।"
बात सच है, पूर्णिमादेवी सहज में विचलित नहीं होती हैं। शायद कभी नहीं हुई
थीं। जिस दिन उनके लाडले छोटे बेटे ने सामने खड़े होकर हंसते हुए अपने
'प्रेम' का किस्सा सुनाया था-उस दिन भी नहीं।
"पागलों जैसी बात" सुनकर गुस्से से तिलमिला उठी पूर्णिमा। बोलीं,
"जिसका तुम जैसा लड़का हो, उसके आगे पागल होने के अलावा रास्ता ही क्या है? जो
मर्द अपनी पत्नी पर अंकुश नहीं लगा सकता है, वह चला है दूसरी लड़कियों की
मास्टरी करने। कल से घर बैठना, समझे? छि-छि: जितनी बार सोच रही हूं शर्म से
सिर कट रहा है मेरा। ''
अवाक् होने की बात देखो। इतने पर भी अभिमन्यु शर्माया नहीं। सीटी वाली धुन को
अंगुलियों से ताल देकर बजाता रहा। ऐसा करते हुए बोला, "सिर कटता है? अरे मां,
तुम हो कहां? इन सब बातों के लिए सिर कटने का फैशन अब रहा नहीं। बल्कि सिर
ऊंचा होता है। इसके बाद देखोगी कि जब तुम गंगा नहाने जाओगी तब लोग ससम्मान
रास्ते से हट जाएंगे और अंगुली से इशारा करेंगे 'वह देखो, मंजरीदेवी की सास
जा रही हैं। ''
"और यह बात सुनकर मैं नहाकर फिर घर वापस लौट आऊंगी 7 '' पृणा से पूर्णिमादेवी
ने मुंह फेर लिया, "क्यों? गंगा में क्या पानी नहीं है?''
बहू की दुःसह स्पर्धा से होकर बेटे के पास आईं थीं कि इसका कोई फैसला करने पर
बेटे के व्यवहार से आहत हुईं। समझ गईं कि लड़का बिल्कुल ही जोरू का गुलाम हो
चुका है, इस पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता है।
लेकिन अगर अभिमन्यु पर भरोसा नहीं है तो पूर्णिमा के लिए बचा क्या? उनके जिन
बेटों ने शादी से पहले 'प्रेम' शब्द की शब्दरचना नहीं जानी, मां का आदेश पाकर
सिर झुकाए, सिर पर 'टोपोर' पहन चुपचाप शादी कर आए थे और तब जाना था कि पत्नी
किसे कहते हैं, जिनकी बहुओं ने सिनेमा तो दूर, जिंदगी में कभी एक गाने का सुर
तक नहीं मुंह से निकाला था, वही लड़के तो पहले ही हाथ के बाहर जा चुके थे।
गुस्सा होकर चली गईं पूर्णिमा।
उधर देखकर अभिमन्यू ने हंसना चाहा लेकिन हंस न सका। सोचना चाहा मां के चाय के
प्याले में तूफान उठा है सोच न सका। बल्कि लगा, मां का गुस्सा लाजमी है।
हालांकि मंजरी के इस शौक को उसने गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अभी उसी क्षण
उसने आविष्कार किया कि पत्नी के इस शौक का वह मन से जरा भी समर्थन नहीं कर
रहा है। जबकि उसे बाधा देने की शक्ति भी शायद अभिमन्यु में नहीं है।
लेकिन है क्यों नहीं?
बाधा देने जाएगा तो अपमानित होगा इसलिए? या कि बाधा देना शर्म की बात है
इसलिए?
शायद आखिरी बात ही सही है।
आधुनिक समाज में पत्नी के ऊपर शासन करना या चेष्टा करना, नीचता समझी जाती है।
'पुराने ख्यालात हैं', 'निंदनीय घटना' है-लोग कहते हैं।
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