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नारी विमर्श >> मंजरी

मंजरी

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6387
आईएसबीएन :0000000000

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आशापूर्णा देवी का मर्मस्पर्शी उपन्यास....


"मिसेज दास! ये क्या सो रही हैं?''
"जी हां।"
"कोई तकलीफ तो नहीं है?"
"जी नहीं।''
"क्या बिल्कुल बात नहीं कर रही हैं?"
"बहुत कम। लेकिन अनुग्रह कर आप बात मत कीजिएगा मिस्टर लाहिड़ी। पेशेंट को उत्तेजित न होने देना ही हमारी डयूटी है।"
"धन्यवाद," मुंह से कहने पर भी अभिमन्यु ने मन-ही-मन नर्स को गाली बकी-बर्बाद हो जाओ तुम शैतान औरत।

"नर्स को आज से छुट्टी कर रहा हूं।"
अभिमन्यु आकर खड़ा हुआ।
मंजरी तकिए से टिकी बैठी थी, पांव चद्दर से ढका था, हाथों में एक सिनेमा की पत्रिका। पत्रिका मोड़कर रखते हुए देखकर बोली, "हां प्रियबाला ने कहा था।"
"देख लो अच्छी तरह से सोचकर। कहीं तुम्हें किसी तरह की असुविधा तो नहीं होगी?"
मीठी सी हंसी हंसी मंजरी।
"नहीं नहीं, बिल्कुल नहीं। ठीक ही तो हो गयी हूं। फिर तुम तो हो ही।"
इस हंसी से मन नाच उठता है, इस निर्भरता पर जान न्यौछावर कर देने की इच्छा होती है। बिस्तर के एक किनारे बैठकर अभिमन्यु बोला, "मुझ में करने की क्या क्षमता है? सीधा साधा बुखार हो तो बहुत हुआ सिर पर आइस बैग पकड़कर बैठा रह सकता हूं।"
मंजरी हंसकर बोली, "हर समय क्या सिर्फ सीधी साधी बात ही हुआ करेगी?"
''होती नहीं है, यही तो मुश्किल है। ओ:, तुमने तो मेरा सिर ही फेरकर रख दिया था। नहीं सचमुच, छोटी मोटी बीमारियों से इतनी फिक्र नहीं होती है, लेकिन तुम लोगों की यह औरतों वाली बातें...''

''एक औरत के साथ रहोगे तो औरतों वाली बातों से पीछे भागोगे, भला यह कैसी बात हुई।''
सहज परिहास की बात, मुस्कराते हुए कही गयी थी लेकिन अभिमन्यु की कोमल दृष्टि धीरे-धीरे कठोर हो उठी शायद प्यार से दरार पड़ने पर ऐसा ही होता है। निरर्थक छोटी सी बात का कुअर्थ निकालकर अनर्थ होता है।
ढीले ढाले ढंग से लेटने की भंगिमा में अपने आप ही तनाव आ गया। अभिमन्यु नीरस भाव से बोला, ''नहीं कर सकता हूं'' कहने पर छोड़ता कौन है? करना ही होगा। लेकिन दैवी दुर्घटना को मान लेना जितना आसान है बुलाई गयी विपदा को मानना उतना ही कठिन।''
अभिमन्यु ने बहुत गंभीर अर्थबोधक बात करने का विचार नहीं किया था लेकिन मंजरी के कानों में उसकी बात रूढ़ लगी। वह, भी कठोर स्वर में बोली, '' 'बुलाई गयी विपदा' कहने का मतलब?''
''मतलब अपने आप में ढंढ़ो।''
''अपने भीतर ढूंढ़ना परिश्रम पर पानी फेरना होगा। मैं तुम्हारे मन की बात तुम्हारे मुंह से साफ-साफ सुनना चाहती हूं।''
''साफ-साफ सुनने का साहस है?'' तिरछी हंसी हंसा अभिमन्यु।
''अवश्य है। साफ बात सुनने का साहस उसे नहीं होता है जिसमें स्वयं बुराई होती है। मुझे अपने साहस का कोई अभाव तो नजर नहीं आता है।''
''अच्छा?'' व्यंग हंसी से लिपटा तीखा प्रश्न जिसमें अविश्वास भरा अपमान साफ झलक उठा।
मंजरी लाल चेहरा करके बोली, ''साफ-साफ बोलो क्या कहना चाहते हो तुम।''
तब तक अभिमन्यु उठकर खड़ा हो गया था। सीने पर दोनों हाथ बांधकर खड़े होते हुए निष्करुण भाव से बोला, ''मैं कोई अलग से बात नहीं करना चाहता हूं हर कोई जो कह रहा है उसी को याद दिला रहा हूं।''
''बहुत-बहुत धन्यवाद।'' मंजरी अपने आपको झुकने न देगी। उसके खजाने में व्यंग हंसी का अभाव नहीं है। तीखी हंसी हंसना उसे भी आता है।
''बहुत-बहुत धन्यवाद! लेकिन दुःख की बात ये है कि तुम्हारे हर कोई क्या कह रहे हैं यह मैं नहीं जानती हूं।''
''हर कोई जो ठीक है वही कह रहे हैं। जो जी में आ रहा है वही करने का यह फल है, तभी यह मुसीबत है। हालांकि तुम्हारे लिए यह मुसीबत नहीं मुक्ति है।''
''हां करीब-करीब ऐसा ही है। अनिच्छुक मन पर अवांछित, एक दायित्व सवार हो गया था...वह दायित्व खत्म हो गया।''
''ऐसा लग रहा है भगवान सच्चे दिल से की गयी प्रार्थना पर ध्यान देते हैं।''
''क्या कहा? मैंने भगवान से यही प्रार्थना की थी?'' वाणबिद्ध पक्षी की तरह आर्तनाद कर उठी मंजरी।
रूढ़ भाषा बोलने का नशा बड़ा ही सर्वनाशा नशा है। उसे वाणबिद्ध पक्षी की तरह तड़प उठते देखकर भी ममता नहीं जागी अभिमन्यु के दिल में। एक हिंसक उल्लास झलक उठा उसके चेहरे पर। शिकारियों जैसा निष्ठुर उल्लास।
''इसके अलावा और क्या सोचा जा सकता है?'' चमकती दृष्टि से देखा अभिमन्यु ने, ''यही तो स्वाभाविक है? जो जंजाल तुम्हारे लिए बेकार है, जिससे तुम मनमानी नहीं कर पाओगी, तुम्हारी आजादी में अंकुश लगेगा, उस जंजाल से छुटकारा पाने के लिए भगवान से प्रार्थना करोगी इसमें आश्चर्य की क्या बात है? यह स्वेच्छाकृत नहीं है, इस बात को कैसे मान लिया जाए?''

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