नारी विमर्श >> मंजरी मंजरीआशापूर्णा देवी
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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....
लेकिन जब नर्स के विदा होने का वक्त आया तब वह भावुक विचार मर चुके थे। तराजू
के एक पलड़े पर अन्याय, अपराध दुःसाहस जैसे बाट चढ़ाते-चढ़ाते दूसरा पलड़ा जो
अपना था हल्का हो गया था।
शंकापूर्ण रात्री जागरण, मृत्युभय सब खत्म हो चुका था। अब क्षमा प्रार्थना की
चिंता हास्यकर लग रही थी।
अचेतन नहीं, बेहोश भी नहीं केवल असीमित क्लांति भार-थकावट। दोनों आंखों पर
वही थकावट मानो चढ़ बैठी थी।
बंद पलकों के नीचे अद्भूत खुमारी की अनुभूति।
कमरे में इतने लोग क्यों?
धीरे-धीरे दबी आवाज में बोल रहे थे, दबे पांव कमरे में चल रहे हैं...कितने
लोगों के पैरों की आवाज सांस की आवाज।
मंजरी कहां है?
कमरे में या बाहर? कार में? निशीथ राय की कार में? या कि स्ट्रडियो में? क्या
हुआ है उसे? बीमार है? क्या बीमारी है? कुछ क्षण पहले एक अजीब सी तकलीफ हो
रही थी न? वह तकलीफ सारे शरीर को मरोड़कर उसे डर और आतंक के राज्य में
पहुंचाये दे रही थी।
अब तो वह तकलीफ नहीं हो रही है।
अब तो सिर्फ नींद।
कोमल, गहन निथर राज्य में डूबते जाना।
इस वक्त क्या है? रात?
हां, ऐसी हल्की नीली रोशनी रात को ही जलती है।
तब फिर इतने लोग क्यों? मंजरी के आस-पास, सिरहाने? वे लोग बात क्यों नहीं कर
रहे हैं? इशारे से क्यों बात करने की कोशिश कर रहे हैं? सहज स्वाभाविक ढंग से
बोलते क्यों नहीं हैं? कहते क्यों नहीं हैं कि मंजरी को क्या हुआ है?
दरवाजे के पास कौन खड़ा है? अभिमन्यु है न?
उसका चेहरा इतना उदास, इतना उतरा सा क्यों है? क्लांत दृष्टि होते हुए भी
मंजरी को उसकी उदासी नजर आ रही है?
हृदय हाहाकार करना चाहता है, जी चाहता है अभिमन्यु को हाथ बढ़ाकर पास बुला ले,
लेकिन यह सब हुआ नहीं। सिर्फ होंठ हिले आवाज नहीं निकली। आंखों के किनारों से
आंसू चू पड़े।
"तुम कौन हो?"
"मैं नर्स हूं।"
"नर्स? नर्स क्यों?"
"क्यों? जानती नहीं हैं क्या घटना घटी थी?''
"घटना? कैसी घटना?"
"नहीं नहीं...घटना कुछ नहीं। आप बीमार हैं।"
"बीमार? क्या बीमारी है?"
"ऐसे ही। क्या इंसान बीमार नहीं पड़ता है?"
''ओ!"
थककर मंजरी ने आंख बंद कर लीं। फिर से अनुभूति के जगत से दूर जाने लगी। फिर
वही खुसुर फुसुर...फिर वह दबी आवाजें।
"दवाई खा लीजिए मिसेज लाहिड़ी।"
"दवाई? दवाई क्यों?"
"अरे! आप बीमार हैं न?"
"ओ हां! अच्छा दो।"
"और पानी चाहिए?"
"नहीं! तुम्हारा नाम क्या है?"
"प्रियबाला! प्रियबाला दास।"
"ओ! कमरे में और कौन है।"
"इस वक्त तो कोई नहीं है। बस मैं हूं।"
"थोड़ी देर पहले क्या डाक्टर आए थे?"
"हां। अभी तो गए हैं।"
"डाक्टर ने क्या कहा?''
"कहा है जल्दी ठीक हो जाएंगी।"
"आ:! वह नहीं जानना चाहती हूं।"
"तब क्या पूछ रही हैं मिसेज लाहिड़ी?"
"पूछ रही हूं बीमारी क्या बताई।"
"कुछ नहीं-कमजोरी।"
"सिर्फ कमजोरी?"
संदेह का कांटा बुरी तरह से चुभ रहा था फिर भी साफ-साफ पूछने का साहस नहीं
हुआ। पूछने की भाषा ही कहां है?
"प्रियबाला।"
"जी। कहिए।"
"वह कहां हैं?''
"कौन? मिस्टर लाहिड़ी? अभी-अभी डाक्टर साहब के साथ नीचे उतर गए हैं।''
"एक बार बुला तो दो।"
"इस वक्त रहने दीजिए मिसेज लाहिड़ी। इस समय ज्यादा बात न कीजिए...शांत होकर सो
तो जाइए।"
"सो जाऊं? और कितना सोवूं?''
"जितना सो सकें। नींद ही तो आपकी दवा है।"
"अच्छा।"
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